आदर्श ऑफ़िस के दरिंदे
डॉ. अशोक गौतमजबसे वे मेवानिवृत्त हुए हैं पता नहीं कैसे-कैसे, किन-किन ऑफ़िसों में सपनों में ज़ोर ज़बरदस्ती सारी रात घुसकर मेवारत कर्मचारियों से मिल तरह-तरह के मेवों के ख़्याली चटखारे लेते रहते हैं। जो बंदे सारी नौकरी एक ही ऑफ़िस में कई बार वहाँ से तबादला होने के बाद भी हर बार स्टे लेकर वहीं जमे रहे, वे इन दिनों सारी रात इस उस दफ़्तर विचरते रहते हैं, चरते रहते हैं।
सच पूछो तो उनकी मेवानिवृत्ति के बाद उन्हें आने वाले ऑफ़िसों के सपनों को सुन-सुन कर अब मैं तंग आ गया हूँ। यार! बहुत हो लीं मेवारत कर्मचारियों के साथ सपनों में बैठकें। जो मेवारत हैं, उन्हें तो अब आराम से खाने दो। बीते दिनों को अब क्या याद करना। जो बीत गई सो बात गई। पर नहीं, मानते ही नहीं।
यार! मेवानिवृत्त हो गए। अब मज़े से रात को तो रात को, दिन को भी लंबी तान के सोए रहो। मन करता है साफ़-साफ़ कह दूँ कि अब और मुझे नहीं सुनने तुम्हारे सपने। पर यह सोच चुप हो जाता हूँ कि कल को मुझे भी तो रिटायर होना है। ऐसे में जो मुझे भी ऐसे ही सपने आए तो मैं किसको अपने सपने सुनाऊँगा? उन्हें ही न! बस, यही सोच उनके सपने सुन रहा हूँ कि कल को वे तो कम से कम मेरे सपने सुनने वाले होंगे।
कल रात वे जिस सरकारी ऑफ़िस में घूमे वह आदर्श ऑफ़िस का था। वहाँ की सरकार ने उस ऑफ़िस को आदर्श ऑफ़िस घोषित कर रखा था। आदर्श ऑफ़िस बोले तो मॉडल ऑफ़िस! गई रात वे जैसे ही इस आदर्श ऑफ़िस में घुसे, सारी रात उसमें घूमने, वहाँ के मेवारत बंधुओं से मिलने के बाद के क़िस्से सुनाते हुए यों बोले, “यार! पता है कल रात मैं सपने कहाँ गया था?”
“कहाँ?”
“कल रात मैं एक आदर्शऑफ़िस में जा घुसा तो वहाँ के आदर्श बंदों को देख मैं दंग रह गया। वहाँ बिना किसी शोर-शराबे के सब अपने अपने ढंग से ऑफ़िस को खाने में जुटे हुए। मौन! किसीको किसीसे कोई आपत्ति नहीं।"
यह सुन मैंने उनको बीच में रोकते कहा, "हे मेवानिवृत्त दोस्त! जहाँ किसीके खाने में कोई टाँग नहीं अड़ाता, वहाँ किसीको किसीसे आपत्ति होती ही नहीं।"
तब वे मुझे बीच में रोकते हुए बोले, "पहले पूरा तो सुन! फिर अपनी राय देना। तुम्हारी मुश्किल यही है कि तुम पूरा कुछ भी सुनते नहीं और बीच में ही अपनी राय की टाँग अड़ा हर किसीको गिराने लग जाते हो।
"... तो हुआ यों कि उस ऑफ़िस में सब अपने अपने ढंग से खाने बनाने में जुटे हुए।
"मैंने देखा कि वे सोए-सोए भी आदर्श की बातें करते अपने अधीन हॉस्टल में अपने दोस्तों को फ़्री में ठहरा. उनसे अपने संबंध बनाने में जुटे हुए, वहाँ के कम्बल, रजाइयाँ बेख़ौफ़ घर ले जाने में जुटे हुए। तब मैंने उनसे पूछा, ’भाई साहब! ये क्या? ऐसे सरकार को चूना नहीं लग रहा है।’ तो वे मुस्कुराते बोले, ’बंधु! सरकार के चूने से ही तो अपने को चमकाया जा सकता है। ऐसा करने से संबंध बनते हैं। क्या पता कब कहाँ काम आ जाएँ?’
"तभी दूसरे की ओर रुख़ किया तो वे ऑफ़िस की स्टेशनरी आठ की तो बिल साठ का बनवा उसे निकालने में मग्न। पूछा तो वे बेझिझक बिल निकालते बोले, ’तो क्या हो गया! यहाँ ऐसे ही चलता है।’
‘तो कबसे ऐसे ही चला रहे हो?’
‘जबसे यहाँ आया हूँ।’
"मैंने सादर उन भद्दे पुरुष के पाँव छुए और आगे हो लिया तो सामने क्या देखता हूँ कि वे ऑफ़िस के पुराने पर्दों की गाँठ बाँध अपने कांधे पर उठाने को तैयार! पर उनसे वह गाँठ उठ ही नहीं रही थी। मैंने उन्हें तनिक रोकते पूछा, ’भैया! ये सरकारी ऑफ़िस को बेपर्दा कर पर्दे कहाँ ले जा रहे हो?’
‘अपने घर! और कहाँ? तुम्हें भी चाहिएँ तो कहो? आधे में दे दूँगा,’ फिर वे मज़े से मेरी ओर ताकते बोले बोले, ‘तनिक मेरी इस गाँठ को उठाने में मदद कर दो तो...’
‘तो कुछ दूसरी बार ले जाते?’
‘सरकारी महकमों से माल निकालने का जो काम जितनी जल्दी हो जाए उतना अच्छा। कल को इन पर किसी दूसरे की बुरी नज़र पड़ गई तो???’ उनके सिर पर पर्दों का गट्ठर रखवा अभी हटा भी नहीं था, सामने का नजारा देखा तो दंग रह गया! वे नई कुर्सियाँ फड़वा रहे थे। जब उनसे इस बारे पूछा तो वे बोले, ’मित्र! इस बहाने साहब को भी लगता है कि वे कुछ कर रहे हैं।’
‘पर इससे जनता का पैसा बरबाद नहीं हो रहा जो....’
‘मेरा तो काम हो रहा है न! मैं बेकार की सैलरी नहीं लेता। भगवान को भी पता है इसलिए....’
‘पर ये ऑफ़िस का नुक़सान नहीं?’
‘किसी का नुक़सान होगा तभी तो अपना फ़ायदा होगा न बंधु! दूसरे सरकार तो होती ही है नुक़सान उठाने के लिए। अच्छा, एक भी प्रमाण बताओ जहाँ से अपने कर्मचारियों से सरकार को फ़ायदा हुआ हो? या किसी उसके कर्मचारी ने उसका फ़ायदा किया हो? हे मेरे दोस्त! सरकार होती ही घाटा उठाने को है।’ उनके सरकारीहितोपदेश सुन और आगे बढ़ा तो.... मैं वह अप्रितम दृश्य देख तो मैं दंग ही रह गया।"
"ऐसा क्या देख लिया तुमने जो सबको दंग करने वाला ही दंग होकर रह गया?"
"देखा क्या यार! ऑफ़िसों से मैंने भी बड़ा गंद उठा-उठा खाया है। ऑफ़िसों से गंद उठाने वाले एक से एक देखे हैं, पर गंद उठाने वाला ऐसा बंदा पहली बार देखा।"
"मतलब?"
"मतलब क्या यार! न ही पूछ तो भला। कहते हुए भी उस बंदे से घिन्न आ रही है। बंदे ने बोरों में कुछ भरा था। जब नज़दीक जाकर देखा तो नाक बंद करनी पड़ी। तब नाक बंद करे-करे मैंने उनसे पूछा, ’भाई साहब! कहाँ फेंकने जा रहे हो? मैं मदद कर दूँ क्या?’ तो वे मुझ पर ग़ुस्साते बोले, ’इतनी क़ीमती चीज़ फेंकने को कह रहे हो? कमाल है!’
‘तो क्या है इनमें? बड़ी बुरी बास आ रही है।’
‘कौव्वों की बीठ। घर ले जा रहा हूँ। बाज़ार से खाद लेने के पैसे बचेंगे। शान से घर की क्यारियों में डालूँगा। क्यारियाँ लहलहा उठेंगी। आर्गेनिक सब्जियाँ उगलेंगी।’
‘जो इसे यहीं सबके सिर में थोड़ी-थोड़ी डाल देते तो...’
"तो आगे क्या कहा उस भ्रदपुरुष ने?"
"आगे तो तब सुनता जो बीवी चाय बनाने को न उठाती। चल आज फिर उस आदर्श ऑफ़िस में घुसने की कोशिश करूँगा। शेष फिर... लगता है बीवी जागने वाली है...," तभी अचानक बिस्तर पर पसरी उनकी बीवी की झिड़की पड़ते ही वे अपना प्रोबेशन पूरा करने किचन की ओर कूच कर गए... भीगी बिल्ली बन।
अशोक गौतम,
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,
नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- रावण ऐसे नहीं मरा करते दोस्त
- शर्मा एक्सक्लूसिव पैट् शॉप
- अंधास्था द्वारे, वारे-न्यारे
- अंधेर नगरी फ़ास्ट क़ानून
- अजर अमर वायरस
- अतिथि करोनो भवः
- अपने गंजे, अपने कंघे
- अब तो मैं पुतला होकर ही रहूँगा
- अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा
- अमृत अल्कोहल दोऊ खड़े . . .
- असंतुष्ट इज़ बैटर दैन संतुष्ट
- अस्पताल में एक और आम हादसा
- आज्ञाकारी पति की वाल से
- आदमी होने की ज़रूरी शर्त
- आदर्श ऑफ़िस के दरिंदे
- आश्वासन मय सब जग जानी
- आसमान तो नहीं गिरा है न भाई साहब!
- आह प्रदूषण! वाह प्रदूषण!!
- आह रिटायरी! स्वाहा रिटायरी!
- इंस्पेक्टर खातादीन सुवाच
- उठो हिंदी वियोगी! मैम आ गई
- उधार दे, कुएँ में डाल
- उनका न्यू मोटर वीइकल क़ानून
- उफ़! अब मेरे भी दिन फिरेंगे
- एक और वैष्णव का उदय
- एक निगेटिव रिपोर्ट बस!
- एक सार्वजनिक सूचना
- एप्पों की पालकी! जय कन्हैया लाल की!
- ऐन ऑफ़िशियल प्लांटेशन ड्राइव
- ऑफ़िस शोक
- ओम् जय उलूक जी भ्राता!
- कंघीहीन भाइयों के लिए ख़ुशख़बरी!
- कवि की निजी क्रीड़ात्मक पीड़ाएँ
- काम करे मेरी जूत्ती
- कालजयी का जयंती लाइव
- कालजयी होने की खुजली
- कुक्कड़ का राजनीतिक शोक
- कुछ तीखा हो जाए
- कुशल साहब, ग़ुसल लाजवाब
- केवल गाँधी वाले आवेदन करें
- क्षमाम्! क्षमाम्! चमचाश्री!
- खानदानी सांत्वना छाप मरहमखाना
- गधी मैया दूध दे
- गर्दभ कैबिनेट हेतु बुद्धिजीवी विमर्श
- चमचा अलंकरण समारोह
- चरणयोगी भोग्या वसुंधरा
- चला गब्बर बब्बर होने
- चार्ज हैंडिड ओवर, टेकन ओवर
- चुनाव करवाइए, कोविड भगाइए
- छगन जी पहलवान लोकतंत्र की रक्षा के अखाड़े में
- जनतंत्र द्रुत प्रगति पर है
- जाके प्रिय न बॉस बीवेही
- जी ज़नाब का मिठाई सेटिंग दर्शन
- जैसे तुम, वैसे हम
- जो सुख सरकारी चौबारे वह....
- ज्ञानपीठ कोचिंग सेंटर
- टट्टी ख़त्म
- ट्रायल का बकरा मैं मैं
- ट्रिन.. ट्रिन... ट्रिन... ट्रिन...
- ठंडी चाय, तौबा! हाय!
- ठेले पर वैक्सीन
- डेज़ी की कमर्शियल आत्मकथा
- डोमेस्टिक चकित्सक के घर कोराना
- तीसरे दर्जे का शुभचिंतक
- त्रस्त पतियों के लिए डायमंड चांस
- त्रासदी विवाहित इश्क़िए की
- दंबूक सिंह खद्दरधारी
- दीर्घायु कामना को उग्र बीवी!
- धुएँ का नया लॉट
- न काहू से दोस्ती, न काहू की ख़ैर
- नंगा सबसे चंगा
- नई नाक वाले पुराने दोस्त
- नमः नव मठाधिपतये
- नशा मुक्ति केंद्र में लेखक
- नो कमेंट्स प्लीज!
- नक़लं परमं धर्मम्
- पधारो म्हारे मोबाइल नशा मुक्ति धाम
- परसाई की पीठ पर गधा
- पशु-आदमी भाई! भाई!
- पहली बार मज़े
- पार्टी सौभाग्य श्री की तलाश
- पावर वालों का पावरफ़ुल कुत्ता
- पुरस्कार पाने का रोडमैप
- पुरस्कार रोग से लाचार और मैं तीमारदार
- पुल के उठाले में नेता जी
- पेपर लीकेज संघ ज़िंदाबाद!
- पैदल चल, मस्त रह
- पोइट आइसोलेशन में है वसंत!
- पोलिंग की पूर्व संध्या पर नेताजी का उद्बोधन
- फिर हैप्पी इंडिपेंडेंस डे
- फोटुओं और कार्यक्रमों का रिश्ता
- बंगाली बाबा परीक्षक वशीकरण वाले
- बधाई हो बधाई!!
- बाबा के डायपर और ऑफ़िस में हाइपर
- बुद्धिजीवी मेकर
- बूढ़ों के लिए ख़ुशख़बरी!
- बेगम जी के उपवास में ख़्वारियाँ
- बैकुंठ में जन्म लेती कुंठाएँ
- ब्लैक मार्किटियों की गूगल मीट
- भगौड़ी बीवी और पति विलाप
- भाड़े की देशभक्ति
- भोलाराम की मुक्ति
- मंत्री जी इंद्रलोक को
- मच्छर एकता ज़िंदाबाद!
- मातादीन का श्राप
- मातादीनजी का कन्फ़ैशन
- माधो! पग-पग ठगों का डेरा
- मार्जन, परिमार्जन, कुत्ता गार्जियन
- मालपुआमय हर कथा सुहानी
- मास्टर जी मंकी मोर्चे पर
- मिक्सिंग, फिक्सिंग और क्या??
- मुहब्बत में राजनीति
- मूर्तिभंजक की मूर्ति का चीरहरण
- मेरी किताब यमलोक पहुँची
- मेरे घर अख़बार आने के कारण
- मॉर्निंग वॉक और न्यू कुत्ता विमर्श
- मोबाइल लोक की जय!
- यमराज के सुतंत्र में गुरुजी
- यान के इंतज़ार में चंद्र सुंदरी
- राइटरों की नई राइटिंग संहिता
- राजनीतिक निवेश में ऐश ही ऐश
- रामदास, ठंड और बयानू सिकंदर
- रिटायरमेंट का मातम
- रिटायरियों का ओरिएंटेशन प्रोग्राम
- रैशनेलिटि स्वाहा
- लिंक बनाए राखिए . . .
- लिटरेचर फ़र्टिलिटी सेंटर
- लो, कर लो बात!
- वदाइयाँ यार! वदाइयाँ!
- विद द ग्रेस ऑफ़ ऑल्माइटी डॉग
- विनम्र श्रद्धांजलि पेंडिंग-सी
- वीवीआईपी के साथ विश्वानाथ
- वैक्सीन का रिएक्शन
- वैष्णवी ब्लड की जाँच रिपोर्ट
- व्यंग्य मार्केटिंग में बीवियाँ
- शर्मा जी को कुत्ता कमान
- शुभाकांक्षी, प्यालीदास!
- शेविंग पाउडर बलमा
- शोक सभा उर्फ टपाजंलि समारोह
- सजना है मुझे! हिंदी के लिए
- सम्मान लिपासुओं के लिए शुभ सूचना
- सम्मानित होने का चस्का
- सर जी! मैं अभी भी ग़ुलाम हूँ
- सरकार का पुतला ज़िंदाबाद!
- सर्व सम्मति से
- सामाजिक न्याय हेतु मंत्री जी को ज्ञापन
- साहब और कोरोना में खलयुद्ध
- साहित्य में साहित्य प्रवर्तक अडीशन
- सूधो! गब्बर से कहियो जाय
- सॉरी सरजी!
- स्टेट्स श्री में कुत्तों का योगदान
- स्याही फेंकिंग सूची और तथाकथित साली की ख़ुशी
- स्वर्गलोक में पारदर्शिता
- हँसना ज़रूरी है
- हम हैं तो मुमकिन है
- हाथ जोड़ता हूँ तिलोत्तमा प्लीज़!
- हादसा तो होने दे यार!
- हाय! मैं अभागा पति
- हिंदी दिवस, श्रोता शून्य, कवि बस!
- हिस्टॉरिकल भाषण
- हैप्पी बर्थडे टू बॉस के ऑगी जी!
- ख़ुश्बू बंद, बदबू शुरू
- ज़िंदा-जी हरिद्वार यात्रा
- ज़िम्मेदारों के बीच यमराज
- फ़र्ज़ी का असली इंटरव्यू
- फ़ेसबुकोहलिक की टाइम लाइन से
- फ़्री का चंदन, नो चूँ! नो चाँ नंदन!
- फ़्री दिल चेकअप कैंप में डियर लाल
- कविता
- पुस्तक समीक्षा
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-