पुरस्कार पाने का रोडमैप
डॉ. अशोक गौतमउन्होंने पाठकों को तंग करने को बहुत लिखा। उनको उनसे ख़ुश होते सबने बहुत पढ़ा। उनको लगता था कि उनके लिखने से उनको एक न एक दिन कोई न कोई पुरस्कार ज़रूर मिल जाएगा। उनको लगता था कि उनको पढ़ने से एक दिन उनको कोई न कोई पुरस्कार अवश्य मिल जाएगा। पर वे ग़लत थे, उनकी सोच ग़लत थी। ग़लत सोच के जीव बहूदा सही सोचते हैं। पर उनका सोचा न हुआ। वे लिखते गए, पुरस्कार किसी और को मिलते गए। हरबार पुरस्कार को लेकर हल्ला उनका पड़ता रहा तो पुरस्कारों से गल्ला उनका भरता रहा। उनके हिस्से में लिखना आया तो दूसरों के हिस्सों में पुरस्कार।
जब वे लिख लिख कर थक गए तो वे पुरस्कार हीन, पुरस्कार विहीन कल मुझसे मिले तो मैंने उनसे यों ही पूछ लिया अपना मन रखने के लिए, “और बंधु! अब क्या नया लिखने की सोच रहे हो?” तो वे बोले, “कुछ ख़ास बकवास नहीं। पर बंधु! बेहूदा ऐसा क्यों होता है कि कुछ लिखते रहते हैं तो कुछ क़दम-क़दम पर पुरस्कृत होते रहते हैं?” मैं साहित्यिक नासमझ भी आज उनके मन की व्यथा समझ गया तो उन्हें सांत्वना देते बोला। वैसे भी आज आम से लेकर ख़ास आदमी के पास दूसरों को देने को केवल सांत्वना ही तो शेष बची है, “सबकी अपनी अपनी क़िस्मत है बंधु! कुछ इस दुनिया में केवल काग़ज़ कारे करने आते हैं तो कुछ केवल पुरस्कृत होने।”
“मतलब?”
“मतलब यही कि . . . अच्छा तो लेखक! सच सच बतलाना! तुम भी क्या मन से पुरस्कृत होना चाहते हो? वैसे जितनी कि मेरी समझ है, पुरस्कृत होना बेहतर लेखन की गारंटी नहीं होती। पुरस्कार और बेहतर लेखन दोनों अलग अलग बातें हैं।”
“मतलब??”
अब आगे मेरे पास उनके मतलब का सामना करने की हिम्मत शेष न थी सो उनसे कहा, “अच्छा तो चलो, तुम भी जो पुरस्कृत होना ही चाहते हो तो आज मैं तुम्हें . . . ” और मैं उनको नंगे पाँव ही चर्चित पुरस्कार गुरु के पास ले गया। उन्होंने बीसियों पुरस्कार लिपटासुओं को पुरस्कार का रोडमैप भेंट कर कृतार्थ किया है। वे पुरस्कार रोडमैप बनाने में सिद्धहस्त हैं। पुरस्कार हेतु उनके बनाए बताए रोडमैप पर जो जो आज दिन तक चला, वह पुरस्कार को प्यारा ज़रूर हुआ।
ज्यों ही मैं बदहवास उनको लेकर पुरस्कार गुरु के पास पहुँचा तो पुरस्कार गुरु उस वक़्त अपने चरणों में लोटे लेटे एक पुरस्कार लिपटासु को पुरस्कार का रोडमैप समझाने में व्यस्त थे। मैंने बीच में ही डियर का पुरस्कार गुरु से परिचय करवाया तो पुरस्कार गुरु ने शांत मुद्रा में कहा, “हे पुरस्कार पिपासु! डरो मत। सच्चे लेखक हो तो न निराश करो मन को।”
“हे पुरस्कार गुरु! ये भी अब पुरस्कृत होना चाहते हैं। लिखते-लिखते पुरस्कारी हारों का सामना करते करते बुरी तरह से टूट चुके हैं। बहुत लिख चुके हैं, पर मच्छर भर पुरस्कार तक इनको कहीं से नहीं मिला,” मैंने उनकी निर्लिप्त पैरवी की।
“कोई बात नहीं। पुरस्कार लिखने से थोड़े ही मिल जाया करते हैं दोस्त? सार्थक लिखने के बाद भी पुरस्कार पाने को बहुत कुछ करना पड़ता है,” पुरस्कार रणनीतिकार ने उन्हें देख मुस्कुराते कहा तो मैं झेंपा।
“तो कैसे मिलते हैं पुरस्कार हे पुरस्कार रणनीतिकार?” वे पुरस्कार गुरु के बदले मेरे चरणों में लंबवत दंडवत।
“वत्स! लिखने वालों को जो सच्ची को पुरस्कार मिल जाया करते तो आज . . . यहाँ पुरस्कार बेहतर करने वालों को नहीं, चरणों में लेटने लोटने वालों को मिलते हैं। पुरस्कार देने दिलाने वाले साहबों की चिल्में झाड़ने पोंछने वालों को मिलते हैं। अपनी नाक से इनके उनके घर झाड़ू पोंचा लगाने वालों को मिलते हैं। पुरस्कार पाने को जूते पॉलिश करने पड़ते हैं, पुट्ठे मालिश करने पड़ते हैं। पुरस्कारों के पीछे मेहनत नहीं, तय रणनीति होती है। गुटबाज़ी होती है, पार्टीगत नीति होती है। पुरस्कार पाने को लिखना उतना ज़रूरी नहीं जितना गोटियाँ फ़िट करना होता है। मेरे पास पुरस्कार पाने का भृगुसंहिता से भी प्राचीन रोडमैप है। इस रोडमैप पर चल कुछ ने तो आधी-पौनी रचनाएँ लिख ही दर्जनों पुरस्कार प्राप्त कर लिए हैं। आगे भी उनका पुरस्कार पाने का सिलसिला जारी है। इन दिनों वे पुरस्कारों के पथ पर इस तरह अग्रसर हैं कि बेचारों को लिखने का समय ही नहीं मिल रहा।
“और हाँ! उनको तो जानते ही हो न? जिनको पिछले महीने ही भैरवश्री साहित्य सम्मान मिला है। वे भी पुरस्कार पाने का रोडमैप मुझसे ही ले गए थे। और उन्हें मिल भी गया। वही नहीं, और भी सैंकड़ों को अपने पुरस्कार पाने वाले रोडमैप के रोड पर चला पुरस्कार दिलवा चुका हूँ।
“देखो! यही कड़वा सच है कि आज तो रोड भी बिन रोडमैप के नहीं चलता। आज चलने के लिए रोड नहीं, रोडमैप ज़रूरी है। गए वे दिन जब रोड सम्मान तक पहुँचाते थे। जिसके पास पुरस्कार पाने का रोडमैप होता है वह रोड न होने के बाद भी उस रोडमैप के सहारे पुरस्कार तक बड़े आराम से पहुँच जाता है। अभी ज़रा व्यस्त हूँ, कल ठीक तीन बजे आना। पुरस्कारों की मारों से सामना करने वाले को ऐसा जीत का रोडमैप दूँगा कि . . . ऐसा जीत का रोडमैप दूँगा कि . . .” और फिर वे अपने पास लेटे को पुरस्कार हथियाने का रोडमैप बताने समझाने में व्यस्त हो गए। हम दोनों गद्गद् हो जिस पिछले रास्ते से उनसे पुरस्कार का रोडमैप लेने आए थे, उसी पिछले रास्ते से बाहर हो लिए नाचते-गाते एक दूसरे को चाटते हुए।
1 टिप्पणियाँ
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आदरणीय हम भी पुरस्कारहीन जीवन से थक गए हैं ।आपके मार्गदर्शन में अब लगता है कि आध-पाव पुरस्कार हम भी पा सकते हैं ।
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