तीसरे दर्जे का शुभचिंतक
डॉ. अशोक गौतममेरी किसी बात से आप भले ही सहमत हों या न, पर मेरी इस बात से तो आप भी हंडरड परसेंट सहमत होंगे कि देश आज़ाद होने के बाद भले ही रेल से तीसरा दर्जा ख़त्म हो गया हो पर तीसरे दर्जे के शुभचिंतक आज भी बिन चश्मे के हर किसी के आगे-पीछे हाथ-मुँह धोए पड़े देखे जा सकते हैं।
पहली श्रेणी के शुभचिंतकों का मिलना आज की तारीख़ में वैसे ही कठिन है जैसे आप शताब्दी की करंट बुकिंग के लिए पाँच बजे भी सीट मिलने की उम्मीद में बदहवास दौड़े होते हैं बेकार में, जबकि ट्रेन छूटने का वक़्त पाँच दस का हो।
पहली श्रेणी के इन शुभचिंतकों के साथ सबसे बड़ी तंगी ये होती है कि ये शुभचिंतकी का दिखावा कभी नहीं करते। आपको इन्हें सहायता हेतु पुकारने की भी ज़रूरत नहीं होती। ये अपने आप ही आपको परेशानी में देख आपकी सहायता करने चले आएँगे, हाथ का कौर हाथ में और थाली का कौर थाली में छोड़।
अब रही बात दूसरे दर्जे के शुभचिंतको की, तो आपको ये थोड़ी-बहुत मशक़्क़त करने के बाद अक्सर मिल ही जाते हैं। ये कुछ-कुछ वैसे शुभचिंतक होते हैं जो आपका अच्छा न करें तो बुरा भी नहीं करते। जब इनके दिमाग़ में बुरा करने का ख़याल आए तो ये उसे जैसे-कैसे शुभचिंतक को फटकारते दिमाग़ से बाहर कर ही देते हैं। इन दूसरे दर्जे के शुभचिंतकों की सबसे बड़ी ख़ासियत यही होती है कि ये कम से कम जो अपनों का अच्छा न कर सकें तो बुरा भी नहीं करते। जो उन्हें लगे कि उनका अपने शुभचिंतक का बुरा करने को मन ललचा रहा है तो वे अपने मन के ललचाने के बाद भी जैसे-कैसे अपने बेक़ाबू मन पर क़ाबू पा ही लेते हैं।
पर ये तीसरे दर्जे के शुभचिंतक जब तक मौक़े का पूरा फ़ायदा उठा अपने शुभचिंतक को नीचा न दिखा लें, तब तक इनकी आत्मा को शांति नहीं मिलती। ये किसीके सामने भी अपना बौनापन ऊँचा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। इनके लिए मित्रता की नहीं, केवल अपने बौने कद को बाँस पर चढ़ाने की चिंता होती है। ये किसीके साथ शुभचिंतकी तब तक ही रखते हैं जब तक इनके अहं के क़द पर कोई आँच न आए। जैसे ही इन्हें लगे कि इनके सामने इनसे अधिक क़द्दावर आ गया है तो ये सब कुछ हाशिए पर डाल अपने सड़े दिमाग़ में छुपाई आरी निकाल उसके क़द को तहस-नहस करने में पूरी शिद्दत से जुट जाते हैं। ऐसा करते हुए इन्हें अपने लहूलुहान होने की कतई चिंता नहीं होती।
अगर मैं तीसरे दर्जे में यात्रा न भी करना चाहूँ तो भी ये मेरी असूहलियतों का पूरा ध्यान रख मेरी तीसरे दर्जे की यात्रा की टिकट हवा में लहराते मेरे आगे नाचने का हर मौक़ा हाथ से जाने नहीं देते। गोया आठ पहर चौबीसों घंटे किसी लंगड़े-लूले दूल्हे की लंगड़ी घोड़ी के आगे नाचने को सिर पर कफ़न कसे हों। और फिर मौक़ा मिलते ही फुटपाथ पर बिठा हवा हो लेते हैं। इन परम पूजनीय का मुँह सुबह-सुबह जो दुर्भाग्य से दिख जाए तो सारा दिन मन यों रहता है कि मानो मैंने ख़ुद अपने मन में नीम घुल गया हो।
इन तीसरे दर्जे के परमादरणीय शुभचिंतकों में स्वार्थता इस क़दर कूट-कूट कर भरी होती है कि ये दाव लगते ही अपने बाप तक को भी नीचा दिखाने से न चूकें, इनके अंहकार को देख मैं ऐसा मानता हूँ। हो सकता है अपने को बनाए रखने के लिए ये अपने बाप की पगड़ी से भी हँसते हुए खेल जाएँ। ये अपने को स्थापित करने के लिए अपने बाप तक को भी विस्थापित करने से नहीं हिचकिचाते। इन्हें अपने अहंकारी क़द के आगे हिमालय तक चींटी दिखे तो मोक्ष प्राप्त हो। इनको चाहे उम्र भर स्नेह के लबालब घड़ों में आठों पहर डूबों कर रखिए, पर जब बाहर निकलेंगे तो रूखे के रूखे। मौक़ा मिलने पर ये अपनी माँ के पेट से जनम लेने के बाद जो पुनः प्रवेश कर जाएँ तो माँ के पेट में लात मारने से बाज़ न आएँ।
अपने सिर पर इनके रूमाल तो छोड़िए, बाल तक नहीं होते, पर दूसरों के सिर की बँधी पगड़ी से इन्हें इतनी चिढ़ होती है कि इनके हाथ जो किसीकी पगड़ी का धागा भी लग जाए तो ये उस सिर की पगड़ी बंदरों की तरह तार-तार नहीं कर लेते तब तक इनको खाना हज़म नहीं होता। इनका बस चले तो दूसरों की जेब से बड़े अदब से पैसे निकाल मोमबत्ती हाथ ले सूरज के आगे चौड़े हो अड़ जाएँ।
आपको परेशानी में देख ये तीसरे दर्जे के शुभचिंतक कभी आपकी सहायता कर जाएँ तो आपके जोड़े पानी पिऊँ। हाँ! ये आपकी परेशानी को तमाशा अवश्य बना सहायता का ढोंग कर अपने अहं को संतुष्ट अवश्य करते हैं और इसी के बूते कई-कई दिनों तक बिन दवा-दारू स्वस्थ रहते हैं।
ये बंधु पहले तो आपके सामने सगर्व आपके सच्चे दोस्त हो मेमने से मिमियाते हैं, फिर मौक़ा पाकर आपके सामने खाली शेर हो जाते हैं। इनको अपने शुभचिंतकों का अपमान करने में वह आनंद मिलता है जैसा बड़े-बड़े तपस्वियों को भगवान को पाने के बाद भी क्या ही मिलता होगा।
इन्हें बस पता चलना चाहिए कि इनके शुभचिंतक कहीं दिक़्क़त में हैं। फिर देखिए इनका प्यार, कि ये किस तरह आपको गले लगाते हैं। किस तरह अपने जूते आप पर उछाल मंद-मंद हँसियाते हैं। आपके किए हर उपकार का सीना चौड़ा कर मुँह काला करते नमक हरामी के उदाहरण पर उदाहरण पेश कर किस तरह गदराते हैं।
इस दर्जे के शुभचिंतक अपने थूक को ऊँचाई देने के लिए चाँद पर थूकने से भी गुरेज़ नहीं करते। इनके लिए हर जगह अपना क़द महत्वपूर्ण होता है, मूल्य नहीं। अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए ये भगवान को भी अंडर इस्टीमेट करने से नहीं चूकते। इस श्रेणी के शुभचिंतक बहुधा जिस थाली में खाते हैं या तो खाने के बाद उस थाली को ही उठा कर ले जाते हैं या फिर..... जिस थाली में खाना उसी थाली में छेद पाने वाली कहावत इनके लिए गई गुज़री होती है।
पर मैं फिर भी पता नहीं क्यों हर बार अपने ऐसे शुभचिंतकों को अपने कांधे पर बिठा अपने सिर के सफ़ेद बाल नुचवाने का चाँस लेता रहता हूँ? हर बार अपने तीसरे दर्जे के शुभचिंतकों की बदतमीज़ी को चमकवाने का नैसर्गिक अवगुण मुझमें पता नहीं क्यों हैं मेरे ख़ुदा? जबकि मैं यह भी जानता हूँ कि आदमी सब कुछ बदल सकता है पर शुभचिंतकी के संदर्भों में अपनी औक़ात नहीं बदल सकता।
तीसरे दर्जे के ऐसे सम्मानियों को हम आस्तीन का वह साँप कह सकते हैं कि जिसे हम पता नहीं क्यों संवदेनशील होकर अपनी आस्तीन में लिए फिरते रहते हैं, और एक ये होते हैं कि दाव मिलते ही हमारी आत्मा में डंक मार हमारा शुभचिंतक होने के परम धर्म को निभाते हैं, पूरी ईमानदारी से। इनके बारे में आप तो क्या, भगवान तक कोई भी सटीक तो छोड़िए, भविष्यवाणी तक नहीं कर सकते। हाँ, इनके बारे में मौसम विज्ञानियों सा पूर्वानुमान ज़रूर लगाया जा सकता है।
हे मेरे तीसरे दर्जे के शुभचिंतको! मानता हूँ, तुम्हारे लिजलिजे अहं की शांति में ही हम सब की भलाई है। तुम्हारे झूठे अहं की शांति में ही मुझ जैसों की सुरक्षा है। इसलिए मैंने दिनरात तुम्हें तुम्हारी नज़रों में तुम्हें उठाने के सारे प्रयास कर लिए। पर मैं हर बार असफल रहा। अपनी इस अभूतपूर्व असफलता पर हे मेरे तीसरे दर्जे के शुभचिंतकों, मैं तुमसे दोनों हाथ जोड़ क्षमा माँगता हूँ।
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