कारे कारे बादरा . . . आ रे कारे बादरा 

15-08-2025

कारे कारे बादरा . . . आ रे कारे बादरा 

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

हे हम देश निर्माण को सोए-सोए भी कमर कसे शहर के हर क्लास के ठेकेदारों के प्रियों में सबसे प्रिय कारे कारे बादरा! रीतिकालीन नायिका परदेस गए नायक का वियोग भले ही हर ऋतु में सह ले, पर जिस तरह कारे कारे बादरों के घिरने पर वह परदेस गए अपने नायक का वियोग बिल्कुल भी सहन नहीं कर पाती, उसी तरह और मौसमों में पुल न गिरें तो उनके न गिरने का ग़म हम जैसे-तैसे सहन कर लेते हैं, पर कारे कारे बादरों की छाँव में भी जो कोई पुल न गिरे तो हमसे ज़रा भी सहन नहीं होता। तब हमारे हाथ ख़ुद ही पुल गिराने को मचलने लगते हैं। 

हे कारे कारे बादरा! वैसे तो तुम्हारे आने पर तुम्हारा जादू सबके सिर चढ़ कर बोलता है। तुम्हारेे आने पर आपदा में ग़रीबों को अपना बहादुरी दिखाने का जादू उनके सिर चढ़ कर बोलता है। तुम्हारेे आने पर जल स्रोतों से अधिक अफ़सरों के सिर रीचार्ज होने का जादू अधिक बोलता है। पर तुम्हारा जादू हम ठेकेदारों और नेताओं के सिर सबसे अधिक सिर चढ़कर बोलता है। तुम्हारे आने पर हम पागल हो जाते हैं। उधर असंवेदनशील नेता समझ नहीं पाते कि वे कहाँ से जनता की पीड़ाओं के आर्थिक नुक़्सान के हवाई सर्वेक्षण का शुभारंभ करें और इधर हम समझ नहीं पाते कि गिरे पुलों को बनाने का काम फिर कहाँ से शुरू करें? 

रे कारे कारे बादरा! देख तो हर जगह जाने के बाद भी जो तू मेरे शहर नहीं आ रहा तो प्रशासन कितनी गहरी नींद सो रहा है। सोता तो वह तेरे आने के बाद भी गहरी नींद ही है, पर कुछ-कुछ सोए होने के बीच हरकत में आ-सा जाता है। देख तो मेरे शहर में बरसात न होने पर कोई पुल न गिरने से पुल निर्माण विभाग का टैंडर बाबू कितना परेशान है। देख तो एनडीआरएफ वाले बरसात के मौसम में भी कमर ढीली कर कितने बेफ़िक्रे हो अपने ऑफ़िस के बाहर वाले पीपल के चबूतरे के नीचे ताश खेल रहे हैं। देख तो मेरे शहर के अख़बार वाले दूसरे शहरों की बरसात की तस्वीरें देख कितने खिन्न हैं। सच कहूँ, बिन बरसात के अपने शहर की नॉर्मल लाइफ़ देख लगता नहीं कि मेरा शहर इसी देश का कोई शहर हो। 

रे कारे कारे बादरा! देख तो तेरे मेरे शहर न आने पर सड़कों पर गड्ढों के बीच यातायात कितने मज़े से चल रहा है। शहर की सड़कों पर न कहीं पानी भर हुआ और न कहीं सीवरेज बंद। तू आता है तो वे सड़कों के गड्ढे जिनको विभाग सारा साल भर नहीं पाता वे कम से कम तेरे पानी से तो भर जाते हैं। 

डियर कारे कारे बादरा! वैसे तो पुलों और आदमी के गिरने का कोई समय नहीं होता। लेटेस्ट से लेटेस्ट तकनीक से बनाए पुल और चरित्रवान से चरित्रवान तकनीक से बना व्यक्तित्व आजकल कभी भी गिर जाया करते हैं, किसी भी हालात में गिर जाया करते हैं। ऐसे हालात में भी जब उनके गिरने की सम्भावना सपने में भी नहीं होती। जिन पुलों और चरित्रों के बारे में नैतिकतावादी सोचते हैं कि सब कुछ गिर सकता है, पर वे नहीं गिर सकते, किसी सुबह जब वे अख़बार देखते हैं तो सबसे पहली ख़बर उनके गिरने की ही होती है। 

हे मानसून! तुम्हारे आने पर पुलों के गिरने का अपना ही आनंद होता है। ऐसा आनंद कि जो बहुत से ईमानदारों के चरित्र के दाग़ छुपा लेता है। 

डियर कारे कारे बादरा! सच पूछो तो उसे मैं पुल नहीं मानता जो तेरे आने पर भी टिका रहे। जिस तरह मुसीबतों में भी अपने चरित्र पर टिके रहने वाले को मैं हेय मानता हूँ उसी तरह तेरे आने पर टिके रहने वाले पुल को मैं हेय मानता हूँ। धिक्कार है ऐसे ठेकेदारों पर जिन्होंने सबको तय कमीशन देने के बाद भी पुल के निर्माण में ईमानदारी बरती। पता नहीं उन्होंने यह नैतिकता के विपरीत काम कैसे किया होगा? उन्हें शर्म नहीं आई होगी क्या? पुल के निर्माण के वक़्त सही सामान लगाते हुए क्या उनकी अंतरात्मा ने उन्हें धिक्कारा नहीं होगा? लगता है उनमें और तो सबकुछ रहा होगा, पर तय है अंतरात्मा नाम की चीज़ क़तई नहीं रही होगी। मेरी सरकार से दोनों हाथ जोड़ विनती है कि ऐसे ठेकेदारों को तत्काल बिना किसी नोटिस के ब्लैक लिस्ट कर उनका लाइसेंस रद्द किया जाए। ऐसे बदचलन ठेकेदार नरक जाएँ और उन्हें वहाँ भी पुल बनाने का कोई ठेका न मिले जिन्होंने यहाँ के रसूख़दार ठेकेदारों का गला घोंट कर रख दिया। 

हे कारे कारे बादरा! तुम्हें मालूम न हो तो टीवी देखो, गाँव-गाँव, शहर-शहर तुम आ गए हो! दूसरे शहरों में तुम्हारे क़दम भर रखने से पहले ही पानी भर गया है। सड़कों पर जनता का चलना मुहाल हो गया। सीवरेज के मुँह भ्रष्टाचारियों से खुल गए। टीवी पर देख रहा हूँ कि लोग सड़कों पर नावों में बैठ नौका विहार का आनंद ले रहे हैं। उन्हें सड़कों पर नौकाविहार का आनंद लेते मुझे उनसे बहुत ईर्ष्या हो रही है। ऐसे में तुम्हें धिक्कराने को मेरा बहुत मन हो रहा है क्या, मन ही मन तुम्हें बहुत धिक्कार रहा हूँ। जिन पुलों का अभी उद्घाटन भी नहीं हुआ था, विभाग की लाज बचाते वे भी बिना किसी पूर्व सूचना के धड़ाधड़ गिर रहे हैं। 

हे कारे कारे बादरा! अब तुम सोसाइटी में गर्मी से नजात दिलाने को नहीं, पुल गिराने, सड़कें बहाने को जाने जाते हो। जनता को गर्मी से नजात दिलवाना नहीं, पुल गिराना, सड़कें बहाना तुम्हारा पहला काम है। मेरे शहर भी आओ रे कारे कारे बादरा! मैं तुम्हें अपने शहर पुल गिराने, सड़कें बहाने का खुला निमंत्रण देता हूँ। 

हे कारे कारे बादरा! केवल मेरे शहर को छोड़ पूरे देश में तुम अहा! कितना क़हर बरपा रहे हो। आजकल हर टीवी चैनल को आठ पहर चौबीस घंटे तुम्हीं चला रहे हो। देखो तो, तुम्हारे गरजते भर ही पुल, डंगे मुस्कुराते हुए कैसे धड़ाधड़ गिर रहे हैं, सड़कें धड़ाधड़ मुस्कुराती हुई कैसे बह रही हैं। पर दुःखद! बहुत दुःखद! मेरे शहर में सूखा पड़ा है। तुमसे लाख प्रार्थना करने के बाद भी तुम्हारे आशीर्वाद की एक बूँद तक मेरे शहर में नहीं बरस रही। मेरे शहर के प्रति तुम इतने निष्ठुर क्यों हो गए हो रे कारे कारे बादरा? 

रे कारे कारे बादरा! आरे आरे बादरा! तुम्हारे न आने के कारण मेरे शहर के पुल गिरने, सड़कें धँसनी तो दूर, शहर की वह अँग्रेज़ों के टाइम की पुलिया तक नहीं गिर रही जिसे सरकार ने आज़ादी के तुरंत बाद अनसेफ़ डिक्लेयर कर रखा है। जब टीवी पर दूसरे शहरों में तुम्हारे कर कमलों से गिरते पुल देखता हूँ तो कलेजा मुँह को आ जाता है। मन बेचैन हो उठता है। तब मन करता है जेसीबी से किसी सेफ़ पुल को गिरा दूँ। या कि लाइव ख़ुदकुशी कर लूँ। 

हे कारे कारे बादरा! रहम कर मुझ ग़रीब ठेकेदार पर! आ रे कारे कारे बादरा . . . . . . अब मेरे शहरिया भी आतंक मचा। सड़कें बहा, पुल गिरा, दूँगा दुआएँ हो तेरा भला . . . कारे कारे बादरा . . . पर जनता को तंग मत करना। वे आपदा में हद से अधिक विपदाग्रस्त हो जाते हैं। उनको मिलने वाली सहायता किसी और की हो जाती है। 

अब तुमसे क्या छुपाऊँ कारे कारे बादरा! कल मैं तुम्हारी निष्ठुरता का मारा, दुखियारा दुखी मन रात को अपने सबसे नज़दीकी पुल के पास गया। मुझ दुखियारे को अपनी ओर आते देख वह भी मेरे साथ उदास हो लिया। कोई एक ठेकेदार का दुःख जाने या न, पर पुल, सड़कें, डंगे बख़ूबी समझते हैं। 

पुल के चरणों में आँसू भरे नेत्र लिए गिड़गिड़ाया तो वह मुझसे बोला, “बंधु! तुम्हारा दुःख मैं समझ रहा हूँ, पर मैं कंगना की तरह हेल्पलेस हूँ।” 

“देखो तो यार! दूसरे शहरों में शहर तो पानी-पानी हो ही रहे हैं पर पुल भी पानी-पानी हो रहे हैं। दूसरे शहर में बरसते बादलों को देख मुझे ईर्ष्या हो रही है।”

“मित्र! मैं तुम्हारी पीड़ा समझता हूँ। पर मैं मजबूर हूँ। अब गिरूँ तो गिरूँ कैसे? गिरने का कोई बहाना भी तो चाहिए न? तुम जो कहीं से लाकर एक बूँद भी शर्म मुझ पर डाल दो तो मैं तुम्हें वचन देता हूँ, मैं तुम्हारे हित में तत्काल गिर जाऊँगा,” पुल ने मुझे वचन देते कहा। 

हे कारे कारे बादरा! समझता क्यों नहीं पगले! मेरे प्राण मेरे शरीर में नहीं, तुममें बसते हैं। ऐसे में तुम नहीं आओगे तो मेरा क्या होगा? तुम नहीं आओगे तो उन विभाग वालों का क्या होगा जो तुमसे लाखों की नहीं, करोड़ों की उम्मीदें लगाए बैठे हैं। तुम नहीं आओगे तो नवनिर्मित बने पुल के गिरने पर उसकी जगह नया पुल बनाने को टैंडर कैसे निकलेंगे रे कारे कारे बादरा! 

हे कारे कारे बादरा! अपने हाथों संग पूरे परिवार के हाथ जोड़ तुमसे विनती है कि अब तनिक मेरे शहर की ओर भी अपनी कुदृष्टि डालो प्लीज़! ताकि मुझे ठेकेदार को भी लगे कि कारे कारे बादरा के आने के क्या लाभ होते हैं। देखो तो मैं कबसे चातक हो तुम्हें पुकार रहा हूँ। कमीशन के युग में जो तुम भी कमीशन चाहते हो तो शरमाओ मत! खुल कर कह दो! अब लुकाव छिपाव का जमाना गया। अब कमीशन में भी पूरी पारदर्शिता चल रही है। मन में कुछ भी हो तो तुम्हारे खाते में भेज दी जाएगी। अपना ज़रा मुँह तो खोलो रे कारे कारे बादरा! बड़े से बड़े कमीशनखोर का मुँह बंद करना सहज आता है मुझे। 

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