चला गब्बर बब्बर होने
डॉ. अशोक गौतम
अगर आपके पास चुनाव पर चर्चा करने से ज़रा-सी भी फ़ुर्सत हो तो एक बात तो बताना जनाबो कि आदमी बूढ़ा क्यों होता है? जब वह जवान होता है तो उसकी जवानी वहीं क्यों नहीं रुक जाती?
बस, मजबूरी का चिंतक हुआ इसी उधेड़बुन में चुनावी बुख़ार से सने अख़बार का वासंती धूप में कभी इस टाँग के दर्द को दबाता तो कभी उस टाँग के दर्द को सहलाता, चुनावी ख़बरों का रसपान करता पड़ोसी के दरवाज़े की ओर अपनी लातें किए आनंद ले रहा था कि अचानक सामने से गब्बर सिंह आ गया। मुझे उसे पहचानते देर न लगी। अब आप पूछोगे कि मैंने गब्बर सिंह को कैसे पहचान लिया? तो सच यह है कि अपनी छवि वालों को सज्जन से सज्जन भी आँखें मूँद कर पहचान लेते हैं। अपनी छवि वालों के बदन से एक ख़ास क़िस्म की बदबू आती है जो उन्हें कभी न मिलने के बाद भी मुझ जैसों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है—लाख नाक बंद करने के बाद भी। सच कहूँ तो अपने समय में मैं भी अपने ऑफ़िस में किसी गब्बर सिंह से कम न था। तब पूरे ऑफ़िस में साहब के होते हुए भी मेरा ही ‘ला एंड ऑर्डर’ चलता था। होली हो या दीपावली। अहा! क्या दिन थे वे भी!
“और चचा जान, कैसे हो?” गब्बर ने मेरी कुर्सी के साथ अपने कंधे से अपनी बंदूक उतार खड़ी करते मेरी दाढ़ी को हाथ लगाया तो मुझे अपने ऑफ़िस के दिन याद आ गए। काश! मैं लाइफ़ टाइम ऑफ़िस में ही रहता लाइफ़ टाइम सिम की तरह।
“बस, बुढ़ापे की दया से ठीक ही हूँ भतीजे! अरे ज़मीन पर नहीं, कुर्सी पर बैठो! आराम से। अब गए दिन डाकू लुटेरों के ज़मीन पर बैठने के। व्यवस्थागत कुर्सियाँ अब तुम जैसों से ही सार्थकता को प्राप्त होती हैं। बुढ़ापा इस उम्र में जो दिन न दिखाए वही सही।”
“और अब घुटनों का दर्द कैसा है?” उसने मेरे दाएँ घुटने पर हाथ रखा तो मैं चिल्लाते-चिल्लाते बचा।
“खा रहा हूँ डॉक्टर की कमीशन वाली दवाइयाँ, जिनमें दवाई कम डॉक्टर की कमीशन अधिक होती है। पर एक घुटनों का दर्द है कि न कम हो रहा है, न बढ़ रहा है।”
“तो चचा! इसका मतलब साफ़ है कि दवाई काम कर रही है। काश! इसी तरह तुम्हारी जवानी की दवाइयाँ भी काम करतीं तो आज . . .” गब्बर सिंह ने कुर्सी पर बैठते कामदेव से मेरे बुढ़ापे में जवानी बरक़रार रहने की दुआ माँगी तो मन किया उसे अपनी गोद में बिठा उसे गोदी डाकू बना लूँ। मैंने उसे सामने की ख़ाली कुर्सी पर ज़बरदस्ती बैठाते कहा तो वह तनिक झेंपा। पता नहीं क्यों?
“आराम से कुर्सी पर बैठो गब्बर! बड़े दिनों बाद आए?” मेरे आग्रह पर वह झिझकते हुए कुर्सी पर बैठा। इसका मतलब उसे इस बात का क़तई इल्म न था की आजकल कुर्सियाँ उसकी बिरादरी की बाँदी चल रही हैं।
“हाँ चचा! जंगल में कौवों, गिद्धों, सियारों से पता चला था कि लोकतंत्र का महापर्व मनाया जा रहा है, तो सोचा, लोकतंत्र के महापर्व में ज़रा घूम-घाम आऊँ। जंगल में रहते-रहते बहुत बोर हो रहा था।”
“गुड! अच्छा नहीं, बहुत अच्छा किया मेरे भतीजे! हवा पानी बदलने के लिए बीच बीच में जंगली गुंडों को आधुनिक गुंडों के बीच आ जाना चाहिए। इससे न केवल कुलीन गुंडों से मधुर सम्बन्ध बनते रहते हैं अपितु सुरक्षित गुंडई की नई तकनीकों का पता भी चलता रहता है।”
“सो तो ठीक है चचा, पर अबके मैं भी सोच रहा हूँ कि चुनाव में खड़ा हो जाऊँ पर . . . ”
“तो इसमें पर वाली वाली बता ही क्या है? चुनाव की गंगा बह रही है, तुम भी डुबकी लगा लो,” मैंने उसे सलाह दी तो वह तनिक चिंतित लगा तो मैंने उससे पूछा, “परेशान क्यों हो गए?”
“यही चचा कि मैं ठहरा आपराधिक छवि का और . . .” कह उसे अवसाद ने घेर लिया।
“अरे तो क्या हो गया! यहाँ चुनाव होते ही अपराधियों को चुनने के लिए हैं। तुम तो केवल आपराधिक छवि वाले हो। इस पर्व का बेसब्री से इंतज़ार गंभीर आपराधिक छवि वाले तक करते हैं ताकि इसमें डुबकी लगा वे अपना चरित्र धो सकें। और जैसे ही ये आपराधिक छवियों को माननीय छवियों में बदलने का महापर्व आता है, वे सब अपराधी से माननीय, सम्माननीय सज्जनता को प्राप्त हो क़ानून व्यवस्था को मज़बूत करने में जुट जाते हैं। ये देखो आज के अपराधियों को मिले टिकटों की लिस्ट! हर पार्टी ने तुमसे छोटे दागियों, बागियों को टिकट पर टिकट दिए हैं। तुम एक बार किसी भी पार्टी में टिकट के लिए आवेदन करना तो छोड़ो, उनके पार्टी प्रमुख से ज़रा मेरे फोन से बात भर करके तो देखो, वे उसी वक़्त तुम्हें टिकट ऑफ़र न करें तो मुझे कल से अपना चचा मत कहना। मुझे तो ताज्जुब इस बात का हो रहा है कि अब तक किसी पार्टी की इतने ख्याति प्राप्त पर अपना उम्मीदवार बनाने को नज़र क्यों नहीं पड़ी जबकि . . .
“भतीजे! ये समय तुम्हारा जंगल में लेटे रहने का नहीं, सांसद बन संसद में खाने कमाने का है,” मैंने गब्बर सिंह को अख़बार में गंभीर से गंभीर अपराधियों को मिले टिकटों की लिस्ट दिखाई तो उसके मुँह में पानी आ गया। वह अपने मुँह से बहता पानी पोंछता बोला, “तो चचा! इसका मतलब है कि मैं सही समय पर जंगल से आया हूँ?”
“बिल्कुल सही समय पर मेरे गब्बर!” मैंने उसकी पीठ थपथपाते कहा।
“तो मुझे टिकट के लिए अब क्या करना होगा?”
“ये लो मेरा फोन जिस पार्टी को चाहो बस एक कॉल भर कर दो। तुम्हारी कॉल पा वे प्रसन्नता से गद्गद् हो उठेंगे। बस, समझ लो फिर तुम्हारा टिकट पक्का! तुम जैसे लोकतंत्र रक्षकों को तो आज पार्टियाँ हाथों-हाथ ले रही हैं। क्योंकि अब तुम जैसों के हाथों में आधुनिक लोकतंत्र जितना महफ़ूज़ है उतना ईमानदारों के हाथों में नहीं। फिर मज़े से अपराधी से माननीय बन पुलिस की सलामी लेते रहना। पुलिस को क़ानून व्यवस्था बनाने के जब चाहे ऑर्डर देते रहना,” मेरे इतना भर कहने की देर थी कि उसने मेरी जेब से मोबाइल निकाला और मिला दिया। पता नहीं किस पार्टी मुख्यालय में। और दो मिनट बाद ही गब्बर को चेहरा सांसदी के टिकट से से गुलाल हो उठा। तय है, अगली दफ़ा अब मैं ही उससे मिलने दिल्ली जाऊँगा। पता नहीं तब उसके पास अपने चचा से मिलने को वक़्त भी होगा या नहीं? पर चलो, किसीके धंधा का तरीक़ा इज़्ज़तदार हो जाए, मैं तो बस इसी में ख़ुश हूँ।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- रावण ऐसे नहीं मरा करते दोस्त
- शर्मा एक्सक्लूसिव पैट् शॉप
- अंधास्था द्वारे, वारे-न्यारे
- अंधेर नगरी फ़ास्ट क़ानून
- अजर अमर वायरस
- अतिथि करोनो भवः
- अपने गंजे, अपने कंघे
- अब तो मैं पुतला होकर ही रहूँगा
- अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा
- अमृत अल्कोहल दोऊ खड़े . . .
- असंतुष्ट इज़ बैटर दैन संतुष्ट
- अस्पताल में एक और आम हादसा
- आज्ञाकारी पति की वाल से
- आदमी होने की ज़रूरी शर्त
- आदर्श ऑफ़िस के दरिंदे
- आश्वासन मय सब जग जानी
- आसमान तो नहीं गिरा है न भाई साहब!
- आह प्रदूषण! वाह प्रदूषण!!
- आह रिटायरी! स्वाहा रिटायरी!
- इंस्पेक्टर खातादीन सुवाच
- उठो हिंदी वियोगी! मैम आ गई
- उधार दे, कुएँ में डाल
- उनका न्यू मोटर वीइकल क़ानून
- उफ़! अब मेरे भी दिन फिरेंगे
- एक और वैष्णव का उदय
- एक निगेटिव रिपोर्ट बस!
- एक सार्वजनिक सूचना
- एप्पों की पालकी! जय कन्हैया लाल की!
- ऐन ऑफ़िशियल प्लांटेशन ड्राइव
- ऑफ़िस शोक
- ओम् जय उलूक जी भ्राता!
- कंघीहीन भाइयों के लिए ख़ुशख़बरी!
- कवि की निजी क्रीड़ात्मक पीड़ाएँ
- काम करे मेरी जूत्ती
- कालजयी का जयंती लाइव
- कालजयी होने की खुजली
- कुक्कड़ का राजनीतिक शोक
- कुछ तीखा हो जाए
- कुशल साहब, ग़ुसल लाजवाब
- केवल गाँधी वाले आवेदन करें
- क्षमाम्! क्षमाम्! चमचाश्री!
- खानदानी सांत्वना छाप मरहमखाना
- गधी मैया दूध दे
- गर्दभ कैबिनेट हेतु बुद्धिजीवी विमर्श
- चमचा अलंकरण समारोह
- चरणयोगी भोग्या वसुंधरा
- चला गब्बर बब्बर होने
- चार्ज हैंडिड ओवर, टेकन ओवर
- चुनाव करवाइए, कोविड भगाइए
- छगन जी पहलवान लोकतंत्र की रक्षा के अखाड़े में
- जनतंत्र द्रुत प्रगति पर है
- जाके प्रिय न बॉस बीवेही
- जी ज़नाब का मिठाई सेटिंग दर्शन
- जैसे तुम, वैसे हम
- जो सुख सरकारी चौबारे वह....
- ज्ञानपीठ कोचिंग सेंटर
- टट्टी ख़त्म
- ट्रायल का बकरा मैं मैं
- ट्रिन.. ट्रिन... ट्रिन... ट्रिन...
- ठंडी चाय, तौबा! हाय!
- ठेले पर वैक्सीन
- डेज़ी की कमर्शियल आत्मकथा
- डोमेस्टिक चकित्सक के घर कोराना
- तीसरे दर्जे का शुभचिंतक
- त्रस्त पतियों के लिए डायमंड चांस
- त्रासदी विवाहित इश्क़िए की
- दंबूक सिंह खद्दरधारी
- दीर्घायु कामना को उग्र बीवी!
- धुएँ का नया लॉट
- न काहू से दोस्ती, न काहू की ख़ैर
- नंगा सबसे चंगा
- नई नाक वाले पुराने दोस्त
- नमः नव मठाधिपतये
- नशा मुक्ति केंद्र में लेखक
- नो कमेंट्स प्लीज!
- नक़लं परमं धर्मम्
- पधारो म्हारे मोबाइल नशा मुक्ति धाम
- परसाई की पीठ पर गधा
- पशु-आदमी भाई! भाई!
- पहली बार मज़े
- पार्टी सौभाग्य श्री की तलाश
- पावर वालों का पावरफ़ुल कुत्ता
- पुरस्कार पाने का रोडमैप
- पुरस्कार रोग से लाचार और मैं तीमारदार
- पुल के उठाले में नेता जी
- पेपर लीकेज संघ ज़िंदाबाद!
- पैदल चल, मस्त रह
- पोइट आइसोलेशन में है वसंत!
- पोलिंग की पूर्व संध्या पर नेताजी का उद्बोधन
- फिर हैप्पी इंडिपेंडेंस डे
- फोटुओं और कार्यक्रमों का रिश्ता
- बंगाली बाबा परीक्षक वशीकरण वाले
- बधाई हो बधाई!!
- बाबा के डायपर और ऑफ़िस में हाइपर
- बुद्धिजीवी मेकर
- बूढ़ों के लिए ख़ुशख़बरी!
- बेगम जी के उपवास में ख़्वारियाँ
- बैकुंठ में जन्म लेती कुंठाएँ
- ब्लैक मार्किटियों की गूगल मीट
- भगौड़ी बीवी और पति विलाप
- भाड़े की देशभक्ति
- भोलाराम की मुक्ति
- मंत्री जी इंद्रलोक को
- मच्छर एकता ज़िंदाबाद!
- मातादीन का श्राप
- मातादीनजी का कन्फ़ैशन
- माधो! पग-पग ठगों का डेरा
- मार्जन, परिमार्जन, कुत्ता गार्जियन
- मालपुआमय हर कथा सुहानी
- मास्टर जी मंकी मोर्चे पर
- मिक्सिंग, फिक्सिंग और क्या??
- मुहब्बत में राजनीति
- मूर्तिभंजक की मूर्ति का चीरहरण
- मेरी किताब यमलोक पहुँची
- मेरे घर अख़बार आने के कारण
- मॉर्निंग वॉक और न्यू कुत्ता विमर्श
- मोबाइल लोक की जय!
- यमराज के सुतंत्र में गुरुजी
- यान के इंतज़ार में चंद्र सुंदरी
- राइटरों की नई राइटिंग संहिता
- राजनीतिक निवेश में ऐश ही ऐश
- रामदास, ठंड और बयानू सिकंदर
- रिटायरमेंट का मातम
- रिटायरियों का ओरिएंटेशन प्रोग्राम
- रैशनेलिटि स्वाहा
- लिंक बनाए राखिए . . .
- लिटरेचर फ़र्टिलिटी सेंटर
- लो, कर लो बात!
- वदाइयाँ यार! वदाइयाँ!
- विद द ग्रेस ऑफ़ ऑल्माइटी डॉग
- विनम्र श्रद्धांजलि पेंडिंग-सी
- वीवीआईपी के साथ विश्वानाथ
- वैक्सीन का रिएक्शन
- वैष्णवी ब्लड की जाँच रिपोर्ट
- व्यंग्य मार्केटिंग में बीवियाँ
- शर्मा जी को कुत्ता कमान
- शुभाकांक्षी, प्यालीदास!
- शेविंग पाउडर बलमा
- शोक सभा उर्फ टपाजंलि समारोह
- सजना है मुझे! हिंदी के लिए
- सम्मान लिपासुओं के लिए शुभ सूचना
- सम्मानित होने का चस्का
- सर जी! मैं अभी भी ग़ुलाम हूँ
- सरकार का पुतला ज़िंदाबाद!
- सर्व सम्मति से
- सामाजिक न्याय हेतु मंत्री जी को ज्ञापन
- साहब और कोरोना में खलयुद्ध
- साहित्य में साहित्य प्रवर्तक अडीशन
- सूधो! गब्बर से कहियो जाय
- सॉरी सरजी!
- स्टेट्स श्री में कुत्तों का योगदान
- स्याही फेंकिंग सूची और तथाकथित साली की ख़ुशी
- स्वर्गलोक में पारदर्शिता
- हँसना ज़रूरी है
- हम हैं तो मुमकिन है
- हाथ जोड़ता हूँ तिलोत्तमा प्लीज़!
- हादसा तो होने दे यार!
- हाय! मैं अभागा पति
- हिंदी दिवस, श्रोता शून्य, कवि बस!
- हिस्टॉरिकल भाषण
- हैप्पी बर्थडे टू बॉस के ऑगी जी!
- ख़ुश्बू बंद, बदबू शुरू
- ज़िंदा-जी हरिद्वार यात्रा
- ज़िम्मेदारों के बीच यमराज
- फ़र्ज़ी का असली इंटरव्यू
- फ़ेसबुकोहलिक की टाइम लाइन से
- फ़्री का चंदन, नो चूँ! नो चाँ नंदन!
- फ़्री दिल चेकअप कैंप में डियर लाल
- कविता
- पुस्तक समीक्षा
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-