चला गब्बर बब्बर होने

01-04-2024

चला गब्बर बब्बर होने

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 250, अप्रैल प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

अगर आपके पास चुनाव पर चर्चा करने से ज़रा-सी भी फ़ुर्सत हो तो एक बात तो बताना जनाबो कि आदमी बूढ़ा क्यों होता है? जब वह जवान होता है तो उसकी जवानी वहीं क्यों नहीं रुक जाती? 

बस, मजबूरी का चिंतक हुआ इसी उधेड़बुन में चुनावी बुख़ार से सने अख़बार का वासंती धूप में कभी इस टाँग के दर्द को दबाता तो कभी उस टाँग के दर्द को सहलाता, चुनावी ख़बरों का रसपान करता पड़ोसी के दरवाज़े की ओर अपनी लातें किए आनंद ले रहा था कि अचानक सामने से गब्बर सिंह आ गया। मुझे उसे पहचानते देर न लगी। अब आप पूछोगे कि मैंने गब्बर सिंह को कैसे पहचान लिया? तो सच यह है कि अपनी छवि वालों को सज्जन से सज्जन भी आँखें मूँद कर पहचान लेते हैं। अपनी छवि वालों के बदन से एक ख़ास क़िस्म की बदबू आती है जो उन्हें कभी न मिलने के बाद भी मुझ जैसों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है—लाख नाक बंद करने के बाद भी। सच कहूँ तो अपने समय में मैं भी अपने ऑफ़िस में किसी गब्बर सिंह से कम न था। तब पूरे ऑफ़िस में साहब के होते हुए भी मेरा ही ‘ला एंड ऑर्डर’ चलता था। होली हो या दीपावली। अहा! क्या दिन थे वे भी! 

“और चचा जान, कैसे हो?” गब्बर ने मेरी कुर्सी के साथ अपने कंधे से अपनी बंदूक उतार खड़ी करते मेरी दाढ़ी को हाथ लगाया तो मुझे अपने ऑफ़िस के दिन याद आ गए। काश! मैं लाइफ़ टाइम ऑफ़िस में ही रहता लाइफ़ टाइम सिम की तरह। 

“बस, बुढ़ापे की दया से ठीक ही हूँ भतीजे! अरे ज़मीन पर नहीं, कुर्सी पर बैठो! आराम से। अब गए दिन डाकू लुटेरों के ज़मीन पर बैठने के। व्यवस्थागत कुर्सियाँ अब तुम जैसों से ही सार्थकता को प्राप्त होती हैं। बुढ़ापा इस उम्र में जो दिन न दिखाए वही सही।”

“और अब घुटनों का दर्द कैसा है?” उसने मेरे दाएँ घुटने पर हाथ रखा तो मैं चिल्लाते-चिल्लाते बचा। 

“खा रहा हूँ डॉक्टर की कमीशन वाली दवाइयाँ, जिनमें दवाई कम डॉक्टर की कमीशन अधिक होती है। पर एक घुटनों का दर्द है कि न कम हो रहा है, न बढ़ रहा है।”

“तो चचा! इसका मतलब साफ़ है कि दवाई काम कर रही है। काश! इसी तरह तुम्हारी जवानी की दवाइयाँ भी काम करतीं तो आज . . .” गब्बर सिंह ने कुर्सी पर बैठते कामदेव से मेरे बुढ़ापे में जवानी बरक़रार रहने की दुआ माँगी तो मन किया उसे अपनी गोद में बिठा उसे गोदी डाकू बना लूँ। मैंने उसे सामने की ख़ाली कुर्सी पर ज़बरदस्ती बैठाते कहा तो वह तनिक झेंपा। पता नहीं क्यों? 

“आराम से कुर्सी पर बैठो गब्बर! बड़े दिनों बाद आए?” मेरे आग्रह पर वह झिझकते हुए कुर्सी पर बैठा। इसका मतलब उसे इस बात का क़तई इल्म न था की आजकल कुर्सियाँ उसकी बिरादरी की बाँदी चल रही हैं। 
“हाँ चचा! जंगल में कौवों, गिद्धों, सियारों से पता चला था कि लोकतंत्र का महापर्व मनाया जा रहा है, तो सोचा, लोकतंत्र के महापर्व में ज़रा घूम-घाम आऊँ। जंगल में रहते-रहते बहुत बोर हो रहा था।”

“गुड! अच्छा नहीं, बहुत अच्छा किया मेरे भतीजे! हवा पानी बदलने के लिए बीच बीच में जंगली गुंडों को आधुनिक गुंडों के बीच आ जाना चाहिए। इससे न केवल कुलीन गुंडों से मधुर सम्बन्ध बनते रहते हैं अपितु सुरक्षित गुंडई की नई तकनीकों का पता भी चलता रहता है।”

“सो तो ठीक है चचा, पर अबके मैं भी सोच रहा हूँ कि चुनाव में खड़ा हो जाऊँ पर . . . ”

“तो इसमें पर वाली वाली बता ही क्या है? चुनाव की गंगा बह रही है, तुम भी डुबकी लगा लो,” मैंने उसे सलाह दी तो वह तनिक चिंतित लगा तो मैंने उससे पूछा, “परेशान क्यों हो गए?” 

“यही चचा कि मैं ठहरा आपराधिक छवि का और . . .” कह उसे अवसाद ने घेर लिया। 

“अरे तो क्या हो गया! यहाँ चुनाव होते ही अपराधियों को चुनने के लिए हैं। तुम तो केवल आपराधिक छवि वाले हो। इस पर्व का बेसब्री से इंतज़ार गंभीर आपराधिक छवि वाले तक करते हैं ताकि इसमें डुबकी लगा वे अपना चरित्र धो सकें। और जैसे ही ये आपराधिक छवियों को माननीय छवियों में बदलने का महापर्व आता है, वे सब अपराधी से माननीय, सम्माननीय सज्जनता को प्राप्त हो क़ानून व्यवस्था को मज़बूत करने में जुट जाते हैं। ये देखो आज के अपराधियों को मिले टिकटों की लिस्ट! हर पार्टी ने तुमसे छोटे दागियों, बागियों को टिकट पर टिकट दिए हैं। तुम एक बार किसी भी पार्टी में टिकट के लिए आवेदन करना तो छोड़ो, उनके पार्टी प्रमुख से ज़रा मेरे फोन से बात भर करके तो देखो, वे उसी वक़्त तुम्हें टिकट ऑफ़र न करें तो मुझे कल से अपना चचा मत कहना। मुझे तो ताज्जुब इस बात का हो रहा है कि अब तक किसी पार्टी की इतने ख्याति प्राप्त पर अपना उम्मीदवार बनाने को नज़र क्यों नहीं पड़ी जबकि . . .

“भतीजे! ये समय तुम्हारा जंगल में लेटे रहने का नहीं, सांसद बन संसद में खाने कमाने का है,” मैंने गब्बर सिंह को अख़बार में गंभीर से गंभीर अपराधियों को मिले टिकटों की लिस्ट दिखाई तो उसके मुँह में पानी आ गया। वह अपने मुँह से बहता पानी पोंछता बोला, “तो चचा! इसका मतलब है कि मैं सही समय पर जंगल से आया हूँ?” 

“बिल्कुल सही समय पर मेरे गब्बर!” मैंने उसकी पीठ थपथपाते कहा। 

“तो मुझे टिकट के लिए अब क्या करना होगा?” 

“ये लो मेरा फोन जिस पार्टी को चाहो बस एक कॉल भर कर दो। तुम्हारी कॉल पा वे प्रसन्नता से गद्‌गद्‌ हो उठेंगे। बस, समझ लो फिर तुम्हारा टिकट पक्का! तुम जैसे लोकतंत्र रक्षकों को तो आज पार्टियाँ हाथों-हाथ ले रही हैं। क्योंकि अब तुम जैसों के हाथों में आधुनिक लोकतंत्र जितना महफ़ूज़ है उतना ईमानदारों के हाथों में नहीं। फिर मज़े से अपराधी से माननीय बन पुलिस की सलामी लेते रहना। पुलिस को क़ानून व्यवस्था बनाने के जब चाहे ऑर्डर देते रहना,” मेरे इतना भर कहने की देर थी कि उसने मेरी जेब से मोबाइल निकाला और मिला दिया। पता नहीं किस पार्टी मुख्यालय में। और दो मिनट बाद ही गब्बर को चेहरा सांसदी के टिकट से से गुलाल हो उठा। तय है, अगली दफ़ा अब मैं ही उससे मिलने दिल्ली जाऊँगा। पता नहीं तब उसके पास अपने चचा से मिलने को वक़्त भी होगा या नहीं? पर चलो, किसीके धंधा का तरीक़ा इज़्ज़तदार हो जाए, मैं तो बस इसी में ख़ुश हूँ। 

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