सम्मान लिपासुओं के लिए शुभ सूचना

15-03-2025

सम्मान लिपासुओं के लिए शुभ सूचना

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 273, मार्च द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

अपनी धाँसू साहित्यिक संस्था का प्रधान, उपप्रधान, सचिव, सहसचिव होते अपने शहर के, अपने शहर के आसपास के तमाम पुरस्कृत, अपुरस्कृत साहित्यकार बंधुओं को यह जानकारी देते हुए हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि हमारी साहित्यिक संस्था शहर में युवा रोज़गार मेले की तर्ज़ पर होली के पावन अवसर पर साहित्यकार पुरस्कार मेले का आयोजन करवाने जा रही है। यह साहित्यकार पुरस्कार मेला अपने शहर का ही नहीं, पूरे साहित्यिक संसार का इकलौता ऐसा पहला मेला होगा जिसमें पहली बार साहित्यिक पुरस्कार मेले में साहित्यकारों को एक से एक नामी पुरस्कार हाथों-हाथ बाँटे जाएँगे। ऐसे-ऐसे पुरस्कार कि जिनके नाम आज तक किसी भी साहित्यकार ने न सुने होंगे। हमारी संस्था नहीं चाहती कि अपने शहर का एक भी साहित्यकार बिना किसी पुरस्कार, सम्मान के स्वर्ग सिधारे। अतः अपने शहर के तमाम लिखने, न लिखने वाले कनिष्ठ, वरिष्ठ साहित्यकारों से अपील है कि वे इस साहित्यकार पुरस्कार मेले के लाभार्थी बनते जितनी जल्दी हो सके मन वांछित पुरस्कार के लिए केवल पाँच सौ रुपए ऑन लाइन पंजीकरण शुल्क सहित अपना पंजीकरण करवाएँ। 

बंधुओ! इससे बढ़कर हमें और क्या प्रसन्नता होगी कि लिखने वाले, लिखने का ढोंग करने वालों को पहली बार सम्मनित करने के लिए संस्थाएँ हमारे घर-द्वार आ रही हैं। वर्ना आज तक तो हम ही साहित्यिक पुरस्कार पाने के लिए शहर-शहर भटकते रहे हैं, और वह भी अपनी जेब से पैसे ख़र्च कर। वैसे मुफ़्त में आज कुछ मिलता भी नहीं, सिवाय सरकारी राशन के। 

हम सब जानते हैं कि हम जैसे प्रकाशकों को समर्पित साहित्यकार पैसे देकर अपनी किताब छपवाते हैं। हम जैसे साहित्यकार पैसेे देकर पुरस्कार पाते हैं। हम जैसे साहित्यकार क़दम-क़दम पर पैसेे देकर सरकारी ख़रीद में अपनी किताब डलवाते हैं। 

बंधुओ! कविता लिखना कला हो या न, कविता में पुरस्कार पाना कला है। बंधुओ! कहानी लिखना कला हो या न, कहानी में पुरस्कार पाना कला है। बंधुओ! उपन्यास लिखना कला हो या न, उपन्यास में पुरस्कार पाना कला है। और तो और, चुटकुले लिखना कला हो या न, पर चुटकले लिखने का पुरस्कार पाना भी कला होती है। 

आप तो जानते ही हैं कि साहित्य में सरकारी पुरस्कार हैं ही कितने? जो हैं वे कैसे दिए जाते हैं? जो हैं वे कैसे लिए जाते हैं? सरकार है कि सालों-साल पहले घोषित किए साहित्यिक पुरस्कारों का टुकड़ा हर साल साहित्यकारों की जीभ के आगे नचाती उन्हें पुरस्कारों का लालच दिए रहती है, पर जैसे ही उसे अपनी पसंद का साहित्यकार मिलता है या कोई साहित्यकार अपने को तोड़-मरोड़ कर उसकी नज़रों में उसकी पंसद का बन जाता है, दूसरों के बदले उसके नाम पर सरकारी पुरस्कार की घोषणा हो जाती है। 

सरकारी साहित्यिक पुरस्कारों के लिए लिखना ज़रूरी नहीं होता, सरकारी पुरस्कार देने वालों से चिपकना ज़रूरी होता है। जो फ़ेविकोल से भी पक्के ढंग से सरकार से चिपक जाते हैं वे पुरस्कार पा जाते हैं और जो लेखन के दम पर पुरस्कार पाने की गंदी सोच पाले होते हैं वे गच्चा खा जाते हैं। 

हम जानते हैं कि बेरोज़गार युवाओं में रोज़गार की तरह पुरस्कृत साहित्यकारों में भी पुरस्कारों की माँग बहुत बढ़ गई है। समाज में पढ़े-लिखे बेरोज़गारों की तरह अपुरस्कृत साहित्यकारों की भी बाढ़ आ गई है। एक पत्थर उठाओं तो दस अपुरस्कृत साहित्यकार निकले आते हैं। जिस तरह बग़ल में एक से एक डिग्रियाँ दबाए बेराजगार युवा रोज़गार के लिए भटक रहे हैं उसी तरह अपनी, दूसरों की रचनाओं के नीचे अपना नाम लिख, सिर पर उठाए हर कैटेेगरी के साहित्यकार पुरस्कारों, सम्मानों के लिए संस्था संस्था भटक रहे हैं। अब सम्मान पिपासुओं का पुरस्कार, सम्मान के लिए संस्था संस्था भटकना बंद। 

बंधुओ! हम जानते हैं कि जीवन का मल पुरस्कार है, सम्मान है। क़ायदे से सम्मान मिलना तो काम करने वालों को चाहिए, पर ऐसा वास्तव में होता नहीं। हो तब जो कहीं क़ायदा हो। इसलिए जो काम करते हैं, वे काम करते मर जाते हैं और जो पुरस्कार पातेे हैं वे पुरस्कार पाते पाते। 

पुरस्कार के बिना जीवन नरक है। चाहे वह साहित्यिक जीवन हो चाहे ग़ैर साहित्यिक जीवन। हालाँकि किसीको मिले पुरस्कारों से समाज को कोई लेना-देना नहीं होता, पर कम से कम अपने को शान्ति सी मिल जाती है। इसी शान्ति के लिए क़िस्म का जीव कहाँ-कहाँ नहीं भटक रहा? कहाँ-कहाँ नहीं चटख रहा? 

पुरस्कार के लिए जीव क्या-क्या नहीं करता! कहाँ-कहाँ से मैनेज नहीं करता! किस-किसके आगे घुटने नहीं टेकता! किस-किसके चरणों में पालतू कुत्ता हो नहीं बैठता! किस-किस के आगे नाक नहीं रगड़ता! और जब उसे पुरस्कार मिल जाता है तो वह सारे तिरस्कार भूल जाता है। पुरस्कार के लिए टेके रिसते घुटनों की पीड़ा भूल जाता है, पुरस्कार के लिए पाँव-पाँव रगड़ी नाक के ज़ख़्म भूल जाता है। पुरस्कार मिला तो सब भला। 

बंधुओ! पुरस्कार के सभी भूखे होते हैं। भूखों को भोजन खिलाने वाले भी। सम्मानों को तज प्रभु के भजन गाने वाले भी। पुरस्कारों की भूख अन्य सभी भूखों से बड़ी होती है। जो सारा साल हिंदी में काम नहीं करते वे हिंदी पखवाड़े में हिंदी सेवी सम्मान से सम्मानित हो जाते हैं। जो ऑफ़िस में अपनी सीट पर कभी नहीं दिखते वे छब्बीस जनवरी को सर्वश्रेष्ठ ऑफ़िस कर्मी के सम्मान से सम्मानित हो जाते हैं। जिनका समाज के विनाश में सबसे अधिक योगदान रहता है वे समर्पित समाज सेवियों के सम्मान से हो जाते हैं। पुरस्कार पाने के लिए तुच्छ से तुच्छ जीव भी ऐसी ऐसी हरकतें करता है कि उसकी हरकतों को देख कर कई बार रोना और हँसी दोनों एक-साथ आते हैं। अब आप रोइए या हँसिए, उन पर तानें कसिए या अपने पर कसिए। उन्हें तो साम, दाम, दंड, भेद से जैसे भी हो, पुरस्कार लेना होता है बस, सम्मानित होना होता है बस! और वह सम्मानित होकर ही दम लेते हैं। 

जीवन में पुरस्कारों के इसी सच को ध्यान में रखते हुए हमने तय किया है कि हम अपने साहित्य भाइयों के लिए अपने शहर में पुरस्कार मेले का आयोजन करवाएँ। 

लिटरेरी मित्रो! वैसे तो आजकल साहित्य में ऑन लाइन पुरस्कारों की कमी नहीं। दो कविताएँ लिखने वाले भी ऑन लाइन बीस-बीस पुरस्कार लिए पुरस्कारों के बाज़ार में अपने कंधे पर जून में भी शॉल रख हाथ में श्रीफल लिए टहलते मज़े से देखे जा सकते हैं। पर ये साहित्यिक संस्थाएँ साहित्यकारों को सबके सामने मंच पर लाइव सम्मानित करेंगी। साहित्यकार में साहित्य भले ही लाइव हो या न। 

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