रामदास, ठंड और बयानू सिकंदर
डॉ. अशोक गौतम
चल रहे चुनाव में रामदास चार पार्टियों से वोट के बदले मिले चार कंबलों में लाल क़िले की ओट में दुबका पड़ा था, पर एक ठंड थी कि फिर भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी। वह ठंड से बचने की जितनी कोशिश कर रहा था, ठंड उतना ही चुनावी कंबलों को चीर उसे अपने होने का अहसास कराना चाह रही थी।
इसी कड़ाके की ठंड में रामदास उठने की जितनी कोशिश करता, वोट के बदले मिले कंबल उसे एक दूसरे से अधिक उतना ही अपने में दबोच रहे थे। आख़िर उसने कंबलों के बीच में से तनिक मुँह बाहर निकाला तो सामने कोहरे में किसी ठिठुरती को देख वह परेशान हो उठा। उसने वोट के बदले मिले कंबलों में से एक चौथाई मुँह बाहर निकाले पूछा, “कौन?”
“मैं ठंड!”
“क्या चाहती हो?”
“मुझे बचा लो रामदास प्लीज़,” पर रामदास उसको बचाए कैसे? वह तो ख़ुद बचने की कोशिश कर रहा था, “सब मेरे पीछे पड़े हैं?”
“सब कौन? झूठ बोलते शर्म नहीं आती? सबके पीछे तो तू पड़ी है। इतनी ठंड में कोई किसीके पीछे कैसे पड़ सकता है?” फिर कंबल में दुबके रामदास ने मन ही मन सोचा तो उसे लगा कि हो सकता है, ठंड के पीछे वे पड़े हों जिन्हें ठंड में भी ठंड न लगती हो, आख़िर उसने ठंड को अपने कंबल में बैठा लिया।
ठंड की ठंड भुलाने के लिए दोनों गप्पें मारने लगे। रामदास ने ठंड से पूछा, “तो तुम्हारे पीछे कौन पड़ा है? पुलिसवाला?”
“नहीं, नेता लोग।”
“बावली! उनका क्या! वे तो किसीके भी पीछे पड़ जाते हैं। उनके पीछे पड़ने को तू क्यों इतनी गंभीरता से लेती है? उनका काम तो पीछे पड़ना ही है। गर्मियाँ आती हैं तो वे गर्मियों के पीछे पड़ जाते हैं, सर्दियाँ आती हैं तो सर्दियों के। वसंत आता है तो वेलेंटइान के पीछे पड़ जाते हैं और जब बारिश होती है तो बारिश के।”
“अच्छा! अब तुम ही कहो कि मैं जो सर्दियों में न आऊँ तो क्या गर्मियों में आऊँ?” ठंड ने कड़ाके की ठंड से बचने के लिए रामदास के ऊपर से ज़रा सा कंबल खींचते पूछा तो रामदास ने चिंतक होते पूछा, “मतलब?”
“समय पर आती हूँ तो मुझे लेकर राजनीतिक बयानबाज़ी शुरू हो जाती है। समय पर न आऊँ तो मुझे लेकर राजनीतिक बयानबाज़ी शुरू हो जाती है। अब तो मन करता है कि मैं आना ही छोड़ दूँ।”
“नहीं! तुम नहीं आओगी तो चुनाव के समय हम ग़रीबों को कंबल रजाइयाँ कौन देगा?”
“सो तो है!” तब अपना दुखड़ा रोते ठंड रामदास से गंभीर मुद्रा में बोली, “जब मैं आई तो वे बाज़ार की तरह मेरा स्वागत करते बोले, ‘मित्रो! हमारे शासन काल में सबकी तरह ठंड भी सही समय पर आई है। उसे भी हमारी तरह समय की क़द्र है। ठंड ही क्या, जबसे हमारी सरकार बनी है, तबसे हर मौसम सही समय पर आ रहा है। यह मौसमों के साथ हमारे तालमेल का सूचक है। अन्य मौसमों के समय पर आने की तरह हम ठंड का भी हाथ बढ़ाकर स्वागत करते हैं। हमने गर्म कपड़ों के बाज़ार को ठंड से समझौता कर नई ऊँचाइयाँ दी हैं। जनता को कंबल रजाइयाँ फ़्री में दी हैं,’ उनके द्वारा अपने स्वागत का आनंद अभी ले ही रही थी कि वे अपनी नाक मीडिया के सामने सुड़कते बोले, ‘ऐसा नहीं कि हर मौसम हमारी सरकार के समय पर भी सही समय पर नहीं आता था। असल में हमने ही जनता के बीच हर मौसम को सही समय आने के लिए उसके साथ पहली बार समझौता किया था। पर अब वे इसका श्रेय लेकर अपनी जनता में जय जयकार करवा रहे हैं। आज उनके शासनकाल में जो ठंड पड़ रही है और हमारे शासनकाल में जो ठंड पड़ती थी, उसमें ज़मीन आसमान का अंतर होता था। हमारे शासनकाल में ठंड में भी ग़ज़ब की गर्माहट होती थी। तब ठंड में जनता बिन कम्बलों के भी नहीं ठिुठरती थी। हम जानते थे कि जनता को कैसी ठंड चाहिए। हमारे शासनकाल में जो ठंड पड़ती थी वह किसी धर्म विशेष के लोगों पर नहीं पड़ती थी। तब उसके लिए सभी धर्म समान होते थे। हम जनता की ओर से इस सरकार से पूछना चाहते हैं कि आख़िर ये ठंड केवल हमारे वोट बाहुल्य क्षेत्रों में ही क्यों पड़ रही है? लोकतांत्रिक सरकार का धर्म होता है कि ठंड सब जगह समान पड़े। ऐसा होने से लोकतंत्र मज़बूत होता है। चाहे वहाँ किसी भी पार्टी की सरकार हो। हम सरकार से चौक-चौक पर इस विद्वेषपूर्ण ठंड पर गर्मागर्म बहस चाहते हैं। बहस करने को हम हर समय तैयार हैं। जबसे ये नई सरकार आई है, इससे पहले ऐसी भेदभावपूर्ण, विद्वेषपूर्ण ठंड पहले कभी नहीं देखी थी।’
“मैं आई तो वे सिर पर पार्टी की टोपी लगाए मीडिया को संबोधित करते बोले, ‘हम सरकार से पूछना चाहते हैं कि आख़िर चुनाव के समय ही ईडी के छापों के साथ इतनी ठंड क्यों पड़ने लगती है? चुनाव से पहले भी तो ठंड के मौसम आते थे? तब इतनी कड़ाके की ठंड क्यों नहीं पड़ी? असल में वे चाहते हैं कि चुनाव में वोटिंग के वक़्त हमारे वोटर कंबलों में ही दाँत किटकिटाते दुबके रहें। चुनाव के दिनों में ज़रूरत से अधिक ठंड पड़वाकर वे हमारे वोटरों को डराना धमकाना चाह रहे हैं। क्योंकि वे ग़रीब हैं। पर हमारे वोटर उन्हें चुनौती देते कहना चाहते हैं कि उनके लाख ठंड से रोकने के बाद भी वे हमारे पक्ष में ही वोट डालेंगे। चाहे उन्हें खाँसते खाँसते, नाक साफ़ करते-करते वोट डालने क्यों न आना पड़े। ठंड और वे आपस में मिले हुए हैं। हम जल्दी ही विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर उनके इस षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश करेंगे।’
“मैं आई तो वे आग बबूला होते बहके, ‘ठंड पड़ रही है तो पड़ रही है, पर अब असल सवाल ये कि पिछड़े वर्गों की बस्तियों में ही क्यों पड़ रही है? ये ठंड भी उनकी ही तरह मनुवादी सोच की प्रतीक है। हमें उनकी तरह उनकी ठंड का भी बहिष्कार करना होगा। ये ठंड असंवैधानिक है। ये ठंड संविधान के विरुद्ध है। हम इस ठंड के ख़िलाफ़ राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजेंगे ताकि अल्पसंख्यकों को इस ठिठुरती ठंड से मुक्ति मिल सके।’
“मैं आई तो उधर वे अपने चिरपरिचित अंदाज़ में ठंड को पान की तरह चबाते कड़ाके की ठंड में भी कुरते पजामे में मीडिया के सामने मुख़ातिब होते बोले, ‘संविधान के किसी भी पन्ने पर यह कहीं नहीं लिखा है कि ठंड के मौसम में इतने कड़ाके की ठंड पड़नी चाहिए। मानते हैं ठंड के मौसम में ठंड को पड़ना चाहिए। पर सरकार के बहकावे में आकर ठंड को नहीं नहीं पड़ना चाहिए। ठंड को राजनीति से दूर रहना चाहिए। ये सरकार संविधान के ख़िलाफ़ काम कर रही है। ग़रीब जनता के ख़िलाफ़ काम कर रही है। सरकार के इस असंवैधानिक रवैये के ख़िलाफ़ मुझे कहने से रोकने के लिए जो सरकार मेरे सिर पर अपनी बहकाई ठंड में चुपा कराने को अंगीठी भी रख दे तो भी मैं जनहित में सरकार के इस संविधान विरोधी रवैये का गर्मियाँ आने तक विरोध करूँगा। मैं सरकार की इस नई चालाकी का घोर विरोध करता हूँ। हमारी सरकार आने पर हम सबसे पहले इस सरकार की मौसम नीति को जनहित में बदलेंगे।’अब तुम ही कहो रामदास! मैं क्या करूँ?”
“करना क्या? गर्मियाँ आने तक मेरे साथ यों ही दुबकी रहा। ख़ूब जमेगा रंग जब मिल बैठ लिपट बैठेंगे तीन यार! रामदास, ठंड और चुनावी कंबल,” रामदास ने शायराना अंदाज़ में ठिठुरते-ठिठुरते कहा तो ठंड वह और कंबल एक दूसरे के साथ चिपक कर दुबक गए।
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