सर जी! मैं अभी भी ग़ुलाम हूँ

01-12-2021

सर जी! मैं अभी भी ग़ुलाम हूँ

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 194, दिसंबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

धन्य हैं मेरे वे देशवासी जिन्हें उन्नीस सौ सैंतालीस में आज़ादी मिली थी। वह आज़ादी नक़ली थी या असली वे ही जाने। उन दिनों मैं पैदा नहीं हुआ था। पैदा हुआ होता तो आपको बता देता कि वह कैसी आज़ादी थी। 

जो उस टाइम किसी वज़ह से आज़ाद होने से बच गए थे ठीक उसी तरह जिस तरह सरकारी नौकरी में एक साथ लगे कुछ पक्के हो जाते हैं और कुछ पक्के होने से रह जाते हैं और बाद में जाकर पक्के होते हैं; इनकी तरह उन्हें भी यह जानकर घोर आश्चर्य होगा कि वे दो हज़ार चौदह में आज़ाद हो चुके हैं। हाय! बेचारों को आज़ादी की दूसरी नोटिफ़िकेशन के लिए कितना लंबा इंतज़ार करना पड़ा! कोई बात नहीं! अपने यहाँ देर है, अँधेर नहीं! चलो! अब अपनी असली आज़ादी का जश्न मनाओ। काश! उनको अपनी आज़ादी का उसी साल पता चल जाता तो आज़ादी का मज़ा ही कुछ और होता। तब सन सैंतालीस में आज़ाद हुओं की तरह आज वे भी देश को पता नहीं कहाँ पहुँचा चुके होते?

देर आए दुरूस्त आए। शुक्र है, जो पहले किसी वज़ह से आज़ाद नहीं हो पाए थे, आज़ादी के सात साल बाद ही सही, उन्हें पता तो चला कि अब वे भी आज़ाद हैं, और वह भी असली के। वर्ना कइयों को तो अपने मरने के बाद भी अपनी असली आज़ादी को तो छोड़ो, कहने की आज़ादी तक का पता नहीं चल पाता। मरने के बाद भी वे ग़ुलामों सा ही फ़ील करते हैं। इसलिए इन्हें भी मेरा प्रणाम! आज़ादी की नई असली नोटिफ़िकेशन पर मेरी ढेर सारी शुभकामनाएँ। अब उनसे एक गुज़ारिश और है कि वे दो हज़ार चौदह में आज़ाद हुओं को आज़ादी के सारे लाभ बैक डेट से देने की भी नोटिफ़िकेशन कर दें ताकि उनके खाते में ढेर सारी आज़ादी जमा हो जाए। 

और जो मेरे जैसे बचे-खुचे दो हज़ार चौदह के बाद के अभी भी आज़ाद होने को तड़प रहे हैं, अब मेरी सारी मूल शूल संवदेनाएँ अपने और उनके साथ हैं। पता नहीं, आज़ादी की तीसरी नोटिफ़िकेशन अब कब होगी? कोई करेगा भी या मेरे जैसे शेष अशेष ग़ुलाम ही रह जाएँगे। ख़ुदा न ख़ास्ता! जो आज़ादी की तीसरी नोटिफ़िकेशन नहीं हुई तो मेरी तरह वे आज़ादी के उपभोग से सदा सदा को वंचित न रह जाएँ कहीं। 

मित्रो! अपनी ग़ुलामी के बारे में आपको यह बताते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है कि देश के दो बार आज़ाद होने के बाद भी अभी तक मुझे आज़ादी नहीं मिली है। न असली, न नक़ली। असली तो पता नहीं अपने यहाँ कुछ है भी या नहीं। नमक तक तो नक़ली है। 

आज भी घर में बीवी की वही अँग्रेज़ी मेमों वाली ग़ुलामी! ऑफ़िस में साहब की वही साबजी वाली ग़ुलामी। घर में वही बीवी की मेम वाली तानाशाही! ऑफ़िस में वही साहब की साबजी वाली तानाशाही। 

सुबह उठकर सबसे पहले उसके लिए चाय बनाओ। अपनी चाय ठंडी हो जाए तो हो जाए। फिर बिस्तर पर योगा करती, चाय पीती बीवी के आगे भोर का गीत गाओ। उसके बाद जब वह भोर का गीत सुन योगा करती-करती चाय पीकर सो जाए तो इस ठंड में ठंडी चाय पीकर अपने भीतर चुस्ती फ़ील करो। उसके बाद अपने लिए ऑफ़िस को ख़ुद ही लंच बनाओ। अपने लिए लंच बने या न बने, पर बीवी के लिए ब्रेक फ़ास्ट बनाकर हर हाल में छोड़ जाओ। ऑफ़िस जाने से पहले सारे घर में झाड़ू पोंछा करके जाओ।

गिरते-पड़ते ऑफ़िस पहुँचो तो ऑफ़िस में ऑफ़िस के काम के बदले साहब के पर्सनल काम। पता नहीं अपने कामों की इतनी लंबी लिस्ट रोज़ कैसे कहाँ से बनाकर ले आते हैं? साहब का रौब देखो तो अँग्रेज़ों वाला। बात बात पर उनके रौब को देखकर लगता है ज्यों गोरे अँग्रेज़ों ने चोरी से अपना रंग बदल लिया हो यहीं रहने को। 

उनके घर का काम न करो तो एसीआर ख़राब करने की धमकी। बात-बात पर यों डराना कि मेरे घर के कामों में कोताही बरती तो वे मेरे करिअर का ये कर देंगे, वे मेरे करिअर का वो कर देंगे। पता नहीं तब उन्हें मैं यह कहने से क्यों डरता हूँ कि साहब! घर में, ऑफ़िस में करिअर है ही किसका? फिर भी डर के मारे तब दुम दबाए उनके घर जाओ। उनके घर की सब्ज़ी-भाजी अपने पैसों से लाओ। जो वे आँखें तरेरते हुए कभी पैसे देने ही लगें तो सिर झुकाए कहो, “साहब! ये भी तो आपके ही पैसे हैं। मेरी जेब! आपकी जेब,” दस से पाँच तक रोज़ उनके घर का कभी ये काम करो तो कभी उनके घर का वो काम करो। साला शरीर इतना अपने घर के काम करते नहीं टूटता जितना साबजी केे घर के काम करते टूट जाता है।

इस बारे मैं पूरा श्योर हूँ कि इस जन्म में असली आज़ादी तो मिल नहीं पाएगी। पर जो भीख में ही कहीं से सौ-पचास वाली आज़ादी मिल जाती तो मैं भी अपनी आज़ादी का जश्न मना गा लेता- “उड़ता फिरूँ बनके यंकी मस्त गगन में, आज मैं आज़ाद हूँ उनके अपने किचन में।"

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