एक सार्वजनिक सूचना
डॉ. अशोक गौतम
अपने तमाम आमों और ख़ासों को सार्वजनिक करते हुए अपार प्रसन्नता हो रही है कल मैंने अपनी अक़्ल दाढ़ भी निकलवा ली है।
असल में ये मेरी अक़्ल दाढ़ मुझे लंबे समय से बीवी से भी अधिक परेशान किए थी। सच कहूँ तो बेरोज़गारी के दिनों में बेरोज़गारी से मैं उतना परेशान नहीं हुआ जितना इस अक़्ल दाढ़ की परेशानी की वजह से हुआ। सच कहूँ तो महँगाई से भी मैं उतना परेशान नहीं हुआ जितना इस अक़्ल दाढ़ की वजह से हुआ। अक़्ल का फ़क़ीर होने के बाद जब ये बीच-बीच में मुझे परेशान करती तो लगता ज्यों मेरी सब परेशानियों की वजह जो कोई है तो बस, यह अक़्ल दाढ़ ही है। इसके साथ अक़्ल संबोधन लगा होने के चलते, तब सोचता, काश! मेरे केवल दाढ़ ही होती। अक़्ल दाढ़ न होती। फिर सोचा, उनकी तरह इस दाढ़ का नाम ही बदल लूँ। पर नाम बदलने से परेशानियाँ कहाँ कम हुई हैं जनाब! मन बहल जाता है बस!
लंबे अरसे से इस बदतमीज़ अक़्ल दाढ़ की परेशानी की वजह से मेरा खाना–पीना सब बंद-सा हो गया था। इसकी वजह से अपने दोस्तों तक के बीच मेरा उठना–बैठना मेरा लगभग बंद-सा हो गया था। उन्हें लगता था कि मेरे पास अक़्ल न होने के बाद भी मैं अक़्ल दाढ़ से जुड़ा हुआ हूँ। अक़्ल न होने के बाद भी अक़्ल दाढ़ के भार को गधे की तरह ढो रहा हूँ।
वैसे मित्रो! जिनके पास अक़्ल भी है, वे कौन सा अपने दड़बे से बाहर निकल पाए हैं? अपने बारे में तो बिन अक़्ल के भी बड़े मज़े से सोचा जा सकता है तो फिर बेकार में अक़्ल का बेकार का भार ढोने से क्या फ़ायदा! पहले ही जीवन में और भार क्या कम हैं, जो अब एक अक़्ल के भार को भी गधा बन ढोया जाए? हे अक़्ल वालो! स्मरण रहे, समाज अक़्ल के सेठों को भर-भर मुँह, उनकी पीठ के पीछे ही नहीं, अब तो उनके मुँह पर भी छाती ठोंक-ठोंक कर गालियाँ देने लगा है। मैं तो कहता हूँ कि जब अपने बारे में अक़्ल वालों से अधिक बिन अक़्ल के तटस्थता और ईमानदारी से सोचा जा सकता है तो शरीर पर नाक के बाद एक और फ़ालतू पुर्जा क्यों।
भाइयो! सच पूछो तो ये जो हमारी अक़्ल होती है न! ये सौ बुराइयों की जड़ होती है। ये समाज में पता नहीं क्या-क्या उलटा–सीधा करवाती रहती है। इसकी वजह से ही अधिकतर समाज रहने लायक़ नहीं रहता। इसकी वजह से ही समाज में दंगे फ़साद होते हैं। जब तक हमारे पास अक़्ल नहीं थी तब तक हम ख़ूब मिल जुल कर रहते थे। पर जब से जिस जिसके पास अक़्ल आई, वह अपनों से दूर रहने लगा। इसलिए मेरा तो यही उपदेश है कि बुराइयों को बार-बार काटने से बेहतर है कि अक़्ल को ही खोपड़े से काट कर बाहर फेंका जाए।
हे मेरे शुभचिंतको! मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मैं बेअक़्ला ज़िन्दगी में सब कुछ रहा, पर किसी का भी क़तई भी दिखावे को भी शुभचिंतक न रहा। उसके बाद भी जो मेरे शुभचिंतक रहे, उनका तहेदिल से आभार। अच्छा लगता है जब पाता हूँ कि एकतरफ़ा प्रेमियों के साथ साथ एकतरफ़ा शुभचिंतक अभी भी जैसे-कैसे ज़िन्दा है। क्यों ज़िन्दा हैं, वे ही जाने।
मित्रो! अब आपसे अक़्ल वालों की तरह छुपाना क्या! सच कहूँ तो मेरे पास अक़्ल पैदाइशी ही नहीं थी। बस, अक़्ल के नाम पर केवल ये दाढ़ ही थी। इसलिए जितना हो रहा था, बस, मन छलावे को इसी से अक़्ल का काम चला रहा था। वैसे जिस आदमी के पास अक़्ल न हो वह तीनों कालों में सुखी रहता है, तीनों लोकों में सुखी रहता है। उसे क़तई भी चिंतन-मनन करने की ज़रूरत नहीं होती। करे तो तब जो उसके पास अक़्ल हो। इसलिए उसे चिंतन करते परेशान होने की भी ज़रूरत नहीं होती। उसे इस बात से भी कोई लेना–देना नहीं होता कि उसके बारे में कोई क्या सोच रहा है। ख़ैर, किसी के बारे में तो वह सोचता ही नहीं। सोचे तो तब जो उसके पास अक़्ल हो।
आदमी के पास माइंड होना सौ बीमारियों की जड़ होना है। आदमी के पास माइंड हो तो वह अपने भले के बारे में ही सोचने के बाद भी कभी-कभी दूसरों के भले के बारे में भी सोच-सा लेता है। कभी जो बहुत ही फ़्री हो तो अच्छे–बुरे के बारे में भी सोच लेता है। मांइड वाला आदमी रत्ती-रत्ती बातों को भी बहुत माइंड करता है। माइंड वाला आदमी मांइड करने योग्य बातों को तो माइंड करता ही है, पर उन बातों को भी माइंड करता है, जिन्हें आसानी से अनमाइंड किया जा सकता है। ऐसा होने पर माइंड वाले का माइंड ख़राब हो जाता है। माइंड ख़राब होने से बीसियों ऐसी–वैसी बीमारियाँ लग जाती हैं। इसलिए इन सब बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए ज़रूरी है कि आदमी माइंड हीन हो जाए। माइंड दाढ़ विहीन हो जाए।
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