एक और वैष्णव का उदय
डॉ. अशोक गौतमवे काफी दिनों से कुछ ज़्यादा ही परेशान चल रहे थे। अपने ईश्वर के चरणों में भी उनको शांति नहीं मिल रही थी।
एक समय में वे शुद्ध वैष्णव थे। मांस-मदिरा का नाम कोई उनके सामने ले लेता तो चार बार कुल्ला करते, कान जाकर कान वाले से साफ करवा आते। जब हर एलोपैथिक दवाई में अल्कोहल का पता चला तो कई दिन गले में अंगुठियाँ डाल उल्टियाँ करते रहे। ठीक हुआ गला एक बार फिर बैठा। घरवाली ने व्रत होने पर जब घर में खाना बनाने में अनिच्छा जताई तो बेचारे पेट भराई के लिए मुहल्ले के शुद्ध वैष्णव ढाबे पर जाने लगे। वाह! क्या माश की दाल। घर आकर भी उँगलियाँ ही चाटते रहते। बाद में एक मांसाहारी मित्र ने बताया कि वैष्णव ढाबे वाला बोलने को वैष्णव ढाबे वाला है, माश की दाल का स्वाद बढ़ाने के लिए उसमें बकरे वाले पतीले से तरी की दो-चार कड़छियाँ डाल देता है, तो उन्हें लगा कि अब तो रहा सहा वैष्णवीपन भी गया। शाम को भगवान की पूजा करते हुए कौन सा मुँह दिखाएँगे? मन किया धर्म भ्रष्ट करने वाले इस समाज से कूच कर जाएँ। पर वैष्णव ढाबे की दाल का स्वाद याद आता तो समाज से कूच होने का सवाल ढाबे की दाल के आगे गौण हो जाता। अतः प्रायश्चित के हजारों विकल्पों में से एक विकल्प पर गहराई से विचार करने के बाद इस नतीजे पर पहुँचे कि वैष्णवपन की शुद्धि के लिए हरिद्वार जाकर पंडों से हजामत करवा ली जाए। क्योंकि भगवान से उनका सीधा लिंक सदियों से रहा है। और वे किसीको बिना कुछ बताए हरिद्वार जाने की तैयारी में जुट गए। पत्नी तो पत्नी, इस बारे उन्होंने अपने भगवान को भी नहीं बताया।
पर भगवान ठहरे भगवान! सांध्यकाल काल को ज्यों ही रोज़ की तरह वे भगवान की संध्या करने बैठे इससे पहले कि उनका दुख भगवान के आगे फूट पड़ता भगवान ने ही पूछ लिया,“क्यों भक्त! आज कुछ ज़्यादा ही दुविधा में लग रहे हो? क्या बात है? कहो तो कुछ हैल्प करूँ?”
उन्होंने इधर-उधर देखा। कहीं पर कोई नहीं। आवाज़ भी अनपहचानी सी लगी। पत्नी की आवाज़ तो इतनी मधुर हो ही नहीं सकती। वे परेशान हो उठे तो भगवान ने उनके कंधे पर हाथ धरते हुए कहा, “डरो नहीं, यार मैं हूँ। अब मुझसे तुम्हारी बेचैनी देखी नहीं गई तो दौड़ चला आया।”
“प्रभु! अब हद हो गई। सच कहूँ, पानी गले-गले तक आ गया है। वैष्णपन बचाना कठिन ही नहीं अति कठिन हो रहा है। अब तो जी चाहता है कि बस सबकुछ छोड़ आपके चरणों में चला आऊँ। मुझे अपने चरणों में बस एक पटड़ा भर जगह दे दो प्रभु!” कहते-कहते वैष्णव धूप जलाने के बदले अपनी धोती में ही दियासलाई लगा बैठे।
“यार, इतने उतावले न हो मेरे भक्त! अपनी धोती बचाओ।”
खैर, इससे पहले कि वैष्णव का ध्यान अपनी धोती की ओर जाता प्रभु ने ही उनकी धोती में लगी आग बुझा दी। वैष्णव की धोती की आग बुझाते-बुझाते बेचारों का अपना हाथ भी थोड़ा जल गया। वैष्णव हड़बड़ाते हुए उठे तो भगवान ने पूछा, “अब कहाँ जा रहे हो भक्त?”
“बरनोल ले आता हूँ। आपकी उँगलियाँ जल गईं न।”
“कोई चिंता नहीं। पर तुम इतने परेशान हो क्यों?”
“अब आप से छिपा क्या है प्रभु! सब जान कर भी क्यों अनजान बने फिरते हो? आज के दौर में अपना वैष्णवीपन तो गया पानी में।”
“यार, पानी में तो बिहार जाता है, असम जाता है। सरकार का उद्घाटन होने से पूर्व बना पुल जाता है, तुम क्यों पानी में जाने लगे?”
“प्रभु आज के दौर में धृतराष्ट्र के दरबार में अबला की इज़्ज़त बच सकती है पर इस समाज में वैष्णव का वैष्णपन नहीं। आपसे बस एक ही प्रार्थना है कि या तो मुझे इस वैष्णवीपन से मुक्त करो या....”
“आखिर ऐसी बात क्या हो गई भक्त जो इतने संवेदनशील हो उठे। इतने संवेदनशील तो यहाँ वे भी नहीं जो मेरे नाम की खा-खा कर अपना अगला लोक बिगाड़ रहे हैं।”
“अगले लोक की तो बाद में देखी जाएगी पर अभी तो इस लोक की दुविधा से उबारो हे मेरे नाथ!”
“तो तुम्हारी दुविधा क्या है वैष्णव? इतने रंगीन संसार में रहकर भी दुविधा! अगर मेरे वश में होता तो आज के दौर को देखते हुए मैं भी देवलोक छोड़ यहीं पर अपना घर बसा लेता... और इधर एक तुम हो कि...”
“आपने वैष्णव के लिए नियम बनाया है कि वह झूठ नहीं बोलेगा। मैंने इसलिए आधे झूठ से गुजारा चलाया। हालाँकि तंगी में रहा । बीवी से दिन में दस बार गालियाँ सुनीं। पर ख़ामोश रहा कि आप नाराज़ न हो जाएँ। आपने वैष्णव के लिए प्रावधान रखा कि वह हिंसा न करे। पर मैं वैष्णपन की इज़्ज़त के लिए अर्द्ध हिंसक हो जीता रहा कि वैष्णपन की नाक बची रहे। अपनी नाक की फ़िक्र जब यहाँ समाज को ही नहीं तो उसूलन मुझे भी नहीं होनी चाहिए थी। क्योंकि आखिरकार हूँ तो मैं भी एक अदद सामाजिक प्राणी ही न। पर फिर भी वैष्णव हित में मैंने अपनी नाक की आधी चिंता किए रखी। आपने वैष्णव के लिए तय किया कि वह औरों के माल पर बुरी तो बुरी, नज़र भी नहीं डालेगा। कुछ दिन दोनों आँखें बंद कर जीता रहा। पेट में कुछ-कुछ होने लगा तो औरों के माल पर थोड़ी नज़र डाली। मजा आया, पर आपके अभिशाप के डर से एक आँख से औरों के माल को आधी बुरी नज़र देखने लगा। जीना तो मुझे भी है न प्रभु!”
“तो मैं कब कहता हूँ कि इस संसार में मेरे भक्तों को जीने का अधिकार नहीं। अपितु मैं तो कहता हूँ इस संसार में किसी को अगर जीने का अधिकार है तो बस मेरे भक्तों को।”
“पर प्रभु अब जीने के लिए हर हद पार करनी पड़ रही है। दिन में एक बार नहीं सौ-डसौ बार अंतरात्मा को मारना पड़ रहा है। जो कहना नहीं चाहिए वह साधिकार कहना पड़ रहा है। जो सपने में भी करना नहीं चाहिए वह सब कुछ सीना ठोंक कर करना पड़ रहा है। वह सब इस मरी जिह्वा के कहने पर खाना पड़ रहा है जिसकी पैदा होते हुए कल्पना भी नहीं की थी।”
“बस, इतनी सी बात! इतनी सी बात के लिए जीवन से विरक्ति क्यों भक्त? शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता। किसी वस्तु को विवशता समझकर मत त्यागो। दूसरी ओर किसी चीज़ को विवशता में ओढ़ना पड़े तो भी खुश होकर ओढ़े रखो। विवशता से किए गए त्याग को परमात्मा तो परमात्मा, आत्मा भी स्वीकार नहीं करती। जो भी त्याग हो, मन के भीतर से हो। नहीं तो....”
“ नहीं तो क्या प्रभु!!”
“नहीं तो क्या भक्त! ये जन्म तो दुविधा में गया ही, अगले जन्म की क्या गारंटी कि तुम मनुष्य योनि में ही जन्म लो।”
“तो??”
“समझदारी इसी में है कि चोला वैष्णव का ओढ़े रहो और जो अपने को अच्छा लगे करते रहो। क्योंकि ये दुनिया सच की नींव पर नहीं अपितु दिखावे की नींव पर ही तो टिकी है। यहाँ तो लोग दफतर के लिए और आटे की चपातियाँ ले जाते हैं और घर में और आटे की चपातियाँ खाते हैं। बस! कुछ भी करने से पहले ये सोच लो कि तुम बाहर हर हाल में दिखने वैष्णव ही चाहिए, घर में भले ही तुम जो लगो सो लगो, इससे मुझे कोई सरोकार नहीं। चाहो तो बगल में छुरी की जगह कटार रख लो पर मुँह से हर हाल में वैष्णव-वैष्णव ही कहो। यही मेरा आदेश है।”
“पर अगर समाज ने उँगली मेरे ऊपर उठाई तो?” वैष्णव ने आखिरी शंका जाहिर की।
“उँगलियाँ तो समाज तब उठाए अगर उसके हाथों में उँगलियाँ हों।” कह प्रभु अपने भक्त के पास से उठ अपनी मूर्ति में वापस चले गए।
........बंधुओ! अब मैं भी वैष्णव हो गया हूँ।
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