उफ़! अब मेरे भी दिन फिरेंगे

01-05-2023

उफ़! अब मेरे भी दिन फिरेंगे

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 228, मई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

इधर जबसे मुझे यह शुभ समाचार मिला है कि लुगदी साहित्य को विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है, तबसे मेरे बाँछें न होने के बाद भी मेरी बाँछें ही क्या, मैं पूरा का पूरा खिल रहा हूँ। वजह! मैं भी उच्चकोटि का लुगदी साहित्यकार हूँ। अब वसंत इसका क्रेडिट लेता हो तो लेता रहे। पर इस क्रेडिट का वह क़तई हक़दार नहीं। वैसे मुफ़्त का क्रेडिट लेने वालों की इस समाज में कोई कमी थोड़े ही है। एक पत्थर हटाओ तो दस निकल आएँगे। 

मेरे एक मित्र हैं, मुफ़्त के महा क्रेडिट बटोरू! जब भी उनको मौक़ा मिलता है वे मुफ़्त का क्रेडिट बटोरने का दुस्साहस आँखें मूँदे मज़े से कर लेते हैं। पिछले दिनों जब नाटू नाटू गीत को ऑस्कर मिला तो वे मेरे यहाँ चार चार का एक क़दम करते आए और मेरे कान में मुस्कुराते फगुनाए, “यार! क्या पता है तुझे? नहीं पता तो केवल और केवल एक सच तुमसे ही बोल रहा हूँ। जिस नाटू नाटू गीत को ऑस्कर अवार्ड मिला है न! उसके बोल असल में मैंने ही फ़िल्म निर्माता के लाख मिन्नतें करने के बाद उसके कान में गुनगुनाए थे। तब उसके बाद जाकर . . . लिखवाना तो वे पूरा गीत मुझसे ही चाहते थे, पर मेरे पास समय की तंगी होने के चलते उन्होंने आगे का गीत किसी और से लिखवाने को मजबूर होना पड़ा था।” 

पाठ्यक्रम से हटाए रोने वाले लेखक रोते हों तो रोते रहें। रोने वालों का न आप कुछ कर सकते हैं न मैं। रोने के बदले उन्हें कम से कम इस बात की ख़ुशी होनी चाहिए कि आजतक वे पाठ्यक्रम में टिके रहे तो आख़िर कैसे? सम्मानों में नहीं तो कम से कम पाठ्यक्रम में तो बारी-बारी सबको चांस मिलना चाहिए। जो वे अपने समय के सुर, तुलसी, प्रेमचंद, अज्ञेय थे तो मैं भी अपने समय का सुर, तूलसी, प्रेमचंद, अज्ञेय हूँ। वे मुझे अपने से कम मानते हों तो मानते रहें, पर असल में वे मुझसे बहुत कम हैं। मुझ जैसे बरसों से सोते-सोते लिखने वालों को भी ज़िन्दा जी हँसने का कम से कम एक मौक़ा तो ज़रूर मिलना चाहिए। सम्मान हर लेखक का जन्मसिद्ध अधिकार हो या न, पर पाठ्यक्रम में आना हर लेखक का जन्मसिद्ध अधिकार है। वह चाहे क्लासिक साहित्यकार हो, लुगदी साहित्यकार हो या फिर रद्दी साहित्यकार। 

मैं तो हर विश्वविद्यालय के वीसी से माँग करता हूँ कि मुझे जैसे सर्वश्रेष्ठ लुगदी साहित्यकारों को भी नहीं, मुझे जैसे सर्वश्रेष्ठ लुगदी साहित्यकारों को ही इनके उनके विश्वविद्यालयों के हिंदी से लेकर साइंस तक के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ताकि हर स्ट्रीम के छात्र को पता चले कि मुझ जैसों ने बकवास की छाँव में कितना ख़ास लिखा है, कितना साफ़-साफ़ लिखा है। अपने लिखे को ज़बरदस्ती छात्रों को अपने जीते जी भी और मरने के बाद भी पढ़ाने का अधिकार केवल और केवल उनका ही तो नहीं है। चंदन न सही तो न सही, पर मैं भी तो इधर बरसों से क़लम पिस रहा हूँ। 

अपने गोबर लिखे को चाहे ये वे कितना ही श्रेष्ठ कहाते फिरें, अपने गोबर साहित्य को अपने किराए के समीक्षकों से उसे चाहे कितना ही समाजोपयोगी कहाते फिरें, पर मैं अपने लुगदी साहित्य को सर्वश्रेष्ठ साहित्य मानता हूँ, क्लासिक साहित्य से भी चार क़दम आगे का। श्रेष्ठ साहित्य वही जो हमारे दिमाग़ को गुदगुदाए, बुदबुदाए और गहरी नींद सुलाए दिन के बारह बजे भी। जगाने वाले साहित्य को मारो गोली! साहित्य से जागने वाले हैं ही कितने? साहित्य जागा रहे तो ग़नीमत। 

कहावत यों ही किसीने नहीं बनाई थी कि ‘घूरे के भी दिन फिरते हैं’। आज उसे चरितार्थ होते अपनी फटी आँखों से साफ़-साफ़ देख रहा हूँ। तय है, अब मेरे लिखे साहित्य के भी दिन भी फिरने वाले हैं। मैं भी आगामी सत्र से किसी न किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम निश्चित तौर पर शामिल होने वाला हूँ। इसलिए इन दिनों आत्म परिचय लिख रहा हूँ। बाद में जल्दबाज़ी में कहीं कुछ छूट न जाए। 

अहा! अब छात्र मुझे भी पढ़ेंगे। अब मेरे साहित्य का सही सही मूल्यांकन होगा। मेरे सर्वश्रेष्ठ लुगदी साहित्य के सामाजिक उपयोगिता की परख होगी। आज तक मेरे साहित्य का मूल्यांकन किया ही किसने? जिसे भी कहा कि यार! मेरे लिखे पर दो चार ही सही शब्द मार दो, उसने अपनी क़लम का मुँह तो मेरी ओर से फेरा ही फेरा, अपना मुँह भी मेरी ओर से फेर लिया। 

हे श्रेष्ठ, सर्वश्रेष्ठ रद्दी साहित्य लिखने वालो! अगला दौर आपका है। इसलिए बिना किसी ख़ौफ़ के लिखते रहो। वैसे भी रद्दी होते समाज की अभिव्यक्ति रद्दी ही तो होगी! 

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