राजनीतिक निवेश में ऐश ही ऐश
डॉ. अशोक गौतमवह जो चटकारू दो महीने पहले मुझसे यह कह कर दो टमाटर ले गया था कि कल सूद समेत दो के बदले तीन लौटाएगा तो मैंने सूद के लालच में आ उसे दोनों टमाटर दे डाले और उस साँझ दाल बिन टमाटर के खा ली। सोचा, एक दिन में जो दो के तीन हो जाएँ तो कौन बुरा है?
दूसरे दिन से लेकर आज दिन तक हर बार जब मैं उसके घर अपने दो टमाटर माँगने जाता-जाता थक गया कि सूद को तो मारो गोली, माल्या जैसे से मूल ही निकल आए तो लाखों पाए तो वह मुझे धिक्कारता बोला, "हद है यार! दो टमाटर ही तो दिए हैं। कौन सी आजादपुर की सारी मंडी उधार ले रखी है? मैं कौन सा मरे जा रहा हूँ? कहा न लौटा दूँगा तो लौटा दूँगा। मुझ पर विश्वास नहीं तो कम से कम मेरी जबान पर तो विश्वास कर।" तब मुझे पहली बार पता चला था कि बंदा और बंदे की ज़बान दो अलग-अलग चीज़ें हैं। अब तक मैं बंदे को और उसकी ज़बान को एक ही मानता रहा था।
और तब मैं हर बार की तरह उस समय भी मुँह लटकाए चला आता यह सोच कि पता नहीं किस अशुभ मुहूर्त में उधारे को टमाटर उधार में दिए थे जो आज तक नहीं लौटे। तब मन करता कि उसके घर से टमाटरों के बदले उसका पतीला ही उठा लाऊँ। पर फिर पता नहीं क्यों रुक जाता।
कल फिर जब उसके घर शरमाता हुआ उधार दिए टमाटर माँगने हाथ जोड़ने गया तो उस वक़्त बंदा ख़ुश लगा। ख़ैर, उधार लेने वाले तो हमेशा ख़ुश ही पाए जाते हैं। हवा टाइट तो बस उधार देने वालों की ही रहती है।
"और भाई साहब क्या सोच रहे हो? कहीं मुझसे उधार लिए टमाटर सूद समेत लौटाने का मन तो नहीं बना रहे? अगर मूल नहीं तो कम से कम सूद ही दे दो," मैं लोन दिए बैंक अधिकारी की तरह उसके आगे दोनों हाथ जोड़ गिड़गिड़ाया।
"सोच रहा हूँ कि अबके चुनाव ही लड़ लूँ," बंदे ने गंभीर हो कहा तो मुझे हँसी और डर एक साथ आए। मुझे अचंभे में पड़ा देख वह बोला, "क्यों? परेशान हो गए क्या? भूखा-नंगा जब सोचता है तो वह कुछ भी सोच सकता है। सोच पर ताले तो उनके लगे होते हैं जिनको भरपेट रोटी मिलती रहती है," कह वे मेरे उधार दिए चेहरे पर होने वाली प्रतिक्रिया का मज़े से इंतज़ार करने लगा, कंबख़्त कहीं का!
"मतलब?"
"मतलब ये कि भाई साहब अब मैं चाहता हूँ कि चुनाव लड़ देश को दिशा दूँ," बंदे ने कहा तो मुझे उसके कहने पर कम उसके मुँह से यह सुनने पर हँसी अधिक आई कि जिस बंदे की अपनी ही कोई दिशा नहीं, वह देश को दिशा देने के लिए कमर कसे लेटा है। पर फिर सोचा कि आजकल अपने को दिशा से आसान काम तो देश को दिशा देने का है।
"यार! उधार लिए दो टमाटर चुकाने को तो पैसे नहीं और बात करते हो चुनाव लड़ने की। हे मेरे दोस्त! दिल बहलाने को ख़याल अच्छा है।"
"नहीं, मैं सच कह रहा हूँ। मेरे जैसा आदमी ही जब कुछ सोचता है तभी क्रांति आती है।" मैं हैरान! बंदे ने सरकारी राशन की दुकान का आटा खाने के बदले कहाँ का आटा खाना शुरू कर दिया होगा? सरकारी राशन का आटा विचारों को पंख नहीं कुंद ही बहुधा करता है।
और वह मुझे कॉलर से पकड़ पास के बैंक में ले गया। किसी को उधार देने वालों की अक्सर यही दशा होती है। इसे आप चाहे दयनीय कह लीजिए चाहे असहनीय। पर वह हर हाल में होती सहनीय ही है। उन्हें कोई भी उनसे उधार लेकर यह अधिकार सायास ही प्राप्त कर लेता है।
हम दोनों के सामने बैंक का उधार देने वाला बाबू। बात बन जाए तो टोटल का दस परसेंट के चक्कर में।
"उधार की किश्त देने आए हो या उधार लेने?" उसने पहले हँसते हुए से पूछा और बाद में पता नहीं उदास हो गया।
"लोन चाहते हैं," बंदे ने ऐसे कहा जैसे आज तक जिस जिससे उधार लिया हो तय समय से दो दिन पहले लौटाया हो।
"किसलिए? लेकर भागने का इरादा तो नहीं?"
"सर! हम वो शख़्स हैं जो उधार लेकर कभी भागे नहीं। बस, हमें उधार देने वाले ही हमारे आगे पीछे आज तक भागते रहे। जो लोन लेकर भाग भी गए उनका भी आपने क्या कर लिया?"
"गुड! हमें ऐसा ही लोन लेने वाला चाहिए। जो हमसे लिया लोन भले ही न दे पर हमेशा हमारी नज़रों के आगे रहे। हालाँकि दिया लोन वापस कम ही आता है पर इससे लोन वापस आने की उम्मीद तो बनी रहती है। और सब जानते हैं कि ये दुनिया उम्मीद पर ही टिकी हुई है। पर तुम लोन किस लिए लेना चाहते हो?"
"चुनाव लड़ने के लिए," उन्होंने ऐसे कहा जैसे उनकी ज़बान गलावें से छूटी हो कि उन्हें जहाँ से जो भी पार्टी खड़ा कर दे, वह जीत कर ही दम ले।
"चुनाव लड़ने के लिए? देखिए साहब! चुनाव लड़ने वालों से लेकर चुनाव लड़े हुओं को हम लोन बिल्कुल नहीं देते। वहाँ दोनों ही स्थितियों में दिए कर्ज़ के डूबने का एक सौ एक प्रतिशत रिस्क रहता है।"
"हद है साहब! बैंक के इतने अनुभवी कर्मचारी होने के बाद भी तुम इतना भी नहीं जानते कि ब्याज जोख़िम का पुरस्कार है। आप क्यों नहीं देते हम जैसे नेताओं को लोन आप? क्या हम इस देश के नागरिक नहीं?" लगा, आज दोनों में हाथापाई होकर रहेगी और ये दोनों मुझे उसका चश्मदीद गवाह बनाकर ही दम लेंगे। पहले उधार दिए टमाटरों की उगाही हेतु इसके घर के चक्कर तो अब पुलिस स्टेशन के चक्कर। हे भगवान! कहाँ फँस गया आज मैं? चला था चौबे बनने पर आसार तो दुबे बनने के पूरे लग रहे हैं।
"होंगे। इस देश का नागरिक होने या न होने से हमें कोई लेना-देना नहीं। हमें तो बस दिए लोन से लेना-देना है।"
"अरे बाबू! समझते काहे नहीं। हर जगह दिया लोन डूब सकता है, रिसेशन चला है न! लो... ऊपर से महँगाई देखो तो ....पेट भरने तक को कम पड़ रही है। फिर कहते हो जनता नंगी घूम रही है। अब तुम ही कहो! जनता पेट भरे या तन पर कपड़ा धरे? पर राजनीति में लगाया धन आज तक किसीका नहीं डूबा। विश्वास नहीं तो किसी भी उद्योगपति से पूछ लो। राजनीति में किया निवेश आज सबसे सुरक्षित निवेश है। राजनीति में लगाया धन आज तक किसी का नहीं डूबा। देर-सबेर दे कर ही गया। पहले धर्म के बाज़ार में धन लगाने का लाभ रहता था। पर जब से धर्म के बाजार पर राजनीति ने कुंडली मारी है तबसे धर्म के बाजार में निवेश करना नुकसानदायक लगने लगा है। आज हर स्टोरिए से लेकर हर पूंजीवादी अपने- अपने सामर्थ्य के हिसाब से हर नेता पर एक्ज़िटपोल के परिणामों के हिसाब से दाव लगाता है, दूसरे शब्दों में बोलें तो इनवेस्ट करता है। और सरकार बनने पर उससे सौ गुणा अधिक कमाता भी है। इसलिए..... मेरी मानो तो..... अब रही बात लिया लोन वापस न करने की। उसकी कौन सी गांरटी है कि .... उधार लेकर देना मैन टू मैन डिपेंड करता है साहब। विश्वास नहीं तो कुबेर को ही लोन देकर देख लो। अगर वे आज की डेट में लोन लेकर वक़्त पर लौटाने आ जाएँ तो मान जाऊँ। किश्त आगे-पीछे तो लक्ष्मी से भी होती रही है। फिर भी ्क़ानूनी दाव-पेंच से बचने के लिए मैं तो गारंटर भी साथ लाया हूँ। दूसरे, बैंकों को खाने का अधिकार तो सबका है न? कुछ ही लोगों ने बैंकों का लोन खाने का ठेका थोड़े ही ले रखा है?" कह उन्होंने मेरा कॉलर पकड़ बाबू के आगे खड़ा किया तो मैं एकबार फिर बलि कस बकरा हुआ। मेरी बलि अब के फिर होगी कि नहीं यह इतिहास के गर्भ में है।
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