मालपुआमय हर कथा सुहानी
डॉ. अशोक गौतम
बकवास करने से पूर्व अपने भक्तिभाव के बारे में मैं आपको क्लीयर कर दूँ कि भगवद् भक्ति को लेकर मैं औसत से भी बहुत नीचे का भक्त हूँ। या यों समझ लीजिए माइनस सौ।
पर हाँ! साहब भक्ति को लेकर कोई मुझसे इंच भर भी आगे जाकर देखे तो सही, हरामी की उसी पल टाँग न तोड़ दूँ। टाँग तोड़ूँ भी ऐसी कि किसी भी अस्पताल में लाख जुड़ाने के बाद भी न जुड़े और वह जिस-जिस जन्म में आदमी की योनि में जन्म ले, वह सिंगल टाँग का ही पैदा हो।
पर मुझे पता है कि कलियुग इस जूतम-पैजारी युग में किसीको मज़े से डूबो सकती है तो बस, ये भक्ति ही डूबो सकती है। पर हे मेरे भक्त बिरादरो! इसका मतलब ये कदापि नहीं हो जाता कि जहाँ भक्ति की व्यापारिक धारा अविरल बह रही हो, वहाँ मैं नहीं जाता। मैं वहाँ और भक्तों की तरह ज़रूर जाता हूँ, पर भंडारा शुरू होने से कुछ देर पहले। किसी भी कथा में ज़्यादा देर बैठने से मेरा दिल घटने सा लगता है, दम घुटने सा लगता है, पता नहीं क्यों?
कुछ ही देर पहले मुझे ज्यों ही मेरे ख़ास भंडारा प्रिय भक्त खाई ने बताया कि उस मुहल्ले में पहलवान कथा चल रही है, तो मेरी जीभ उस काम-कथा के भंडारे का रसपान करने को मचल उठी।
सच कहूँ तो अबके बड़े दिन हो गए थे, किसी कथा में भंडारे का आस्वाद लिए बिना। वैसे मैं ये सच कह रहा हूँ, बुरा मत मानिएगा। अगर आप बुरा मानेंगे तो मेरी आत्मा को ठेस पहुँचेगी। कहीं भी कोई भी कथा हो, एक तो वहाँ भक्त भंडारे के समय को ही इकट्ठा होने लगते हैं जो उसमें भंडारे का आयोजन हो तो। वर्ना ऐसी तामसिक कथाओं में आयोजक और कथा करने वाले ही ऊँघते रहते हैं।
“ . . . तो कथा में भंडारे का भी प्रोग्राम है क्या?” मैंने कथा के सार पर चर्चा की।
“अगर किसी कथा में भंडारे का आयोजन न हो तो कथा करवाने वाले को धार्मिक लाभ नहीं मिलता बंधु!”
“तो कथा कितने दिन की है?”
“सात दिन की, पर दो दिन तो निकल गए,” उन्होंने जिस तरह कहा मत पूछो मेरे क्या हाल हुए।
“तो पहले क्यों नहीं बताया? मैं भी वहाँ सातों दिन खाकर पुण्य समेट लेता। मतलब अब केवल पाँच दिन ही मज़े से मसालेदार वैष्णव भोजन से पेट में डालते कटेंगे? चलो! जो आयोजक इच्छा! कहीं से कुछ पता चला कि भंडारे में क्या क्या पक रहा है?” मैंने उनसे पूछा तो वे मेरे होंठों पर अपनी खुरदरी जीभ फेरते यों बोले ज्यों भंडारे में पकवानों के पतीलों पर अपनी जीभ फेर रहे हों, “तुम्हारे फ़ेमस मालपुए।”
यह सुन आप सच नहीं मानेंगे उस वक़्त जीभ ही नहीं, मेरा रोम-रोम मूतने लग गया।
अब आपसे छिपाना क्या! मैं मालपुओं का बहुत दीवाना हूँ। अगर नरक को जाता मुझे कोई प्यार से चार मालपुए खिला दे तो मैं उसके बदले नरक में हँसते हुए चला जाऊँ।
“तो किस किस दिन है मालपुओं का प्रोग्राम?”
“कथा कमेटी के प्रधान से पूछ कर बताता हूँ,” उन्होंने कहा तो मैं भगवान से प्रार्थना करने लगा कि हे कथा प्रबंध आयोजकान! आपकी कथा के भंडारे में रोज़ मालपुए ही बनते हों, आपके परम भक्तों के लिए।
उन्होंने तत्काल अपनी जेब से फोन निकाला और मेरे सामने ही कथा कमेटी के प्रधान को मिलाया ताकि हाथ कंगन को कोई आरसी न रहे, “प्रधान जी! क्या आप बताने की कृपा करेंगे कि भंडारे में आपके भक्तों को कब-कब मालपुओं का इंतज़ाम रहेगा? और भंडारा कितने बजे के आसपास शुरू होता है? मुझे डिटेल में बताएँगे तो हार्दिक प्रसन्नता ही नहीं, अति प्रसन्नता होगी।”
“पूछते हुए लग तो बुरा रहा है, पर मित्र! वास्तव में तुम किस टाइप के भक्त हो? भंडारा ख़ोर भक्त या जूता चोर भक्त?”
“जी! केवल और केवल भंडारा खोर!” उन्होंने अपने चरित्र की धूल झाड़ते हुए मुस्कुराते कहा।
“तो भंडारा ख़ोर भक्त को जय पहलवान! अब सुनो डियर! यहाँ तो पहले दिन से ही पेट पिपासुओं के लिए मालपुए चल रहे हैं, भंडारा सात बजे से, पर यह तहक़ीक़ात क्यों?”
“आपकी कथा की परम सफलता के लिए। घर के लिए भी मालपुए देते हैं न? तो पचासियों राम कथा भक्तों की तरह हम भी साढ़े छह के आसपास ही कथा सुनने आएँ? पहले आकर कथा सुनते राम क़सम बहुत बोरियत होती है।”
कथा प्रधान अपने-से थे सो उन्होंने न पहचानते हुए भी पहचानते-से खुलकर बात जारी रखी। सोचे होंगे, बासी मालपुए बच गए तो कहाँ फेंकेंगे? इस बहाने किसीके पेट में तो जाएँगे, “तुम जैसे परम स्नेही भक्त हमारे भंडारे का प्रसाद ही ग्रहण कर लें तो हमारी कथा संपूर्ण हुई समझो।” आह! हम जैसे भक्तों की भक्ति के बारे में उनके दिमाग़ में कितनी क्लीयरिटी!
. . . इन दिनों हम दोनों ही क्या, हमारे जैसे नब्बे प्रतिशत भक्त किसी भी कथा में साढ़े छह बजे के आसपास ही पहुँचते हैं। कथा तीन बजे शुरू हो, तो होती रहे। साढ़े छह बजे के आसपास ही कथा का पंडाल भरने लगता है, और पौने सात बजे तक खचाखच भर जाता है। तब वहाँ तिल भरने तक को जगह नहीं मिलती।
मित्रो! अब तक पचासियों कथाएँ सुन लीं। पर किसी भी कथा का मुझ पर कोई बुरा असर न हुआ। कथा वाचकों पर हुआ हो तो मैं कुछ कह नहीं सकता।
चलो, पहलवान कथा के बहाने बचे पाँच दिन मुँह में मालपुए बिन नागा जाते रहेंगे। शरीर में शुगर इन दिनों बढ़ न जाए, इसलिए लो जी मैंने घर में मीठा खाना छोड़ दिया। मेरे जैसे भक्तों को इससे बड़ी संतुष्टि और होगी भी क्या! भगवान उनका भला करे जिन्होंने अपनी गाढ़ी कमाई में से स्वर्ग जाने के लिए इस राम कथा में दस मिनट भी कथा सुनने वालों को पूरे समय मालपुओं का इंतज़ाम किया है।
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