आदमी अभी ज़िंदा है

01-03-2022

आदमी अभी ज़िंदा है

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 200, मार्च प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

रोज दिन को जब बड़े डाखाने से पंचायत के ब्रांच पोस्ट ऑफिस में डाकिया डाक का थैला लाता था तो वह बजार के आसपास के अखबार शकीनों को पाँच सात अखबार भी ले आता था। उसमें चार पाँच हिंदी पढ़ने वालों के होते तो एक दो अँग्रेजी के स्कूल के मास्टरों के। आसपास के गाँवों में पाँच पाँच सात सात पास फेल पढ़े तो थे, पर अखबार पढ़ने का इतना पढ़ने का शौक नहीं था। 

मठ बजार के के पास वाले सरकारी प्राइमरी स्कूल के मास्टर जी तो अनटुट रोज शाम को रीड़कू दुकानदार की दुकान पर आ मुफ्त का तंबाकू पीने के साथ-साथ अखबार भी पी लेते थे। इस बात का रीड़कू लाले ने कभी भी बुरा नहीं माना। उसे इस बात का गर्व था कि उसकी दुकान पर इसी बहाने प्राइमरी स्कूल के बीए पास मास्टरजी रोज आकर उससे नए नए टापिकों पर चर्चा कर लेते हैं और महीने का राशन भी उससे ही लेते हैं। 

मठ बजार में पहले तो एक ही होटल था महेश का। पर जबसे वहाँ का मिडल स्कूल दसवीं तक हुआ था, तो तीन चार होटल और खुल गए थे नए। होटल काहे के, बस चाय पानी वाले। घास की छान के। ज्यादा ही हुआ तो हफ्ते में एकाध बार किसीने दो चार किलो लड्डू, शक्करपारे बना दिए तो बना दिए। बाद में वे महीने में बिक गए तो बिक गए।

हाई स्कूल में जब कच्ची छुट्टी होती तो कुछ बड़े घरों के बच्चे आकर इनमें होटलों में आकर चाय पी लेते या फिर किसीके पास ज्यादा ही पैसे हुए तो आधी ब्रेड लेकर चाय के साथ चार बच्चों ने बाँटकर खा ली। कुछ तो ऐसे भी होते थे कि आधी छुट्टी होते ही जोड़ की ब्रेड लेते और बिन चाय के सूखी ही खा लेते।

लेखराज का होटल तो चलता ही इन्हीं स्कूली बच्चों के आसरे था। उसके पास कच्ची छुट्टी में बच्चे इसलिए आ जाते थे कि वह इसी स्कूल का मैट्रिक पास था। बच्चों को लगता था कि अपने स्कूल से पढ़ा है। अपने जैसा है। दूसरे वहाँ बच्चों को रोक-टोक भी कोई न थी। जो कोई उसकी आँख बचाकर या उसके सामने पकौड़े के थाल से पकौडे़ उठा लेता तो भी वह कुछ न कहता। कोई कोने में बीड़ी पी लेता तो भी वह कुछ न कहता। बल्कि कई बार तो वह उनके जगह जगह छुपाए बीड़ी के बंडलों से बीड़ियाँ निकाल कर खुद भी पी लेता। यही वजह थी कि उसके पास स्कूली बच्चों का जमावड़ा लगा रहता। इसी वजह से दूसरे होटल वाले उससे चिढ़ते थे कि बच्चों को खराब करके रख देगा। 

सुबह की चैल्वार खेतों में काम करने के बाद दोपहर को आसपास की धारों के गाँवों से मर्द बिना नागा कंधे पर परना धरे मठ बजार को उतर जाते, चाहे बरखा हो चाहे धूप। इस बहाने आपस में एक दूसरे से मेल-मलाप भी हो जाता और गप्प-शप्प भी। बजार आते ही अपनी अपनी जूट की कटी-फटी बोरियों पर ताश की दगड़ियाँ जम जातीं। कोई इस होटल के आगे तो कोई उस होटल के आगे। और दूसरे जिनकी बारी ताश खेलने को नहीं आती वे इस ताक में रहते कि ज्यों ही कोई ताश की दगड़ी में से उठे तो वह ताश खेलने को उसकी जगह ले। नए पैदा होते ताश के खिलाड़ी ताश खेलने वालों के पीछे घंटों मौन खड़े रहते और उनकी हर चाल को गौर से देखते, समझते। 

हर दगड़ी में दुस्सर। जो जीतते वे हारने वाले चाय पिलाते। ताश की बाजी चाय पर लगती। ज्यादा ही हुआ तो चाय के साथ पकौड़े हो गए। ताश के पुराने खिलाड़ी ताश की बीस-बीस बाजियाँ लगा कई बार तो अँधेरा हो जाने के बाद भी ताश खेलने में ही डटे रहते। बाद में चाहे फिर उन्हें गिरते पड़ते ही घर जाना पड़े तो जाना पड़े। होटल वाले भी उनको जाने को नहीं कहते थे, क्योंकि हर बाजी के बाद जो जीतते उन्हें हारने वाले चाय पिलाते। इस बहाने उनकी चाय पकौड़ों की बिक्री भी हो जाती और उनका मन भी हल्ले में रमा रहता। 

उस दिन जब अखबार, रेडियो से इलाके वालों को पता चला कि बाहर की बाछाइयों की तरह अपने देस में भी महामारी पाँव पसार रही है, और यह महामारी एक दूसरे को छूने से फैलती है, तो धीरे-धीरे बजार की आवाजाही कम होने लगी। धीरे-धीरे लेखराज तक के होटल के बाहर जहाँ ताश खेलने वालों का सबसे अधिक हल्ला पड़ा रहता था, जहाँ ताश खेलते हुए मुआ-फुक्या, मादरचोद, भैनचोद होती रहती थी, वहाँ पर अब सुनसान होने लगा। बस, मठ बजार में कभी-कभार इधर–उधर साबुन-लून के बहाने कोई दिख गया तो दिख गया। मठ बजार के सबसे बुजुर्ग लाला रीड़कू नब्बे साल को होने को आ गया था, पर उसने बजार में मड़थीउणी सा सन्नाटा कभी देखा हो, उसे याद नहीं। उसके दादा के के बाप के बख्त में ऐसा हुआ होगा तो हुआ होगा। चाय बनाने को चूलहे पर रखी केतली में पानी उबलता हुआ। हर होटल के आगे कुत्ते अपनी अपनी सुविधा के हिसाब से पसरे हुए। कोई होटलवाला उनको पकौड़े का टुकड़ा फेंक देगा, इस उम्मीद में।

धीरे धीरे मठ बजार के सारे लाले गाहकों के दर्सन तक से मोहताज होने लगे। ऐसे में पास वाले गाँव से पाँच सात दिन को आ जाते तो लालों के फेफड़ों में साँस जाती। सारा दिन जिस बजार में खूब चहल कदमी रहती थी, लगता, ज्यों लोगों ने खुद ही डर से भी बड़े डर के डर से खुद ही तय कर कर्फ़्यू लगा दिया हो।

इसी डर के बीच अचानक एक और बात हुई। मठ के साथ लगते आठ दस घरों के गाँव में अच्छरू दादे की ज्वाण्स देउकु मतलब, पूरे गाँव की दादी को पता नहीं एकदम कैसी खाँसी हुई कि सारा दिन काम कर करके न थकने वाली जच्छ दूसरे ही दिन माँजा पकड़ गई। उसको जो एकबार खाँसी हुई तो उसने उसके मरने के बाद ही उसका गला छोड़ा। 

दो दिन हुए! चार दिन हुए! पर एक दादी की खाँसी थी कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी। अच्छरू दादा अपने आप छोटी मोटी बदंगी करते थे। आसपास के इलाकों में उनकी बदंगी की धाक थी। उनकी बंदगी को लेकर कइयों को उन पर इतना विस्वास था कि कई तो यहाँ तक मानते थे कि वे अपनी दवा के जोर पर यमराज के द्वार से भी जीव को ले आते हैं। 

अच्छरू दादा को इकलौता बेटा सिमला में बिजली बोर्ड में क्लर्क था। उसकी घरवाली बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाने के बहाने दो साल पहले उसके साथ सिमला चली गई थी। तब अच्छरू दादा ने उसे कई बार कहा भी था कि तू भी तो इसी स्कूल से पढ़ा है। बच्चों को सिमला ले जाकर पढ़ाने की क्या जरूरत है? जिसने बनना हो वह कहीं भी पढ़ कर बन जाता है। यहाँ हम सब एक साथ भी रह लेंगे और बहू घर भी देख लेगी। ऊपर से चार पैसे बुरे दिनों के लिए बचेंगे सो अलग। पर सिमला जाने की जिद बहू की थी, सो अच्छरू दादा के बेटे की एक न चली और बहू उसके साथ सिमला जाकर ही मानी। भले ही अब महीने दो महीने बाद घर आकर उसे आटा दाल घी ले जाना पड़े तो ले जाना पड़े।

जब दादी की खाँसी ठीक होने के बदले बढ़ती गई तो गाँव वाले तो डरे ही, पर अच्छरू दादा भी डर गए। उन्हें भी लगा कि ये खाँसी कोई मामूली खाँसी नहीं। उनकी दवाई से तो कल तक पूरे इलाके की खाँसी ठीक होती रही है, पर ज्यों ज्यों मैं इस बुढ़िया को खाँसी की दवाई दे रहा हूँ, इसकी खाँसी ठीक होने के बदले और बढ़ रही है।

जब देखो, दादी बीउंद में माँजे पर पड़ी पड़ी सारा दिन खों खों रहती। खाँस खाँसकर उसकी आवाज तक फट गई थी। अच्छरू दादा ने उसके माँजे के नीचे स्वा से भरी परातड़ी रख दी थी। खाँसते हुए जब उसके मुँह में कफ आता तो वह माँजे पर से टेड़ी होकर, बुरा सा मुँह बनाकर उसमें थू से कफ थूक देती। 

दादी को लगातार खाँसते खाँसते पंद्रह दिन हो गए माँजा पकड़े। अच्छरू दादा परेशानी में घर का आधा पौना काम जैसे तैसे कर लेते। ये तो शुक्र था कि दादी के ये हाल होने से पहले ही उन्होंने दादी के लाख विरोध करने के बावजूद भी जबरदस्ती ताजी ताजी तीसरे सोए सुइ गाय बेच दी थी वर्ना... तब दादी ने उन्हें गाय बेचने से जितना वह रोक सकती थी उससे भी कई गुणा अधिक रोका था। पर वह नहीं माने तो नहीं माने। पैंसठ साल की बुढ़िया घास लाते लाते इस उम्र में कहीं गिर गई तो पड़ गया स्यापा। 

जब गोरखु दो हजार नगद में गाय ले जाने आया तो अच्छरू दादा को भीतर ले जाकर दादी ने आखिर बार फिर समझाया, “देख लो! आखिरी बार कह रही हूँ। गाय मत बेचो। इस बहाने घर में अपना धीणचा तो है। कल को मेला लीपने को गोबर भी दूसरों की ग्वाइणी से लाना पड़ेगा। इतना कि तो मैं मरते मरते भी कर लूँगी। पहले चार चार हाथी जैसी भैंसें खुंडे पर बंधी रहती थी। नीले बैलों की जोड़ी अलग।”

 “तू समझती क्यों नहीं? वह बात और थी। वे दिन और थे। अब तो उठने के भी साइंसे पड़ने लगे हैं। दिन पर दिन हम बूढ़े ही तो होते जाएँगे देउकु! उम्र पीछे हटने से तो रही। तू बुरा मना या खरा, पर अबके मैं तेरी एक नहीं सुनने वाला।’

“बिन काम किए मेरे हाड़ जुड़ जाएँगे, तुम ये क्यों नहीं सोचते? गाय के बहाने इधर उधर तो हिल लेती हूँ थोड़ा बहुत। शहर में बच्चे पता नहीं कैसा दूध घी खाते होंगे? इस बहाने महीने दो महीने बाद किलो दो किलो ही सही, उनके लिए अपने घर का घी तो जुड़ जाता है। और ऊपर से शाम को तुम्हें भी गिलास भर दूध। अपने घर की छा किसे अच्छी नहीं लगती? फिर जाते रहो लोटकु बजाते कभी इसके घर तो कभी उसके घर। ताकते रहो सबका मुँह कि वह छा देगा भी कि नहीं... और रामेसरी का तो तुमको पता ही है, जो कभी गलती से उसके घर छा लाने चले गए तो छा के नाम पर कैसा नसत्रा पानी देती है, छा देने से पहले ऐसी ऐसी दिल चीरने वाली सुनाती है कि…” दादी ने एकबार फिर सब सच बता, सुना अच्छरू दादा को गाय बेचने से रोकना चाहा। पर वे तो जैसे तय कर चुके थे कि गाय देनी है तो बस, देनी है। वैसे उन्हें यह भी पता था कि गाय बिकेगी तो ताजी ताजी सुई हुई ही बिकेगी। गाय बेचने के बाद घर में धीणचे की जो तंगी होगी, ऐसा नहीं कि वे उससे वाकिफ़ न थे। उन्हें ये भी मालूम था कि जो इसके बाद वह गाय बेचने में महीना भी लेट हो गए तो गाय के उन्हें आधे पौने ही मिलेंगे। क्या पता फिर देउकु गाय बेचने ही न दे। 
गाय बेचनी ही तो है। आज नहीं तो कल। और जब गाय बेचनी ही है तो क्यों न पूरे लेकर ही दी जाए? और जो कल को गलती से कहीं बच्छी मर गई फिर तो... असल में गोरखु भी गाय खरीदने आया था तो बस, बच्छी के लालच में ही। अगर गाय के बच्छी के बदले बच्छा होता तो वह गाय न खरीदता। खरीदता तो खरीदने से पहले पचास बार सोचता, हजार सौदे बाजी करता। 

...और डाल बराबर लोयटू वाली गाय अच्छरू दादा ने बेच दी। जब दादी को लगा कि गाय खुंडे से जाकर ही रहेगी, दादा गाय के बताए फायदों को लेकर टस से मस होने वाले नहीं, तो जब गोरखु गाय लेने आया तो वह रसोई में गई, एक कटोरी में तवे की काळख झाड़ कर उसमें तेल मिलाकर बाहर आई और उससे गाय के सींग चोपड़ कर चमका दिए। गाय को चार मक्की की रोटियाँ घी लगाकर खिलाईं। उसकी पीठ पर हाथ फेरा तो गाय दादी को चाटने लगी। उस वक्त दादी ही जानती थी कि उसकी क्या दशा थी। तब दादी ने एकबार गाय से भी अधिक कातर भाव से दादा की तरफ देखा था। पर अच्छरू दादा तो निर्णय ले चुके थे, फाइनल। उनके अनुसार इस घर से गाय को अब जाना ही था। वैसे वे भी गाय कहाँ बेचना चाहते थे? पर इस गाय के कारन दादी को कल को जो कुछ हो गया तो?? 

जैसे ही अच्छरू दादा ने गाय का गळावां गोरखु के हाथ में पकड़ाया, दादी तो रोई ही, पर अच्छरू दादा भी सुबक लिए। ऐसी साउंळे की गाय पूरे इलाके में किसीके पास नहीं थी। चार किलो दूध सुबह देती थी तो इतना ही शाम को। सलीण इतनी की बच्चा भी जो उसके थन छुए तो उसे भी दूध देने को तैयार हो जाए। दूध ऐसा कि जितना मर्जी पानी डालो, पर क्या मजाल जो पतला हो। छा ऐसी मीठी कि... हर ब्रेस्त को नौणी गाळो तो पूरा पूरा पाँच सरे घी निकले। नौणी गाळते हुए बास ऐसी कि पूरे गाँव में फैल जाए और सबको पता चले कि आज देउकु नौणियाँ गाळ रही है।

ग्वाइणो खाली होने के बाद दादी को लगा कि अब जैसे घर में कोई काम ही न बचा हो। जब गाय थी तो सुबह उठकर सबसे पहले ग्वाइणी जाओ। वहाँ जाकर उसका गोबर उठाओ, फिर गोटू पाथो। उसके बाद उसका चिक्कड़ गोबर डाल में भर दो। फिर चिक्कड़ की डाल उठाई चिक्कड़ और खेत में बनाए सज्याड़े पर फेंकी और लग गए गाय को हरा फरा इकट्ठा करने। आकर दो जीवों की रोटी बनाई, गाय का घास पानी किया। ....यों ही एक बज जाता। फिर रोटी खाई और तनिक सुस्ता लिए। साँझ को फिर गाय का छोटा मोटा काम किया। गाय के बहाने खेतों में घूम आए, ओड्डे बन्ने भी देख आए, और आते आते अदप्रद्दी डाल इधर उधर से छिन्न छान हरे फरे की भी ले आए। 

दादी की खाँसी ठीक होने के बदले जब उसे ठंड देकर बुखार भी आने लगा तो अच्छरू दादा डर गए। गाँववालों ने धीरे धीरे उनके यहाँ आना बंद सा कर दिया। वे भी जो दिन में किसीके घर जाते तो उनका पहले वाला सत्कार न होता। उन्हें लगा कि अब उसे सरकारी अस्पताल बता ही लेना चाहिए। अब उसका रोग उनकी बदंगी की समझ से बाहर जा रहा है। ऐसी ही सलाह बलासपुर से इतवार को घर आए पोतो के लड़के कसोरी ने भी अच्छरू दादे को दी थी। जैसे ही उसे अपने बापू से दादी की बीमारी के बारे में पता चला, वह दिन में उनके यहाँ दादी का हालचाल पूछने आया। अच्छरू दादा ने तब जैसे कैसे दादी को पकड़ पकड़ कर धूप में ला पराळ की माँजरी पर बैठाया हुआ था। 
“ताऊ! लगता है ताई को.…”

“क्या मतलब तुम्हारा?” अच्छरू दादा कुछ शंकित हुए। 

“मेरी मानो तो दादी को सरकारी अस्पताल में दिखा ही लो . . .”

“यारा! सोच तो मैं भी रहा हूँ पर . . . रत्न ही पता कर लाया था कि महीने से सरकारी अस्पताल में डॉक्टर है ही नहीं।” 

“तो रमेश को ही बुला लेते? सिमला में तो एक से एक बड़े डॉक्टर हैं . . .” 

“यह भी सोचा था। पर वहाँ आजकल बच्चों के पर्चे लगे हैं। ऐसे में जो वह घर आ गया . . . ये वहाँ चली गई तो बच्चों की पढ़ाई खराब हो जाएगी। तू तो जानता ही है कि वह बच्चों को शहर इसीलिए ले गया है कि वहाँ जाकर उसके बच्चे बड़े आदमी बनें। अँग्रेजी सीखें। हमारा क्या? हमें तो मरना ही है, आज नहीं तो कल। पर उनके आगे तो अभी दुनिया पड़ी है।”

कसोरी को अच्छरू दादा ने चाय बनाई और वह चाय पीकर ताई अपना ख्याल रखियो, कहकर रामलाल के घर हो लिया। चार महीने बाद गाँव आया था। अब उसे हर घर में हाजरी जो देनी थी। 

पहले जिस दादी के हालचाल पूछने वालों का अच्छरू दादे के घर दिन रात जमावड़ा लगा रहता था और वह सबको चाय बनाते बनाते थक जाते थे, पर गाँव वालों को ज्यों लगा कि हो सकता है, ताई महामारी की चपेट में आ गई है, जो रोगी के पास जाने से तो फैलती ही है पर, रोगी का चेहरा देखने से भी फैलती है, तो दादी के हालचाल पूछने आने वाले धीरे धीरे मुँह फेरने लगे। उन्होंने दादी के घर आना तो बंद ही कर दिया पर जो गाँव वाले पहले गालियाँ भी हाथ मिलाते हुए देते थे, वे अब एक दूसरे से अपने हाथ छिपाने लगे। जो गाँववाले कभी अपने घर में कम ही दिखते थे, हरदम एक दूसरे के घर में पसरे रहते थे, वही गाँववाले एक दूसरे से बात करना करना तो दूर, एक दूसरे का मुँह देखने से भी परहेज करने लगे, मानों ज्यों सबका अपना अपना घर ही गाँव हो। किसी अज्ञात डर से गाँववालों ने अब अच्छरू दादा के घर की ओर जाने वाले रास्तों में बाड़ के खुंगे लगा दिए थे ताकि गलती से कहीं बच्चे उस ओर खेलते खेलते न चले जाएँ। 

कोई पंचायती नळके के पास पानी की टोकणी, घड़ा, गागर लाने जाता तो पहले दस बार झाँक झाँक कर उस ओर देख लेता कि वहाँ कोई दूसरा पानी भरने तो नहीं गया है। अब गाँव वालों के बदले केवल गाँव के बीउळों खड़क-खड़कियों, सीमळों पर बस पंछी ही चहचहाते। कभी-कभार आपस में कहीं किसी गली, आँगन में कुत्ते गड्डते चईं चईं करते तो लगता कि यहाँ भी गाँव है। आँगन में पेड़ पर बैठे किसी कौवे को जो कहीं कागबळ फेंका दिख जाता और वह उसे देख जब काँव काँव करने लगता तो लगता कि यहाँ गाँव भी है। अपने अपने आँगन में बंधे पसु जब बासणे, जड़ुकणे तो लगता यहाँ गाँव भी है। यह सब देख तब लगता ज्यों गाँव के एक-एक जीव को एक एक भयंकर अजगर ने अपने में कसकर जकड़ रखा हो। गाँव के मा के दाणे पांदली सफेदी भर सूँघने की शक्ति रखने वाले को उस वक्त अपने से तो अपने से, अपने घर की मिट्टी की दीवारों तक से मौत की अजीब सी बास आने लगी थी। इस बास को न चाहते हुए भी सूँघते सूँघते उसे लगता कि क्यों न वह सदा सदा को अपनी नाक बंद कर ले। उसे तब यह भी लगने लगा था कि हर बास से बचा जा सकता है, पर मौत की बास से कहीं भी नहीं बचा जा सकता। शायद, मरने के बाद भी नहीं। या कि हो सकता है मरने के बाद यह मौत की बास पीछा छोड़ दे? 

इधर दादी की तबीयत थी कि दिन पर दिन और भी बिगड़ती जा रही थी। महीने में ही साठ किलो की हट्टी-कट्टी दादी मात्र बीस किलो रह गई। ये सब देखकर किसी की भी मौत से न डरने वाला अच्छरू दादा भीतर तक हिल गए। हालाँकि उन्होंने दादी के सामने अपने इस डर को उसके मरने तक जाहिर न होने दिया। पर उन्हें अब लगने जरूर लग गया था कि अब वह शायद देउकु को सदा-सदा को जल्दी ही खोने जा रहे हैं। फिर यह मान कर मन मना लेते कि सदा को तो भगवान भी नहीं रहे, देउकु वे तो मट्टी के बने हैं। देह को तो एक न एक दिन सभी को त्यागना है, देउकु को भी और उन्हें भी। हम चाहें या न! किसीके मरने से लाख इनकार करने से भी कुछ नहीं होता। जब जाना है तो बस, सारे काम छोड़ कर जाना है। आगा पीछा लगा रहता है।

हार पच कर जब कुछ भी ठीक न दिखा तो दादी के पास जबरदस्ती पुछाड़े वालों की शीला चाची को बिठा अच्छरू दादा ने उस दिन मठ बजार जा सिमला में अपने बेटे को सुखदेव लाले की दुकान से फोन कर ही दिया, “तेरी माँ बहुत बीमार है। हो सके तो घर आ ले। चाहे एक रात को ही सही। वह तुझे बहुत याद कर रही है। लगता है...” कहते कहते अच्छरू दादा को लगा था जैसे वे सबसे गहरे समंदर की तलहटी पर जा गिरे हों।

“पर बापू... देखो तो सबका आना जाना बंद हो गया है। सरकार ने आर्डर दे दिए हैं कि कोई जरूरी काम से भी घर से बाहर न निकले? ऐसे में...”

“तेरी माँ बीमार है। क्या उसे देखना जरूरी नहीं?” 

“सो तो ठीक है बापू पर... जो मैं घर आ गया तो वहाँ शांति और बच्चे... जैसे ही हालात ठीक होते हैं मैं...” 

“तो तेरी मजट्ट! तेरी माँ ने तुझे बताने को कहा था सो...”

...और रात दो ढाई के बीच दादी ने सुरग की बाट पकड़ ली। वैसे अच्छरू दादा को लग तो दिन को ही गया था कि अब किसी भी बख्त कुछ भी हो सकता है। वे पता नहीं किस डर से साँझ से ही दादी की नब्ज हर दस मिनट बाद पतरोळने लग गए थे। और दादी की नब्ज थी की हरबार ढूँढने में ज्यादा समय लेती। अपने बचपन के यार कीत्थु को जब उन्होंने आँगन से यह सब बताने को आवाज दी तो वह कन्नी काट गया। पोलो को आवाज दी तो उसने भी अनसुनी कर दी। उस वक्त उन्हें लगा ज्यों बियाबान जंगल में उनका ही एकमात्र घर हो। वे चुपचाप भीतर आ गए और बाहर चाँद की बढ़ती चाँदनी के साथ भीतर अँधेरा होता महसूस करने लगे। छत से सौ वाट का बल्ब टँगा होने के बाद भी उन्हें बीउंद में कुछ दिख नहीं रहा था सिवा दादी के। उन्हें लगता ज्यों दादी की साँसें नहीं, उनकी साँसें पल दर पल मंद पड़ रही हों। दादी के दिल की धड़कन नहीं, उनके दिल की धड़कनें रुकती जा रही हों। 

अच्छरू दादा ने जमीन पर बिछाई पराळ की माँजरी पर बिछी तळाई पर सुला दादी का हाथ कसकर कड़ा मन कर अपने हाथ में ले लिया, यह सोच कर कि अब वे उसका हाथ कभी नहीं छोड़ने वाले, चाहे जो होना हो हो जाए। जिसको उनसे दादी का हाथ छुड़ाना हो वह जितनी चाहे उतनी कोशिश कर ले। पहली बार उन्होंने दादी का हाथ अपने हाथ में तब लिया था, जब उनके ब्याह की बेदी में पंडितजी ने उनके हाथ में दादी का हाथ दिया था। और दूसरी बार अब। दादी को गला सूखता तो वे लोटे में डाले तुलसी के पत्तों वाला थोड़ा-थोड़ा पानी उसके मुँह में चमच से डाल देते। दादी तब बुझती आँखों से उनकी ओर देखती और आँखें बंद कर लेती। तब वे उसको तसल्ली देते कि दादी के पास वे हैं, उसके कुछ नहीं होने देंगे। 

जब दादी की तड़छ ज्यादा ही बढ़ गई, उसकी साँस एक तरफा हो गई, गले में घरड़ घरड़ होनी शुरू हो गई तो दादा ने दादी को गीता सुनाना बंद कर रुँधे गले से कहा, “री देउकु! तुझे जाना ही है तो चली जा अब! मुझसे अब तेरी और पीड़ नहीं सही जा रही। तू पता नहीं इतनी पीड़ कैसे सह रही है और किसके लिए? जा, अब अपना आगा सुधार! मैं ठीक हूँ। तुझे अपने इस जन्म के रिश्ते से मुक्त करता हूँ। भगवान ने चाहा तो जल्दी ही इस देह में फिर मिलेंगे। चाह कर भी मैं तेरे कर्जों से इस जन्म तो क्या जो मानुस बन हजार बार भी जन्म लूँ तो भी नहीं पाऊँगा। मेरा कहा सुना माफ करना देउकु। जा, मेरी चिंता न कर। जिंदा जी तूने मुझे धूप का सेक भी न लगने दिया। मैं अब तेरे बिना भी जी लूँगा। अपने बेटे को लेकर बहुत परेशान है न तू? तो ले, तेरे बेटे की सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूँ। जितना तू उसका ख्याल रखती थी न, मैं उससे भी ज्यादा उसका ख्याल रखूँगा,” अच्छरू दादा ने दादी के पैरों में सिर रखे दोनों हाथ जोड़े मन कड़ा कर कहा तो दादी जैसे उनके इस कहने का इंतजार ही कर रही थी। जैसे कि उसके बेटे की जिम्मेदारी कोई ले तो वह आगे की बाट निहारे। आह री ममता! जो बेटा मरते हुए भी पास नहीं, और तुझे मरते मरते भी उसकी इतनी चिंता! अच्छरू दादा के इतना भर कहने की देर थी कि दादी यों ज्यों महीना पहले की मरी हो या कि वह कभी जिंदा रही ही न हो। 

अच्छरू दादा ने दादी का हाथ पूरी हिम्मत से अपने हाथ से छोड़ दादी के सिरहाने बोरी में भर कर रखे सतनजे को लगाया। फिर हँसते हुए दादी को देखते-देखते उसके हाथ में गोदान को एक सौ एक बाँध कर रखी धोती छुआकर किनारे रखी। शेष अपनेपन से दादी का चेहरा सहलाते पंच रत्न की पुड़िया उसके सिरहाने से निकाल दादी के मुँह में डाली और पूजा के चौकड़ू से शंख ला, न खुलते होंठों से बजा पूरे गाँव को सूचित कर दिया की देउकु नहीं रही। यह जानते हुए भी कि शंख की फुक्कर सुनने के बाद कोई आने वाला नहीं। 

“अब सबुह कैसे होगा देउकु? तू मरी भी तो ऐसे बख्त में कि...पर चल! जाने का जो किसीको पता होता तो...” उन्होंने दादी को ब्याह कर लाए बख्त के ट्रंक में सँभाल कर रखे रीहड़े से सिर से पाँव तक ढका और अकेले ही दादी की अगली तैयारियों में जुट गए, कभी इस बीउंद तो कभी उस उस बीउंद दौड़ते, दोनों हाथों से अपनी कमर को सहारा देते, इतनी फुर्ती से कि जितनी फुर्ती उन्होंने अपने में जवानी के दिनों में भी अपने में कभी शायद ही महसूस की होगी।

जैसे ही बीस सालों से अच्छरू दादा के साथ नखाणियों वाले जीतराम ने शंख की आवाज सुनी तो वह एकदम चौंक कर जाग गया। उसने झट से लालटेन जलाई और अच्छरू दादा के घर की ओर चलने को हुआ तो उसकी जोरू ने उसे रोका, “क्या कर रहे हो?” जानते नहीं, हमारी उनके साथ नखाणिया हैं। पिछले बीस सालों से हमने उनके घर की देउळ भी नहीं टप्पी है। ऐसे में क्या कहेंगे सरीक? सुना है, जठ्याणी ने तो हमें देवता भी लगाया है जिसके चलते पिछले पाँच सालों से हमारी गाय खाली मिल रही है।”

“छोड़, परे हट! अब और डर, दुश्मनी के बीच नहीं जी सकता मैं। देखती नहीं, वह इस वक्त अकेला है। मुझे तुझे सबको मरना तो है ही एक न एक दिन। आज भी और कल भी। अब उससे और दुश्मनी बर्दाश्त नहीं होती मुझसे। अमरता लिखवा करके कौन आता है यहाँ? अमरता लिखवाकर तो यहाँ भगवान भी नहीं पैदा हुए। उन्हें भी समय पूरा होने पर देह त्यागनी पड़ी। इस मुसीबत में कैसे छोड़ दूँ अपने बचपन के दोस्त अच्छरू को अकेला जिसके साथ बचपन में घराट जाते खड्ड में नंगा नहाया करता था? कैसे रहने दूँ उस दोस्त को अभी अकेला जिस दोस्त के साथ बचपन में क्या क्या मस्तियाँ नहीं कीं। अभी उसके यहाँ नहीं जाऊँगा तो वह मुझे मेरे मरने के बाद भी माफ़ नहीं करेगा। मैं अभी उसके दुःख में नहीं जाऊँगा तो कल उसको कौन सा अपना मुँह दिखाऊँगा?’ जीतराम ने कहा और चार-चार कदमों का एक-एक कदम करता हाथ में लालटेन लिए अच्छरू दादे के घर की ओर हरे राम ! हरे राम! कहता निकल गया। अधराते गाँव में किसीके कदमों की आवाज सुन कुत्ते भौंकने लगे थे। 

मठ=साधुओं का डेरा;  छान=घर की छत; कच्ची=आधी; चैल्वार=आधा दिन; बिना नागा=बिना कोई दिन छोड़े; दगड़ियां=टोलियाँ; बदंगी=वैद्य चारी; दुस्सर=ताश का एक खेल; बाछाइयों=बाहर के देशों; मुआ-फुक्या , मादरचोद, भैनचोद=गाँव में प्यार की गालियाँ; मड़थीउणी=श्मशानघाट; ज्वाण्स=घरवाली; देउकु=नाम; मांजा=चारपाई; बीउंद=गाँव के कच्चे घरों का नीचे वाला कमरा; परातड़ी=टूटी हुई पुरानी बेकार परात; सुइ=ब्याई; धीणचा=घी दूध;ग्वाइणी=पशुशाला; खुंडे=पशु बाँधने के लिए ज़मीन में गाड़ा लकड़ी का मोटा डंडे; नीले बैल=देशी बैल; लोटकु=मिट्टी बरतन लोटे की शक्ल का; छा=मट्ठा, लस्सी; लोयटू=दूध देने वाले पशु के थन वाली जगह; सलीण=शरीफ; नौणी=मक्खन;  गाळते=पिघलाते; गोटू=उपले; सज्याड़े=गोबर फेंकने की जगह; ओड्डे बन्ने=पत्थर से लगाई खेतों की सीमाएँ; अदप्रद्दी=आधी पौनी; छिन्न छान=घास निकालना पेड़ पौधों से; पराळ की मांजरी=धान की पराली से बनी सफ्फ, खुंगे=आड़े तिरछे लकड़ी के कांटेदार डंडे; टोकणी=गागर की ही तरह ही पानी भरने का पीतल का बरतन; गड्डते=लड़ते; कागबळ=कौओं को दिया जाने वाल रोटी का टुकड़ा; जड़ुकणा=रम्भाना; मा=माश; पांदली=ऊपर की तह; हार पच कर=थक हार कर; पतरोळने=ढूँढ़ने; घरड़ घरड़=मरते हुए गले के पास एक ख़ास क़िस्म की आवाज़; तड़छ=तड़प; सतनजे=सात तरह का आनाज; चौकड़ू=फ़र्श; शंख की फुक्कर=मरने के समय शंख की ख़ास क़िस्म की आवाज़; रीहड़े=विवाह के समय दुलन द्वारा ओढ़ा जाने वाली ख़ास क़िस्म की लाल चुनरी; नखाणियां=आपस में लड़ाई होने पर कभी न मिलने की क़सम; सरीक=दुश्मन

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
पुस्तक समीक्षा
कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें