व्यंग्य मार्केटिंग में बीवियाँ
डॉ. अशोक गौतमअपने मुहल्ले के नाके पर जो स्वागतम् के गेट से पहले पान, खैनी, जरदे, उड़ता पंछी, कुबेर और न जाने कौन-कौन से ब्रांड वाले नशों का खोखा है न, वह तब-तब खुला होने के बाद भी बंद सा ही दिखता है जब-जब रामदीन खोखे पर होता है।
पर ज्यों ही उसकी बीवी घर का काम निपटा खोखे पर आती है तो पान, बीड़ी, गुटखा लेने वालों की इतनी लंबी क़तार पान, बीड़ी, जरदा लेने के लिए खोखे पर लग जाती है मानों खोखे पर पान, बीड़ी नहीं शाहरुख खान की फ़िल्म के टिकट ब्लैक में बिक रहे हों। रात को अगर रामदीन की बीवी को घर में दाल-रोटी बनाने न जाना पड़े तो लाइन वहीं की वहीं लगी रहे। उसके खोखे पर आते ही जवान तो जवान, बच्चे भी बूढ़ों से साक-सरम छोड़ बीड़ी, जरदा लेने सीना तान कर लाइन में खड़े हो जाते हैं। कब्र में टाँगें तो क्या, पूरे लटके हुए बुज़ुर्गों, जिन्होंने अपनी कमर में बँधी रस्सियाँ नीम हकीमों के दवाखानों के कुंडों से बाँध रखी हैं, को कहते सुना है कि रामदीन की बीवी के हाथों से ली एक बीड़ी में ही इतना नशा हो जाता है कि जितना कि रामदीन के हाथों से दस बीड़ी के बंडल फूँकने पर भी नहीं होता।
जिस तरह से रामदीन के बीड़ी, पान के खोखे पर उसकी बीवी बिना किसी अवरोध शानदार रोल निभा रही है और रामदीन को सही मायने में चला रही है, उसी तरह, अगर मुझपर विश्वास न हो तो किसी भी धाँसू व्यंग्यकार के रद्दी से रद्दी व्यंग्य को उठा कर देख लीजिए, अगर उसके उस व्यंग्य में से उसकी बीवी के रोल को हटा दिया जाए तो व्यंग्य को औने-पौने कबाड़ी भी न ले। अख़बार वाले उसके व्यंग्य को अख़बार में तो अख़बार में, दफ़्तर के दरवाज़े से अंदर ही न आने दें, चाहे वह लाख हाथ जोड़े।
भले ही भीतर से व्यंग्यकार अपनी बीवी से परहेज़ करता रहा हो पर व्यंग्य की सफलता के लिए व्यंग्य में अपनी नहीं तो पड़ोसी की बीवी का किसी न किसी तरह से मौजूद होना वैसे ही ज़रूरी है जैसे समोसे में आलू का होना। व्यंग्य की काया शब्द है तो बीवी आत्मा! इसीलिए कुशल व्यंग्यकार किसी न किसी बहाने अगर उसकी बीवी मायके गई हो या हो ही न तो भी वह अपने व्यंग्य में किसी न किसी की बीवी की एंट्री करवा राहत की साँस लेता है। चाहे मृत्युलोक हो चाहे स्वर्गलोक, आलू के बिना समोसे की कल्पना करना कल्पना के मुँह पर तमाचा मारना है। समोसे की सार्थकता उसमें आलू के होने से है, आलू चाहे सड़ा हुआ ही क्यों न हो। समोसा आलू का स्पर्श पाकर ही पूर्णता को प्राप्त करता है, ठीक वैसे ही जैसे नेता किसी घोटाले को स्पर्श कर ही नेता कहलाने योग्य होता है। इसी तरह व्यंग्यरूपी समोसे में बीवी आलू का काम करती है। असल में व्यंग्यकार जो थोड़ी बहुत खाता है बीवियों के कांधे पर सिर रखने के बाद ही खाता है। अगर बीवियाँ उसे अपने कांधे पर क़लम न रखने दें तो वह दूसरे दिन ही ढूँढे न मिले!
व्यंग्य कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर उसमें बीवी का रोल न हो तो समझ लीजिए व्यंग्य लिखने से पहले ही पिट गया। उसमें चाहे कितना अच्छा थॉट क्यों न हो। पाठक व्यंग्य में थॉट को नहीं, बीवी को पसंद करता है। एक जागरूक पाठक आज की डेट में व्यंग्य में थॅाट नहीं, किसी न किसी रूप में बीवी को ढूँढता है। व्यंग्य में उसे अगर बीवी मिल जाए तो वह व्यंग्य को सीने से लगा लेता है। इसलिए समझदार व्यंग्यकार आज की डेट में व्यंग्य लिखे या न लिखे, पर व्यंग्य के नाम पर जो कुछ भी लिखता है उसमें बीवी के रोल की ज़रूरत न होने के बाद भी हिंदी फिल्मों के निर्माता की तरह अपनी फिल्म में आइटम गीत डाल कर ही दम लेता है।
व्यंग्य में बीवी के योगदान को देखते हुए व्यंग्यकारों से मेरी अपील है कि वे भगवान के शुक्रगुज़ार हों या न हों, अपनी गुपचुप प्रेमिकाओं के शुक्रगुज़ार हों या न हों पर बीवियों के शुक्रगुज़ार अवश्य हों, जो उनमें तनिक भी लाज, शर्म बची हो तो। अगर उनकी बीवियाँ कल को उनके व्यंग्यों में से अपना हाथ खींच कर ख़ुद को व्यंग्य से अलग कर लें तो ये जो पान का बीड़ा मुँह में ठूँसे व्यंग्य लिखते फिरते हैं न, उनके मुँह को अरबी के पत्तों का बीड़ा भी नसीब न हो, उनके व्यंग्य दूसरे ही दिन मुँह छिपाते न फिरें तो पूछना! वैसे ये दीगर बात है कि हिंदी साहित्य की अन्य विधवाओं के विधुरों की अपेक्षा व्यंग्यकारों में लाज, शर्म की माँग करना रेत में नाव चलाने जैसा है। आज जो लेखन में जितना अधिक कुव्यवस्था के प्रति निर्लज्ज है, उतना ही बड़ा व्यंग्यकार है। और जो अपने व्यंग्य में जितनी निर्दयता से पत्नी को घसीटता है वह पद्मविभूषण का हक़दार है। विशुद्ध व्यंग्य को असल में धार व्यंग्यकार, नहीं उसकी बीवी ही देती है।
कइसलिए व्यंग्य लिखने से पूर्व हे बीवी! तुझे न चाहते हुए भी शत् शत् प्रणाम! तू हम व्यंग्यकारों के व्यंग्य का आमुख है। तू ही भगवान से लेकर व्यंग्य के पाठकों का सुख है।
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