सामाजिक न्याय हेतु मंत्री जी को ज्ञापन

15-02-2023

सामाजिक न्याय हेतु मंत्री जी को ज्ञापन

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 223, फरवरी द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

आदरणीय सामाजिक न्याय मंत्री जी, 

सादर नमस्कार! 

विषय: सामाजिक न्याय हेतु ज्ञापन! 

महोदय जी, 

हम आपके हलक़े के पल-पल सीनियर होते चोर इस ज्ञापन के माध्यम से अपने नित बुरे होते हाल आपके संज्ञान में लाना चाहते हैं। वैसे आपके सिवा हम किसी और को अपना दुखड़ा सुनाएँगे तो वह हम पर दूसरों तक से थूक उधार ले थूकेगा ही। 

महोदय जी! आपने इस समाज में गीदड़ों, सियारों, गिरगिटों, कौवों, साँपों को सामाजिक न्याय दिलाने के नेक इरादे उनके लिए अनेकोंनेक कल्याणकारी योजनाएँ लागू कर रखी हैं। इसके लिए हम भी उनकी ओर से आपके तहेदिल से शुक्र गुज़ार हैं। 

हम इस बात को खुले मन से स्वीकारते हैं कि एक ज़माने के समाज में हम सब अपने-अपने फ़ील्ड के नामी चोर जाति के सम्पन्न रहे हैं। अपनी जात खुलकर बताने में हमें कोई शर्म नहीं। हम जो हैं सो हैं। हम उनमें से नहीं जो ग़ज़ब के देशद्रोही होने के बाद अपना चेहरा चौबीसों घंटे टीवी पर तो अपनी जात पग-पग छिपाए फिरते हैं। हम उनमें से भी नहीं जो ग़ज़ब के चोर होने के चलते अपना भेस खाँटी ईमानदारों का बनाए फिरते हैं। इससे होता भी क्या मंत्री जी! हम अपनी जात छिपाए रहें तो छिपाए रहें। कौन किस जात का है, हम जानें या न, पब्लिक सब जानती हैं। बस, हमारे डर के मारे खुलकर कुछ कहती नहीं। 

परमादरणीय मंत्री जी! हम उस नामी-गिरामी जात से ताल्लुक़ रखते हैं जिनके नाम कभी हज़ारों लाखों के इनाम रखे जाते रहे हैं। पर हम तब पकड़ में नहीं आते थे तो नहीं आते थे। आते भी कैसे? हमें पकड़ने वाले ही हमें सूचना दे देते थे कि हम तुम्हें पकड़ने आ रहे हैं। प्लीज़! हमारे लिए कहीं और चले जाओ। और आख़िर में तब अपनी नाक बचाने को पुलिस किसी हमारे हमशक्ल को पकड़ जनता के समाने पेश कर देती थी। एक समय में समाज में हमारे नाम का डंका बजाता था। पाँच बजते ही पुलिस स्टेशन के पास तक के दुकानदार भी तब अपने नौकरों को डरते हुए कहते थे-पाँच बज गए! जल्दी से दुकान का शटर गिरा दे, नहीं तो चोर आ जाएँगे। 

पर सदा को तो किसीकी जवानी और कहानी एक-सी तो नहीं रहती नहीं न मंत्री जी! जो सूरज हर सुबह बड़े रोब से निकलता है, उसे शाम के वक़्त लाख न चाहते हुए भी सिर झुकाए ढलना ही पड़ता है। पर हमने तो जवानी जाने के बाद भी अपनी जवानी की ताक़त को जैसे तैसे काफ़ी देर तब सँभाल कर रखा है। आज तक नहीं पकड़े गए तो नहीं पकड़े गए। 

पर अब हम नहीं चाहते कि जिन पर जम कर चोरियाँ करने के बाद भी जवानी के दिनों में कोई कलंक नहीं लगा, अब इस उम्र में आकर ज़रा सा कुछ किए हमारे माथे पर कोई कलंक लगे। इसलिए इज़्ज़त के साथ चोरी का धंधा बंद किए जा रहे हैं। पर इसका मतलब ये क़तई न समझा जाए कि हम और हमारे चोरी करने की रीति-नीति आउट ऑफ़ डेट हो गई है। चोरी की नई तकनीक डिजिटल चोरी के दौर में हम भी ज़रूरत के हिसाब से तकनीक सम्पन्न हैं। हमारा धंधा ही तमाम धंधों में मात्र एक ऐसा धंधा है जिसमें मरते-मरते भी अपडेट रहना माँगता है। क्या पता अगले जन्म में भी यही धंधा शुरू करना पड़े। 

परम सहोदर जी! बड़े कम ऐसे समाजसेवी होते हैं जो जिस शान से धंधा शुरू करते हैं उसी शान से अपना धंधा बंद कर पाते हैं। हम उन्हीं चंद उँगलियों के गिने-चुने संभ्रांत इज़्ज़तदारों में से एक हैं। वर्ना यहाँ शान से तो सब धंधा शुरू करते हैं, पर लाख जूते खाने के बाद ही धंधा बंद करते हैं। 

अच्छा जी! आप ही बताएँ। सीनियर होने पर क्या बरसों की मरी नैतिकता एकाएक जागने लगती है? हमारे ग्रुप के बहुतों का तो यही कहना है कि उनके साथ यही सब हो रहा है, पता नहीं कैसे? अगर पुराने दिनों को याद करते उनके पाँव लुहार की तिजोरी की ओर चलते हैं तो अनायास ही हरिद्वार की ओर मुड़ जाते हैं। 

अब रही बात क़ानून की, तो क़ानून से न तो हम पहले डरते थे, न अब ही डरते हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि क़ानून मच्छरों को ही अपने जाल में फँसाता है। मगरमच्छों को तो वह सादर सीमा पार करवाता आया है। 

परमादरणीय मंत्री जी! समाज में चोर कौन नहीं? पर हम स्वीकारते नहीं। अच्छी बात है जो हम हैं, वह स्वीकराना भी नहीं चाहिए। अगर स्वीकार करने लग जाएँ तो बहुत ग्लानि नहीं, आत्मग्लानि होगी। और जब आत्मग्लानि होगी तो शोहरत, इज़्ज़त, गाड़ी, बँगला, कार स्विस बैंक में करोड़ों होने के बाद भी मन आत्महत्या करने को मचलने लगेगा। तब इतना कुछ होने के बाद भी आत्महत्या आत्म विरोधी ही होगी। 

मंत्री जी! अपनी ज़िन्दगी में सब कहीं न कहीं चोर रहे हैं, होते हैं। कुछ तन के चोर होते हैं, तो कुछ मन के। जो तन और मन के चोर नहीं होते, वे शर्तिया धन के चोर होते हैं। यहाँ जो अपने को साधु बने फिरते हैं, अकेले में अपने को साधु कहने से वे भी डरते हैं। यह समाज तरह तरह के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष चोरों से भरा पड़ा है। हमारी शरीफ़ी बस यही रही कि हमने प्रत्यक्ष चोरों वाला रास्ता चुना। यहाँ कोई टैक्स चोर है तो कोई स्नैक्स चोर! कोई पानी चोर है तो कोई जवानी चोर! कोई रंग चोर है तो कोई व्यंग्य चोर! कोई नादानी चोर है तो कोई कहानी चोर! कोई सविता चोर है तो कोई कविता चोर! कोई रोटी चोर है तो कोई धोती चोर! कोई चेन चोर है तो कोई चैन चोर! कोई वोट चोर है तो कोई नोट चोर! कोई सरकारी सम्पत्ति पर हाथ साफ़ कर रहा है तो कोई सरकार पर! तय मानिए, जिसके ज़रा से भी हाथ हैं, वह कहीं न कहीं चोर ज़रूर है। 

आप तो जानते ही हैं कि स्थान से हटने के बाद बाल, दाँत, नाखून, नेता, चोर और बूढ़ा होने पर शेर कहीं भी सम्मान नहीं पाता, चाहे उन्होंने अपने समय में अपना काम कितनी ही ईमानदारी से क्यों न किया हो। 

हम खुले मन से स्वीकारते हैं कि हमने अपनी जवानी के दिनों में डटकर चोरियाँ कीं! पूरी ईमानदारी से कीं! मन लगा कर कीं! पूरी निष्ठा से कीं! संविधान की क़सम खाकर कीं। चोरी करने के बाद इधर-उधर सबको जी भर खिलाया-पिलाया। बिना किसी को खिलाए-पिलाए कोई सड़क से जनता की एक ईंट तक उठाकर तो देखे। वे हमारी जवानी के दिन थे। अब हमारी जवानी जा चुकी है। दिमाग़ में भी अब इतनी गंदगी नहीं बची कि कहीं हिम्मत से बेशर्म हो हाथ डाल सकें। आज तक चोर बन कर समाज में बहुत जी लिए। अब समाज में हम भी सम्मानपूर्वक जीवन जीना चाहते हैं। और यह हर युग का कड़वा सच है कि बाप के सीनियर हो जाने पर उसके बच्चे तो बच्चे, जन्मों-जन्मों की उसकी पति परायण बीबी तक उससे विमुख हो जाती है। भले ही उसने सारी उम्र जो भी किया हो, इनके लिए ही क्यों न किया हो। 

कुल मिलाकर, जमा-घटाकर महोदय जी से निवेदन है कि अब शेष जीवन सम्मानपूर्वक जीने हेतु सरकार की ओर से सबकी तरह आप हमें भी सीनियर चोर पेंशन व्यवस्था का जितनी जल्दी हो सके प्रावधान करें ताकि सारी उम्र सामाजिक अन्याय सहने वाले हम मज़लूम कम से कम इस ढलती उम्र में थोड़ा बहुत सामाजिक न्याय प्राप्त कर झुकता सिर उठाकर इज़्ज़त के साथ जी सकें। 

धन्यवाद, 

आपके इलाक़े के सभी सीनियर चोरों के नाम हस्ताक्षर सहित। 

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