शर्मा एक्सक्लूसिव पैट् शॉप
डॉ. अशोक गौतमरिटायरमेंट के चार दिन बाद ही घर बैठे-बैठे, घरवालों की गालियाँ सुनते शर्मा जी की टाँगें और दिमाग़ जाम हो गए तो उन्होंने कुछ ऐसा करने की सोची कि टाँग, दिमाग़ की दुरूस्ती के साथ-साथ घरवालों की चिकचिक से भी छुटकारा मिले और इनकम का सोर्स भी हो जाए। रिटायरमेंट के बाद वैसे भी पगार आधी हो गई है। पर पैसा और शौहरत चाहे कितनी भी हो, कम ही लगते हैं। इनके लिए आदमी तो छोड़िए, आदमी को बनाने वाला तक क्या-क्या नहीं करता। जिसके मुँह इन दोनों का बे-स्वाद सा स्वाद लग जाए, उसे हद से लेकर ज़द कोई अर्थ नहीं रखते।
तनी बनी ठनी बीवी के हाथों की ठंडी पर ठंडी कॉफी पीने, विचार पर विचार करने, मुहल्ले का व्यापारिक सर्वे और उसके गहन विश्लेषण से निकले नतीजों के बाद उन्हें लगा कि मुहल्ले में कुत्तों की संख्या आदमियों की जनसंख्या से अधिक है। पर उनके लिए कोई दुकान नहीं है, जहाँ से कुत्ते अपने मालिक को आदेश देकर अपने हिसाब से अपनी पसंद का सामान मँगवा सकें। ऐसे में अगर मुहल्ले में कुत्तों के लिए एक जनरल स्टोर खुल जाए तो मुहल्ले के कुत्तों को अपनी पसंद का सामान मँगवाने के लिए अपने मालिकों को शहर न भेजना पड़े। और अपने सामने कुत्ते अपने मालिक से सामान ख़रीदवा सकें ताकि उनके मालिकों को बार-बार अपने प्रिय कुत्तों का सामान चेंज करवाने हाँफते हुए शहर न जाना पड़े। इससे कुत्तों का काम भी हो जाएगा और चार पैसे की इनकम भी। वे अपना प्रोजेक्ट फ़ाइनल करने से पहले मुहल्ले के चार कुत्तों के शौक के मारे कुत्ता मालिकों से भी मिले। उनका इंटरव्यू किया, उनका विश्लेषण करने के बाद वे अंतिम रूप से इस नतीजे पर पहुँच गए कि मुहल्ले में कुत्तों की दुकान की आदमियों की दुकान से अधिक सख़्त ज़रूरत है, और उन्होंने मन बना लिया कि वे मुहल्ले में कुत्तों के लिए जनरल स्टोर खोलकर ही दम लेंगे। आदमी उन्हें जो समझें, सो समझें।
अपने इरादे पर अंतिम मुहर पर अंतिम मुहर लगाने कल वे मेरे घर आए। उस वक़्त मैं अपने स्वदेशी कुत्ते के बाल सँवार रहा था। मैं स्वदेशी का हिमायती तो नहीं हूँ, पर मुझे हर कुत्ता एक सा ही लगता है। आदमियों को हम चाहे देस-विदेस में बाँट लें, पर कुत्तों को मैं एक सा ही मानता हूँ। कुत्ता चाहे देसी हो या विदेसी। उसके पास एक अदद पूँछ तो ज़रूर होती है। कुत्ता काटने-भौंकने से नहीं, पूँछ से ही अधिक पहचाना जाता है। वैसे जबसे आदमी ने भौंकना, काटना शुरू किया है तबसे कुत्ते शरीफ़ होने लगे हैं।
असल में मुझे उस वक़्त अपने कुत्ते के साथ सैर करने को जाना था। कई महीनों से पता नहीं मैं क्यों उसकी फ़िटनेस को लेकर अपनी फ़िटनेस से अधिक चिंतित हूँ। अपने बाल सैर करने जाने पर सँवरे हों या न, इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अपना पेट ख़राब हो, मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कुत्ते का हाज़मा ठीक तो मेरा ख़ुद ही ठीक। जब आप के साथ कुत्ता घूमने निकले हों तो लोग आपके बालों के सँवरे होने के प्रति उतने सजग नहीं होते जितने कुत्ते के सजे-सँवरे होने को लेकर चौकस होते हैं। आदमी का क्या! वह तो होता ही सजने-सँवरने के लिए है, पर असली आदर्श मालिक वह जो अपने कुत्ते को अपने से अधिक सजा-सँवार कर रखे।
"कहिए शर्मा जी! कैसे आना हुआ? कैसे कट रही है रिटायरमेंट के बाद?" मैंने कुत्ते के बाल सँवारने के बाद उसी कंघी से अपने बाल सँवारे तो कुत्ते की श्रद्धा मेरे प्रति देखने लायक़ थी। उसे उस वक़्त लग रहा था जैसे में उसका मालिक न होकर वह मेरा मालिक हो। उन्होंने मेरे मन में कुत्ते के प्रति इतना अगाध प्रेम देखा तो बिन सोचे-समझे मेरे कुत्ते के पाँव छूते कहा, "समझो, मेरी निकल पड़ी।"
"क्या निकल पड़ी शर्मा जी?" मैं हैरान! कल तक जो गली के आदमियों तो आदमियों, कुत्तों तक को गाली देते थे, आज कुत्तों के प्रति उनके मन में इतना स्नेह कहाँ से उमड़ आया? कहीं हृदय परिवर्तन तो नहीं??
"दुकान! अगर मुहल्ले में आप जैसे कुत्तों के चार भी कुत्ता उपासक निकल आएँ तो समझो मेरी शॉप निकल पड़ी," कह वे मुस्कुराते हुए भगवान की ओर स्वर्ग को हाथ जोड़े खिसक लिए।
और अगले ही दिन उनके घर के सड़क के साथ लगते कमरे पर मैंने एक बड़ा सा साइन बोर्ड लगा देखा। शर्मा एक्सक्लूसिव पैट् शॉप! मैं हैरान-परेशान। वाह! क्या ख़ूबसूरत बोर्ड बनवाया था। दूर से ही ऐसा चमक रहा था कि नयनसुख तक उस बोर्ड को मजे से पढ़ ले। जिस मुहल्ले में आदमियों के करियाने की दुकान की ज़रूरत थी वहाँ शर्मा पैट् शॉप! और वह भी एक्सक्लूसिव? समाज में आदमियों से अधिक संभ्रांत कुत्ते के कब से हो गए? कुत्तों की ज़रूरतें आदमियों से महत्वपूर्ण कब से हो गईं समाज में? मैं मन ही मन कुछ सोचने लगा कि तभी मेरा कुत्ता मेरी सोच भाँप गया कि मेरे दिमाग़ के भीतर क्या पक रहा है। सो वह मुझे घूरा तो मैंने अपने दिमाग़ का सोचना बंद कर दिया।
अभी मैं उस साइन बोर्ड को मुस्कुराते हुए घूर ही रहा था कि शर्मा जी सजे-धजे बाहर निकले। वाह! ऐसी सज-धज? ऐसे तो वे अपने विवाह को भी न सजे-धजे होंगे। मुझे देख एक बिजनेसमैन के नाते वे हद से अधिक मुझ में दिलचस्पी लेते बोले, "वर्मा जी! कैसा लगा मेरा इनोवेटिव आइडिया?"
"मतलब??"
"मैंने काफ़ी समय तक सर्वे के बाद तय किया कि मुहल्ले में और तो सब कुछ है पर कुत्तों के लिए अलग से एक्सक्लूसिव पैट् शॉप नहीं। कई बार मैंने ये भी देखा है कि आदमियों के स्टोर से कुत्ते अपना सामान लेते शरमाते से हैं या कि आदमियों के सामने उनके स्टोर में आते ही नहीं। वे वहाँ खुल कर अपने मन पसंद की चीज़ें ले नहीं पाते और मन मसोस कर रह जाते हैं। सो मैंने सोचा कि बस अब यही काम करूँ। इस बहाने राहु की सेवा भी हो जाएगी और चार पैसे इनकम भी।"
"मतलब, आम के आम, गुठलियों के दाम!" पर भाई साहब जो साठ साल तक गुठलियों के दाम ही लेते रहे हों, रिटायरमेंट के बाद आम के ही पैसे कैसे लेंगे? दिमाग़ ने बका।
"ऐसा ही कुछ समझिए बस! मैं चाहता हूँ कि कल आप इस दुकान की ओपनिंग अपने कुत्ते से करवा मुझे कृतार्थ करें।"
"इस मौके पर और कौन-कौन पधार रहे हैं?" मैंने जिज्ञासावश पूछा तो वे बोले, "पास पड़ोस के कुत्तों वाले अपने कुत्तों के साथ पधार रहे हैं। स्नैक्स भी रखे हैं।"
"किसके लिए? कुत्तों के लिए या...."
"नहीं, दोनों के लिए।"
"पर मेरे हिसाब से जो दुकान की ओपनिंग किसी विदेसी कुत्ते वाले से करवाते तो... वे इस मामले में ज़्यादा टची और फसी होते हैं। इसीलिए..."
"करवाता तो उनसे ही पर वे इस मामले में ज़्यादा टची और फसी होते हैं। उनके नखरे सहने की मेरी हिम्मत नहीं। ऊपर से मैं वसुधैव कुटुंबकम् में विश्वास रखता हूँ, भले ही एक छत तक के नीचे बंधुत्व न बचा हो। मैं मानकर चला हूँ कि समस्त धरा के आदमी एक हों या न पर समस्त धरा के कुत्ते एक ही परिवार के होते हैं। सब कुत्ते एक से होते हैं। दूसरे, हमारे आसपास अभी बहुमत स्वदेशी कुत्तों का ही है। इसलिए भी मैंने..." मुझे लगा कि बंदा बिजनेस का गुर दुकान खुलने से पहले ही सीख गया। कुत्तों का माल बेचकर बहुत आगे तक जाएगा।
"तो क्या-क्या रख रहे हो शर्मा पैट् शॉप में कुत्तों के लिए?" मैंने यों ही पूछा था पर उन्हें लगा जैसे मेरी उनकी दुकान में जिज्ञासा हो।
"कुत्तों का हर ज़रूरी सामान बोले तो सुई से लेकर सिंहासन तक सारी रेंज एक ही छत के नीचे उपलब्ध होगा। क्वालिटी से कोई समझौता नहीं। देश में आदमियों को कुत्तों का सामान खिलाया जा रहो हो तो खिलाया जाता रहे, पर मेरी दुकान में आदमियों के समान से ज़्यादा बेहतर क्वालिटी रहेगी उसकी। कोई ठगी नहीं। ठगने को देश पड़ा है। इसलिए बेज़ुबान कुत्तों को क्यों ठगा जाए? कुत्तों के कपड़ों, साबुन, शैंपू से लेकर उनके ब्रेक फास्ट, लंच, डिनर तक सब कुछ तक मतलब, कम्पलीट रेंज ऑफ़ पैट् और वह भी बिल्कुल कम प्रॉफ़िट के साथ। या कि बस यों समझिए कि मैं रिटायरमेंट के बाद बस कुत्तों की सेवा में अपने को लगा अपना परलोक सुधारना चाहता हूँ। रेट्स ऐसे जेनुअन की कुत्ते तो कुत्ते, कुत्तों के मालिक तक कुत्तों के प्रॉडक्ट्स तक ख़रीदने से लेकर यूज़ करने तक से गुरेज़ न करें।"
"मतलब???" मुझे शांत सा ग़ुस्सा आने लगा था।
"ऑरिजनल प्रॉडक्ट्स बिल्कुल मिट्टी के दाम। अच्छा, तो मैं कल के लिए आपको चीफ़ गेस्ट फ़ाइनल समझूँ न? अभी बहुत काम पड़े हैं वर्मा जी। और हाँ! कल ठीक दस बजे आ जाएँ आप ख़ुदा के लिए। माफ़ कीजिएगा, बीवी के सथ आप अपने कुत्ते सॉरी डियरेस्ट वन को साथ प्लीज़ ज़रूर लाएँ। अभी स्नैक्स, फोटोग्राफर, मीडिया वैगरह का इंतज़ाम वैसे ही पड़ा है। अब तो जब तक हर फंक्शन में खा-पीकर हुड़दंग न मचे, अख़बारों में फोटो ख़बर न छपे, टीवी पर ख़बर न दौड़े तब तक मरने से लेकर जीने तक के फंक्शन नीरस ही लगते हैं ...," इससे पहले कि मैं कुछ कहता वे शर्मा पैट् शॉप के धाँसू उदघाट्न के लिए ज़रूरी इंत्ज़ाम करने निकल पड़े।
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