अपने गंजे, अपने कंघे

04-02-2019

अपने गंजे, अपने कंघे

डॉ. अशोक गौतम

जैसे ही उन्हें अपने वर्कर बुद्धिजीवी को चुनाव के दिनों में दिया वादा स्मरण आया कि उन्हें अपने पोस्टर वर्कर बुद्धिजीवी को अपनी सरकार आते ही पार्टी विश्वविद्यालय में लाना है तो उन्होंने शेष पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों की आँखों में पूरी पारदर्शिता से धूल झोंकते हुए सारी न्यूनतम योग्यताएँ पद के लिए वही तय कीं जो उनका वर्कर बुद्धिजीवी रखता था। तत्पश्चात बुद्धिजीवी का पद भरने हेतु अख़बारों में विज्ञापन छपवा यह अफ़वाह फैलवाई कि वे बुद्धिजीवियों का सम्मान करते हुए विश्वविद्यालय में परम बुद्धिजीवी प्रोफ़ेसर नियुक्त करना चाहते हैं। इस पद के लिए वे चाहते हैं कि केवल योग्य उम्मीदवार ही चुना जाए ताकि पार्टी विश्वविद्यालय में पार्टी मज़बूत हो। जबसे देश में लोकतंत्र आया है तबसे कोई चीज़ आधिकारिक तौर पर पार्टीगत हो या न, पर पार्टी विश्वविद्यालय पार्टी की सरकार बदलने पर दूसरी पार्टी को ख़ुद ही मौन हस्तांतरित होते रहे हैं।

इधर लोकतंत्र में लोक को मज़बूती देने के लिए जबसे पार्टियाँ दनादन बनने लगी हैं, शातिर क़िस्म के बुद्धिजीवियों ने भी अपनी बुद्धि के घोड़े सार्वजनिक सड़कों पर दौड़ाने के बदले पार्टी हाइवे पर दौड़ाने शुरू कर दिए हैं। हर काल में उम्दा सफलता की दो ही लाइनें बेहतर रही हैं- पहली पार्टी लाइन तो दूसरी आरती लाइन। दोनों को छोड़ बुद्धिजीवी जो तीसरी लाइन पर चलता है, वह पल-पल अपने को छलता है।

किसीकी आँखों में उतनी सहजता से धूल नहीं झोंकी जा सकती जितनी सहजता से किसी भी विशुद्ध बुद्धिजीवी की आँखों में झोंकी जा सकती है। जो बुद्धिजीवी बुद्धि को जितना समर्पित होगा, समझ लीजिए उसकी आँखों में धूल झोंकना उतना ही आसान होगा। 

परन्तु स्वयंभू बुद्धिजीवियों से सावधान रहने की सख़्त ज़रूरत होती है। वे इतने शातिर होते हैं कि उन्हें पहले ही भनक लग जाती है कि फलां उनकी आँखों में धूल झोंकने आ रहा है। इससे पहले कि दूसरा उनकी आँखों में धूल झोंके, वे उसकी मुट्ठी से धूल छीन उसीकी आँखों में झोंक देते हैं। इसलिए स्वयंभू बुद्धिजीवियों की आँखों में धूल झोंकने वालों को मेरी ओर से परामर्श है कि वे बुद्धिजीवी की आँखें में धूल झोंकने से पहले यह भली-भाँति निरख-परख लें कि बुद्धिजीवी विशुद्ध है या स्वयंभू । 

भौतिकवादी सोच में कोई बाज़ार खुला रहे या न, पर पारदर्शी अफ़वाहों का बाज़ार सदैव खुला रहता है। ऐसे में उनकी अफ़वाहें हाथों-हाथ उठती बिकती रहती हैं जिनकी अफ़वाहों में सौ प्रतिशत पारदर्शिता हो।

लोकतंत्र के बाज़ार में और कोई ख़रीद-फ़रोख़्त हो या न, पर पारदर्शी अफ़वाहों की दिल खोलकर ख़रीद-फ़रोख़्त होती है। यही वजह है कि आज देश में उतने आटा-दाल के होल सेलर नहीं जितने पारदर्शी अफ़वाहों के होल सेलर देखने को मिलते हैं। हर क़िस्म के उपभोक्ता जो आटा-दाल ख़रीदने में अपने को असहाय महसूस करते हों, वे भी पारदर्शी अफ़वाहें ख़रीदने को अपनी जेबें ढीली कर ही देते हैं। 

सब जानते हैं कि रोटी, दाल के बिना आज तक की तारीख़ में गुज़ारा हो सकता है पर पारदर्शी अफ़वाहों के उपभोग के बिना नहीं। अफ़वाहों में पारदर्शी अफ़वाहें हमें इतनी एनर्जी देती हैं कि.... इसीलिए तो पारदर्शी अफ़वाहों पर, सारे काम छोड़, विमर्श टीवी चैनलों से लेकर हुक्का लिए हर चौपाल पर बराबर होते रहते हैं। लोकतंत्र के अफ़वाहों के बाज़ार में वे भी पारदर्शी अफ़वाहों पर मज़े से विमर्श करते देखे जा सकते हैं, जिनके अपने कोई विमर्श नहीं होते।

पारदर्शी अफ़वाहें जो कहीं सबसे तेज़ गति से बिन पंखों के उड़ती हैं तो धर्म के बाज़ार के बाद केवल बेरोज़गारी के बाज़ार में उड़ती हैं। आप लंगड़ी से लंगड़ी पर पारदर्शी अफ़वाह को बस एक बार जैसे-कैसे बेरोज़गारी के बाज़ार के सुपुर्द कर दीजिए, फिर देखिए बेरोज़गारी के बाज़ार में प्रवेश करते ही वह सौ-सौ पंखों से कैसे कुलाँचे मारने लगती है?

परन्तु बेरोज़गार बुद्धिजीवियों का बाज़ार दूसरे बाज़ारों से ज़रा हट कर होता है। दूसरे क़िस्म के बेरोज़गार मन मार कर पेट के लिए दूसरे काम भी कर लेते हैं, पर बुद्धिजीवी बेरोज़गार के साथ यह बहुत दिक्क़त होती है कि वह बुद्धि के कामों के सिवाय दूसरे कामों को करने में अपने को असहाय फ़ील करता है, उनकी ओर देखता भी नहीं। वैसे भी जो बुद्धिजीवी बुद्धिविलास के सिवाय कुछ और करेगा तो उसकी फ़ज़ीहत नहीं हो जाएगी? बुद्धिजीवी बुद्धि हिलाने वाला जीव होता है, हाथ-पाँव हिलाने वाला नहीं। वह जितना बुद्धि के साथ फ़्रेंडली होता है उतना किसी दूसरे के साथ नहीं। 

मित्रो! मुझमें एक भयंकर बीमारी है, और वह बीमारी यह है कि जब-जब कहीं किसी पार्टी विश्वविद्यालय में बुद्धिजीवी का कोई पद निकलता है, तब-तब मैं अयोग्य होने के बाद भी अपने को योग्य समझता रहा हूँ, इंटरव्यू का परिणाम आने तक। जब कहीं कोई मेरे लायक़-नालायक़ पद अख़बारों में दिखता है, मैं एक बार फिर अयोग्य-योग्य बुद्धिजीवी के पद हेतु ऑन-लाइन आवेदन करते ही योग्यों की लाइन में जा खड़ा होता हूँ, बिन अप्रोच की टाँगों पर लचपचाते हुए।

जानता हूँ अंधा आज के दौर में रेवड़ियाँ अपनों को दे या न, पर हर सरकार अपनी हज़ारों आँखें खुली होने के बाद भी अपनों को ही रेवड़ियाँ बाँटती आई है, अनगिनत हाथों से। बाँटनी भी चाहिएँ। बंधु अगर आप अपनी सरकार में रहते हुए भी रेवड़ियाँ लोकतांत्रिक ढंग से बाँटोगे तो अगले चुनाव जीतोगे किसके सहारे? अगर अपनी सरकार अपने अंधों को रोशनी नहीं देगी तो भाई साहब जब दूसरे आएँगे तो वे तो भले-चंगों की भी आँखें निकाल कर अपने बुद्धिजीवियों की आँखों पर नहीं चिपका देंगे क्या?

अबके मैंने इस पद हेतु ज़ोर लगाते हुए सोचा भी था कि बुद्धि को किनारे छोड़ उनके मानदंडों के अनुरूप अपनी योग्यता को तैयार करूँ। पर बात नहीं बनी तो नहीं बनी। 

वैसे योग्य बुद्धिजीवी की अनौपचारिक तलाश तो अख़बारों में विज्ञापन छपने से पहले ही पूरी हो गई थी पर कल बड़ी माथा-पच्ची उर्फ़ मंथन के बाद उनकी औपचारिक तलाश पूरी हुई। पार्टी विश्वविद्यालय को जनता के पैसे पर पार्टी फाँसू बुद्धिजीवी मिला। इस पुनीत अवसर पर तमाम हाथ-पाँव मारती बुद्धियों को बधाई! पूरे चार दिन चालीस बुद्धिजीवियों की बुद्धि का पार्टी लाइन पर बड़ी बारीक़ी से निरीक्षण परीक्षण हुआ। पर उनके सिवाय कोई भी बुद्धिजीवी के तय मानदंडों पर खरा नहीं उतरा। उतर भी नहीं सकता था। उन्होंने मानदंड तय किए ही अपने के लिए थे।

अखिल भारतीय बेरोज़गार विशुद्ध बुद्धिजीवी महासंघ की ओर से चयनित महाबुद्धिजीवी को हार्दिक शुभकामनाएँ!
 

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