सूधो! गब्बर से कहियो जाय

15-03-2023

सूधो! गब्बर से कहियो जाय

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 225, मार्च द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

सरकारी नौकरी के बाद ये सरकारी क्वार्टर का चस्का होता ही मुआ ऐसा है भाई साहब! कुत्ते की हड्डी सा। मिलने के बाद न छोड़ा जाए, न रखा जाए। मेरी तरह जैसे-तैसे सरकारी नौकरी मिलने के बाद जब तक इसे-उसे सरकारी र्क्वाटर नहीं मिल जाता, ऑफ़िस के सारे काम छोड़ यह-वह सरकारी क्वार्टर के लिए दिन-रात हाथ पाँव मारता रहता है। और जैसे ही इसे उसे सरकारी क्वार्टर मिल जता है तो उस पर अपना अधिकार यों जमा लेता है ज्यों वह सरकारी क्वार्टर सरकारी न होकर उसका ख़ानदानी क्वार्टर हो। तब यह-वह उसके लिए वह अपना तबादला रुकवाने के लिए तब तक एड़ी चोटी का ज़ोर लगाता रहता है जब तक उसकी एड़ियों में ज़ोर बचा रहता है। कई बार तो उसके लिए वह हँसते-हँसते अपनी प्रोमोशन तक लात मार देता है, भले ही बाद में पता चले कि यार इस लात मारी में तो उसका पाँव ही टूट गया। 

एक बार जो किसी सरकारी नौकर के हत्थे जैसे-कैसे सरकारी क्वार्टर चढ़ जाए तो . . . नाम का किराया कटाया और चौबीसों घंटे सरकारी मकान अलॉट करने वालों के सिर पर बेताल की तरह सवार हुए रहे कभी नलका बदलवाने के लिए तो कभी क्वार्टर में रंग-रोगन करवाने के लिए। कभी बिजली का बल्ब बदलवाने के लिए तो कभी . . . क्या मजाल जो कभी उस सरकारी क्वार्टर पर कोई अपनी दमड़ी भी लगाए। क्यों लगाए जनाब! सरकारी है। कौन-सा अपना है। इसलिए और दायित्वों की तरह सरकार का यह भी नैतिक दायित्व है कि वह अपने कर्मचारी को भी चकाचक रखे और उसको दिए क्वार्टर को भी। हम तो जब सरकार ही कुछ नहीं करते तो उसके सरकारी क्वार्टर का भी कुछ क्यों करें? उसकी खिड़कियों पर घास उग आए तो उग आए। घास ही क्यों, उसकी दीवारों पर मेरी बला से पेड़ उग आएँ। कौन-सा अपना है? हाउस रेंट कटवाते हैं ठुक से हर महीने पगार हाथ में लेने से पहले। इसलिए उसकी गिरती ईंटें ठीक हम क्यों करवाएँ? टूटते दरवाज़े हम क्यों ठीक करवाएँ? इन सबके बारे में सरकार जाने और उसका सरकारी आवास महकमा जिसके कुशल देख-रेख में ज्यों-ज्यों सरकारी आवास गिर रहे हैं महकमे वालों के त्यों-त्यों मंज़िल दर मंज़िल ऊपर चढ़ रहे हैं। 

इधर मैं भी विगत गुज़रे सरकारी भाइयों की तरह सरकारी क्वार्टर का सुख भोगता गले में स्टाफ़ फ़ंड की फूल मालाएँ डलवाए सरकारी नौकरी से रिटायर हुआ तो अपने गले से कुछ रिटायरमेंट वाली ठीक-ठीक मालाएँ निकाल सँभाल रख लीं जाने वाले कल के लिए। क्या पता, जाने वाले कल क्या हो? मालाएँ अपने पास होंगी तो उन्हें मुझ पर मेरे घर वाले डाल तो देंगे। मेरी हमदर्दी के लिए न सही तो न सही, अपनी शर्म के लिए ही सही। 

दोस्तो! अब मैं जाते-जाते कम से कम इन उन पर भार बनना नहीं चाहता। सरकारी नौकरी में रहते मैं घरवालों, काम करवाने वालों पर बहुत भारी रहा। रिटायरमेंट के बाद अब मैं सब पर डाले भार का प्रायश्चित करना चाहता हूँ। रिटायरमेंट के बाद इधर मैं सो रहा हूँ तो उधर मेरी लंबे समय से सोई आत्मा जाग रही है। कोई ज्ञानी हो तो बताए प्लीज़! वक़्त निकल जाने के बाद ही ये आत्मा क्यों जागती होगी? 

रिटायर होने के बाद अगली सुबह सरकारी क्वार्टर में दस बजे बाँग देता उठा तो पता चला,  “अरे यार! मेरे पास सरकार का मारा और तो सबकुछ है, पर अपना घर नहीं।” तब पता नहीं क्या सोचते छह महीने और खींच-खांचकर सरकारी क्वार्टर का दुरुपयोग करता रहा। जब विभाग से क्वार्टर ख़ाली करने का फ़ाइनल नोटिस आया तो नोटिस देने वालों को गालियाँ देते सरकारी क्वार्टर ख़ाली करना ही पड़ा। न करता तो किराया कर्मिशयल रेट पर काटते पेंशन में से कंबख्त! 

आह रे सरकारी क्वार्टर! वाह रे मुझे सरकारी क्वार्टर ख़ाली करने को नोटिस पर नोटिस देने वाले कभी मेरे जिगरी दोस्त रहे धूर्तो! ख़ुद शापित मैं तुम्हें श्राप देता हूँ—तुम्हें कभी भी सरकारी क्वार्टर न मिले। तुम चाहे कितना ही ज़ोर क्यों न मार लो! पुश-पाश लड़ा लगा मिल ही जाए तो मेरी बद्दुआ! वह हफ़्ते भर में तुमसे छिन जाए। तुम प्राइवेट क्वार्टर में आ जाओ। जहाँ हफ़्ते-हफ़्ते बाद पानी आता हो। जहाँ दिन हर पल मकान मालिक सिर पर भूत की तरह बैठा रहे। वह तुम्हें न चैन से वहाँ रहने दे, न वहाँ से दुखी होकर जाने दे। 

कभी हम-निवाला हम-प्याला रहे जिगरियों को श्राप देते-देते जब मैं थक गया तो लगा, यार! बहुत हो लिया अपने दोस्तों को रिटायरमेंट के बाद ये गाली-गलौच! भलाई इसी में है कि अपनी कुटिया अब कहीं न कहीं तो बना ही ली जाए। बहुत मौज-मस्ती कर ली सरकारी मकान में रहते। हे सरकारी मकान! ख़ुदा क़सम! सच कहता हूँ, तुम अपनी कुटिया बन जाने के बाद भी बहुत याद आओगे! पहले सोचा फ़्लैट ले लूँ। पर सबने सलाह दी, ज़मीन लो। कम से कम तब पाँव के नीचे अपनी ज़मीन तो होगी। 

अपने पाँव के नीचे ज़मीन के चक्कर में प्रॉपर्टी डिलर से डील कर प्लॉट इस मुहल्ले में ले लिया गया। सबने कहा, शहर का सबसे शांत मुहल्ल्ला है। मेरे पड़ोस को छोड़ कर। आजकल उसी इधर-उधर वालों की ज़मीन मारे प्लॉट पर दस कमरों वाली डुप्लेक्स कुटिया का निर्माण करवा रहा हूँ। 

आजकल इसी कुटिया के लिए शुद्ध ऑर्गेनिक मैटेरियल हेतु भाग दौड़ ज़ोरों पर है ताकि बची ज़िन्दगी ऑर्गेनिक की गोद में लेट चैन से जी सकूँ। 

इसी सिलसिले में कल ऑर्गेनिक ईंटें लाने रामगढ़ जा रहा था ट्रक वाले के साथ ही ट्रक में ही। जब तक सरकारी नौकरी में रहा, शौच भी सरकारी गाड़ी में ही गया। क्योंकि तब पीठ सरकार की थी। रिटायर होने के बाद अब जेब मेरी है। इसलिए टॉयलेट-शीट तक असली नाक से दस-दस बार सूँघ-सूँघ कर ला रहा हूँ। सरकारी सप्लाई की तरह नहीं कि जो आया हाथ बिछा चला लिया। कि पड़ोसी भाई साहब ने अचानक बिल्ली की तरह रास्ता काटते पूछा, “कहाँ जा रहे हो रिटायर टैक्स विभागिए?” 

“कुटिया के लिए ऑर्गनिक ईंटें लाने रामगढ़ जा रहा हूँ भाई साहब! सुना है, सब कुछ बनाने के लिए इस शहर में रामगढ़ की ईंटें ही सौभाग्यशाली मानी जाती हैं,” मैंने ज्यों ही रामगढ़ का नाम लिया तो उनका सूखा चेहरा गुलाल हो गया। 

“रामगढ़?” 

“हाँ भाई साहब! आप भी मेरे साथ चलोगे तो ईंटें लाने वाले ट्रक में सफ़र कहते-सुनते आराम से कट जाएगा!”

“नहीं यार! अभी तो घर के बीसियों काम पड़े हैं। पर तुम रामगढ़ जा रहे हो तो मेरा एक काम करना!”

“आपको भी ईंटें लानी हैं क्या पड़ोसी की ज़मीन पर शौचालय बनाने के लिए?” 

“नहीं बंधु! रामगढ़ जाते-जाते कहीं गब्बर खैनी खाता मिले तो उससे कहना अबके होली मार्च को फिर आ रही है। इधर-उधर से फ़ुर्सत मिले तो हमारे मुहल्ले में अबके होली पर ज़रूर आना। हम तुम्हारा पता नहीं कबसे हर होली को पलकें बिछाए इंतज़ार कर रहे हैं कि तुम आओ तो रंग में जमकर भंग पड़े, गंद पड़े। 

“बड़े साल हो गए होली के समापन पर तुम्हारे बिना। तुम्हारे बिना होली की एंडिंग कंबख्त एंडिंग ही नहीं लगती। हर त्योहार पूरे जश्न से मनाने के बाद भी अंत में जो मारधाड़ न, हो हल्ला-गुल्ला न हो, फ़ायरिंग-वायरिंग न हो तो त्योहार के जश्न का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है। गुझिया, भाँग का घोटा गंगाजल सा लगता है। सारे चमचमाते रंग सड़े-सड़े लगते हैं।”

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