सूधो! गब्बर से कहियो जाय
डॉ. अशोक गौतम
सरकारी नौकरी के बाद ये सरकारी क्वार्टर का चस्का होता ही मुआ ऐसा है भाई साहब! कुत्ते की हड्डी सा। मिलने के बाद न छोड़ा जाए, न रखा जाए। मेरी तरह जैसे-तैसे सरकारी नौकरी मिलने के बाद जब तक इसे-उसे सरकारी र्क्वाटर नहीं मिल जाता, ऑफ़िस के सारे काम छोड़ यह-वह सरकारी क्वार्टर के लिए दिन-रात हाथ पाँव मारता रहता है। और जैसे ही इसे उसे सरकारी क्वार्टर मिल जता है तो उस पर अपना अधिकार यों जमा लेता है ज्यों वह सरकारी क्वार्टर सरकारी न होकर उसका ख़ानदानी क्वार्टर हो। तब यह-वह उसके लिए वह अपना तबादला रुकवाने के लिए तब तक एड़ी चोटी का ज़ोर लगाता रहता है जब तक उसकी एड़ियों में ज़ोर बचा रहता है। कई बार तो उसके लिए वह हँसते-हँसते अपनी प्रोमोशन तक लात मार देता है, भले ही बाद में पता चले कि यार इस लात मारी में तो उसका पाँव ही टूट गया।
एक बार जो किसी सरकारी नौकर के हत्थे जैसे-कैसे सरकारी क्वार्टर चढ़ जाए तो . . . नाम का किराया कटाया और चौबीसों घंटे सरकारी मकान अलॉट करने वालों के सिर पर बेताल की तरह सवार हुए रहे कभी नलका बदलवाने के लिए तो कभी क्वार्टर में रंग-रोगन करवाने के लिए। कभी बिजली का बल्ब बदलवाने के लिए तो कभी . . . क्या मजाल जो कभी उस सरकारी क्वार्टर पर कोई अपनी दमड़ी भी लगाए। क्यों लगाए जनाब! सरकारी है। कौन-सा अपना है। इसलिए और दायित्वों की तरह सरकार का यह भी नैतिक दायित्व है कि वह अपने कर्मचारी को भी चकाचक रखे और उसको दिए क्वार्टर को भी। हम तो जब सरकार ही कुछ नहीं करते तो उसके सरकारी क्वार्टर का भी कुछ क्यों करें? उसकी खिड़कियों पर घास उग आए तो उग आए। घास ही क्यों, उसकी दीवारों पर मेरी बला से पेड़ उग आएँ। कौन-सा अपना है? हाउस रेंट कटवाते हैं ठुक से हर महीने पगार हाथ में लेने से पहले। इसलिए उसकी गिरती ईंटें ठीक हम क्यों करवाएँ? टूटते दरवाज़े हम क्यों ठीक करवाएँ? इन सबके बारे में सरकार जाने और उसका सरकारी आवास महकमा जिसके कुशल देख-रेख में ज्यों-ज्यों सरकारी आवास गिर रहे हैं महकमे वालों के त्यों-त्यों मंज़िल दर मंज़िल ऊपर चढ़ रहे हैं।
इधर मैं भी विगत गुज़रे सरकारी भाइयों की तरह सरकारी क्वार्टर का सुख भोगता गले में स्टाफ़ फ़ंड की फूल मालाएँ डलवाए सरकारी नौकरी से रिटायर हुआ तो अपने गले से कुछ रिटायरमेंट वाली ठीक-ठीक मालाएँ निकाल सँभाल रख लीं जाने वाले कल के लिए। क्या पता, जाने वाले कल क्या हो? मालाएँ अपने पास होंगी तो उन्हें मुझ पर मेरे घर वाले डाल तो देंगे। मेरी हमदर्दी के लिए न सही तो न सही, अपनी शर्म के लिए ही सही।
दोस्तो! अब मैं जाते-जाते कम से कम इन उन पर भार बनना नहीं चाहता। सरकारी नौकरी में रहते मैं घरवालों, काम करवाने वालों पर बहुत भारी रहा। रिटायरमेंट के बाद अब मैं सब पर डाले भार का प्रायश्चित करना चाहता हूँ। रिटायरमेंट के बाद इधर मैं सो रहा हूँ तो उधर मेरी लंबे समय से सोई आत्मा जाग रही है। कोई ज्ञानी हो तो बताए प्लीज़! वक़्त निकल जाने के बाद ही ये आत्मा क्यों जागती होगी?
रिटायर होने के बाद अगली सुबह सरकारी क्वार्टर में दस बजे बाँग देता उठा तो पता चला, “अरे यार! मेरे पास सरकार का मारा और तो सबकुछ है, पर अपना घर नहीं।” तब पता नहीं क्या सोचते छह महीने और खींच-खांचकर सरकारी क्वार्टर का दुरुपयोग करता रहा। जब विभाग से क्वार्टर ख़ाली करने का फ़ाइनल नोटिस आया तो नोटिस देने वालों को गालियाँ देते सरकारी क्वार्टर ख़ाली करना ही पड़ा। न करता तो किराया कर्मिशयल रेट पर काटते पेंशन में से कंबख्त!
आह रे सरकारी क्वार्टर! वाह रे मुझे सरकारी क्वार्टर ख़ाली करने को नोटिस पर नोटिस देने वाले कभी मेरे जिगरी दोस्त रहे धूर्तो! ख़ुद शापित मैं तुम्हें श्राप देता हूँ—तुम्हें कभी भी सरकारी क्वार्टर न मिले। तुम चाहे कितना ही ज़ोर क्यों न मार लो! पुश-पाश लड़ा लगा मिल ही जाए तो मेरी बद्दुआ! वह हफ़्ते भर में तुमसे छिन जाए। तुम प्राइवेट क्वार्टर में आ जाओ। जहाँ हफ़्ते-हफ़्ते बाद पानी आता हो। जहाँ दिन हर पल मकान मालिक सिर पर भूत की तरह बैठा रहे। वह तुम्हें न चैन से वहाँ रहने दे, न वहाँ से दुखी होकर जाने दे।
कभी हम-निवाला हम-प्याला रहे जिगरियों को श्राप देते-देते जब मैं थक गया तो लगा, यार! बहुत हो लिया अपने दोस्तों को रिटायरमेंट के बाद ये गाली-गलौच! भलाई इसी में है कि अपनी कुटिया अब कहीं न कहीं तो बना ही ली जाए। बहुत मौज-मस्ती कर ली सरकारी मकान में रहते। हे सरकारी मकान! ख़ुदा क़सम! सच कहता हूँ, तुम अपनी कुटिया बन जाने के बाद भी बहुत याद आओगे! पहले सोचा फ़्लैट ले लूँ। पर सबने सलाह दी, ज़मीन लो। कम से कम तब पाँव के नीचे अपनी ज़मीन तो होगी।
अपने पाँव के नीचे ज़मीन के चक्कर में प्रॉपर्टी डिलर से डील कर प्लॉट इस मुहल्ले में ले लिया गया। सबने कहा, शहर का सबसे शांत मुहल्ल्ला है। मेरे पड़ोस को छोड़ कर। आजकल उसी इधर-उधर वालों की ज़मीन मारे प्लॉट पर दस कमरों वाली डुप्लेक्स कुटिया का निर्माण करवा रहा हूँ।
आजकल इसी कुटिया के लिए शुद्ध ऑर्गेनिक मैटेरियल हेतु भाग दौड़ ज़ोरों पर है ताकि बची ज़िन्दगी ऑर्गेनिक की गोद में लेट चैन से जी सकूँ।
इसी सिलसिले में कल ऑर्गेनिक ईंटें लाने रामगढ़ जा रहा था ट्रक वाले के साथ ही ट्रक में ही। जब तक सरकारी नौकरी में रहा, शौच भी सरकारी गाड़ी में ही गया। क्योंकि तब पीठ सरकार की थी। रिटायर होने के बाद अब जेब मेरी है। इसलिए टॉयलेट-शीट तक असली नाक से दस-दस बार सूँघ-सूँघ कर ला रहा हूँ। सरकारी सप्लाई की तरह नहीं कि जो आया हाथ बिछा चला लिया। कि पड़ोसी भाई साहब ने अचानक बिल्ली की तरह रास्ता काटते पूछा, “कहाँ जा रहे हो रिटायर टैक्स विभागिए?”
“कुटिया के लिए ऑर्गनिक ईंटें लाने रामगढ़ जा रहा हूँ भाई साहब! सुना है, सब कुछ बनाने के लिए इस शहर में रामगढ़ की ईंटें ही सौभाग्यशाली मानी जाती हैं,” मैंने ज्यों ही रामगढ़ का नाम लिया तो उनका सूखा चेहरा गुलाल हो गया।
“रामगढ़?”
“हाँ भाई साहब! आप भी मेरे साथ चलोगे तो ईंटें लाने वाले ट्रक में सफ़र कहते-सुनते आराम से कट जाएगा!”
“नहीं यार! अभी तो घर के बीसियों काम पड़े हैं। पर तुम रामगढ़ जा रहे हो तो मेरा एक काम करना!”
“आपको भी ईंटें लानी हैं क्या पड़ोसी की ज़मीन पर शौचालय बनाने के लिए?”
“नहीं बंधु! रामगढ़ जाते-जाते कहीं गब्बर खैनी खाता मिले तो उससे कहना अबके होली मार्च को फिर आ रही है। इधर-उधर से फ़ुर्सत मिले तो हमारे मुहल्ले में अबके होली पर ज़रूर आना। हम तुम्हारा पता नहीं कबसे हर होली को पलकें बिछाए इंतज़ार कर रहे हैं कि तुम आओ तो रंग में जमकर भंग पड़े, गंद पड़े।
“बड़े साल हो गए होली के समापन पर तुम्हारे बिना। तुम्हारे बिना होली की एंडिंग कंबख्त एंडिंग ही नहीं लगती। हर त्योहार पूरे जश्न से मनाने के बाद भी अंत में जो मारधाड़ न, हो हल्ला-गुल्ला न हो, फ़ायरिंग-वायरिंग न हो तो त्योहार के जश्न का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है। गुझिया, भाँग का घोटा गंगाजल सा लगता है। सारे चमचमाते रंग सड़े-सड़े लगते हैं।”
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- रावण ऐसे नहीं मरा करते दोस्त
- शर्मा एक्सक्लूसिव पैट् शॉप
- अंधास्था द्वारे, वारे-न्यारे
- अंधेर नगरी फ़ास्ट क़ानून
- अजर अमर वायरस
- अतिथि करोनो भवः
- अपने गंजे, अपने कंघे
- अब तो मैं पुतला होकर ही रहूँगा
- अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा
- अमृत अल्कोहल दोऊ खड़े . . .
- असंतुष्ट इज़ बैटर दैन संतुष्ट
- अस्पताल में एक और आम हादसा
- आज्ञाकारी पति की वाल से
- आदमी होने की ज़रूरी शर्त
- आदर्श ऑफ़िस के दरिंदे
- आश्वासन मय सब जग जानी
- आसमान तो नहीं गिरा है न भाई साहब!
- आह प्रदूषण! वाह प्रदूषण!!
- आह रिटायरी! स्वाहा रिटायरी!
- इंस्पेक्टर खातादीन सुवाच
- उठो हिंदी वियोगी! मैम आ गई
- उधार दे, कुएँ में डाल
- उनका न्यू मोटर वीइकल क़ानून
- उफ़! अब मेरे भी दिन फिरेंगे
- एक और वैष्णव का उदय
- एक निगेटिव रिपोर्ट बस!
- एक सार्वजनिक सूचना
- एप्पों की पालकी! जय कन्हैया लाल की!
- ऐन ऑफ़िशियल प्लांटेशन ड्राइव
- ऑफ़िस शोक
- ओम् जय उलूक जी भ्राता!
- कंघीहीन भाइयों के लिए ख़ुशख़बरी!
- कवि की निजी क्रीड़ात्मक पीड़ाएँ
- काम करे मेरी जूत्ती
- कालजयी का जयंती लाइव
- कालजयी होने की खुजली
- कुक्कड़ का राजनीतिक शोक
- कुछ तीखा हो जाए
- कुशल साहब, ग़ुसल लाजवाब
- केवल गाँधी वाले आवेदन करें
- क्षमाम्! क्षमाम्! चमचाश्री!
- खानदानी सांत्वना छाप मरहमखाना
- गधी मैया दूध दे
- गर्दभ कैबिनेट हेतु बुद्धिजीवी विमर्श
- चमचा अलंकरण समारोह
- चरणयोगी भोग्या वसुंधरा
- चला गब्बर बब्बर होने
- चार्ज हैंडिड ओवर, टेकन ओवर
- चुनाव करवाइए, कोविड भगाइए
- छगन जी पहलवान लोकतंत्र की रक्षा के अखाड़े में
- जनतंत्र द्रुत प्रगति पर है
- जाके प्रिय न बॉस बीवेही
- जी ज़नाब का मिठाई सेटिंग दर्शन
- जैसे तुम, वैसे हम
- जो सुख सरकारी चौबारे वह....
- ज्ञानपीठ कोचिंग सेंटर
- टट्टी ख़त्म
- ट्रायल का बकरा मैं मैं
- ट्रिन.. ट्रिन... ट्रिन... ट्रिन...
- ठंडी चाय, तौबा! हाय!
- ठेले पर वैक्सीन
- डेज़ी की कमर्शियल आत्मकथा
- डोमेस्टिक चकित्सक के घर कोराना
- तीसरे दर्जे का शुभचिंतक
- त्रस्त पतियों के लिए डायमंड चांस
- त्रासदी विवाहित इश्क़िए की
- दंबूक सिंह खद्दरधारी
- दीर्घायु कामना को उग्र बीवी!
- धुएँ का नया लॉट
- न काहू से दोस्ती, न काहू की ख़ैर
- नंगा सबसे चंगा
- नई नाक वाले पुराने दोस्त
- नमः नव मठाधिपतये
- नशा मुक्ति केंद्र में लेखक
- नो कमेंट्स प्लीज!
- नक़लं परमं धर्मम्
- पधारो म्हारे मोबाइल नशा मुक्ति धाम
- परसाई की पीठ पर गधा
- पशु-आदमी भाई! भाई!
- पहली बार मज़े
- पार्टी सौभाग्य श्री की तलाश
- पावर वालों का पावरफ़ुल कुत्ता
- पुरस्कार पाने का रोडमैप
- पुरस्कार रोग से लाचार और मैं तीमारदार
- पुल के उठाले में नेता जी
- पेपर लीकेज संघ ज़िंदाबाद!
- पैदल चल, मस्त रह
- पोइट आइसोलेशन में है वसंत!
- पोलिंग की पूर्व संध्या पर नेताजी का उद्बोधन
- फिर हैप्पी इंडिपेंडेंस डे
- फोटुओं और कार्यक्रमों का रिश्ता
- बंगाली बाबा परीक्षक वशीकरण वाले
- बधाई हो बधाई!!
- बाबा के डायपर और ऑफ़िस में हाइपर
- बुद्धिजीवी मेकर
- बूढ़ों के लिए ख़ुशख़बरी!
- बेगम जी के उपवास में ख़्वारियाँ
- बैकुंठ में जन्म लेती कुंठाएँ
- ब्लैक मार्किटियों की गूगल मीट
- भगौड़ी बीवी और पति विलाप
- भाड़े की देशभक्ति
- भोलाराम की मुक्ति
- मंत्री जी इंद्रलोक को
- मच्छर एकता ज़िंदाबाद!
- मातादीन का श्राप
- मातादीनजी का कन्फ़ैशन
- माधो! पग-पग ठगों का डेरा
- मार्जन, परिमार्जन, कुत्ता गार्जियन
- मालपुआमय हर कथा सुहानी
- मास्टर जी मंकी मोर्चे पर
- मिक्सिंग, फिक्सिंग और क्या??
- मुहब्बत में राजनीति
- मूर्तिभंजक की मूर्ति का चीरहरण
- मेरी किताब यमलोक पहुँची
- मेरे घर अख़बार आने के कारण
- मॉर्निंग वॉक और न्यू कुत्ता विमर्श
- मोबाइल लोक की जय!
- यमराज के सुतंत्र में गुरुजी
- यान के इंतज़ार में चंद्र सुंदरी
- राइटरों की नई राइटिंग संहिता
- राजनीतिक निवेश में ऐश ही ऐश
- रामदास, ठंड और बयानू सिकंदर
- रिटायरमेंट का मातम
- रिटायरियों का ओरिएंटेशन प्रोग्राम
- रैशनेलिटि स्वाहा
- लिंक बनाए राखिए . . .
- लिटरेचर फ़र्टिलिटी सेंटर
- लो, कर लो बात!
- वदाइयाँ यार! वदाइयाँ!
- विद द ग्रेस ऑफ़ ऑल्माइटी डॉग
- विनम्र श्रद्धांजलि पेंडिंग-सी
- वीवीआईपी के साथ विश्वानाथ
- वैक्सीन का रिएक्शन
- वैष्णवी ब्लड की जाँच रिपोर्ट
- व्यंग्य मार्केटिंग में बीवियाँ
- शर्मा जी को कुत्ता कमान
- शुभाकांक्षी, प्यालीदास!
- शेविंग पाउडर बलमा
- शोक सभा उर्फ टपाजंलि समारोह
- सजना है मुझे! हिंदी के लिए
- सम्मान लिपासुओं के लिए शुभ सूचना
- सम्मानित होने का चस्का
- सर जी! मैं अभी भी ग़ुलाम हूँ
- सरकार का पुतला ज़िंदाबाद!
- सर्व सम्मति से
- सामाजिक न्याय हेतु मंत्री जी को ज्ञापन
- साहब और कोरोना में खलयुद्ध
- साहित्य में साहित्य प्रवर्तक अडीशन
- सूधो! गब्बर से कहियो जाय
- सॉरी सरजी!
- स्टेट्स श्री में कुत्तों का योगदान
- स्याही फेंकिंग सूची और तथाकथित साली की ख़ुशी
- स्वर्गलोक में पारदर्शिता
- हँसना ज़रूरी है
- हम हैं तो मुमकिन है
- हाथ जोड़ता हूँ तिलोत्तमा प्लीज़!
- हादसा तो होने दे यार!
- हाय! मैं अभागा पति
- हिंदी दिवस, श्रोता शून्य, कवि बस!
- हिस्टॉरिकल भाषण
- हैप्पी बर्थडे टू बॉस के ऑगी जी!
- ख़ुश्बू बंद, बदबू शुरू
- ज़िंदा-जी हरिद्वार यात्रा
- ज़िम्मेदारों के बीच यमराज
- फ़र्ज़ी का असली इंटरव्यू
- फ़ेसबुकोहलिक की टाइम लाइन से
- फ़्री का चंदन, नो चूँ! नो चाँ नंदन!
- फ़्री दिल चेकअप कैंप में डियर लाल
- कविता
- पुस्तक समीक्षा
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-