न काहू से दोस्ती, न काहू की ख़ैर

01-01-2024

न काहू से दोस्ती, न काहू की ख़ैर

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 244, जनवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

लोगों की कुत्ते से लेकर दोस्त रखने की भी अपनी-अपनी ज़रूरतें हैं, अपनी-अपनी सहूलियतें हैं। बहुत कम ऐसे होंगे जो दोस्त केवल दोस्ती के लिए रखते हैं। समझदार दोस्तियाँ रखने वाले भली-भाँति जानते हैं कि क्या पता कब जैसे कहाँ किस दोस्त को यूज़ करने की ज़रूरत पड़ जाए। इसलिए उनकी बराबर कोशिश रहती है कि वे अपने लिए सहायता की सम्भावनाओं के मद्देनज़र दोस्ती करें। वैसे आजकल की दोस्ती यूज़ एंड थ्रो की बुनियाद पर टिकी है। यह दूसरी बात है कि कई बार समझदार चाय पिला चुके डिस्पोज़ेबल कप में भी दूसरी बार चाय मज़े से पिला देते हैं। 

पर मेरे हिसाब से बहुत समझदार हैं वे जो दोस्त ज़रूरतों के हिसाब से रखते हैं। रखने भी चाहिएँ। आदमी को और कहीं न सही तो न सही, पर दोस्तों के हिसाब से तो समझदार हो ही लेना चाहिए। जिन दोस्तों का कहीं उपयोग, उपभोग होने की सम्भावना शून्य हो, ऐसे दोस्तों को क्या रखना! क्यों रखना! वे दोस्ती के नाम पर भार होते हैं। 

मैंने अपने जीने के लिए दोस्त सँभाल कर रखें हो या न, पर मरने के लिए दो चार दोस्त ज़रूर बचाकर या बनाकर आप जो भी अपने हिसाब से समझना चाहें, समझ लीजिए, रखे थे। मेरा विचार था कि जीने में दोस्तों की ज़रूरत पड़े या न, पर मरने के वक़्त दोस्तों की ज़रूरत पड़ती ही है। और दोस्त वही अच्छे जो दोस्त के मरने पर कन्नी न काटें, उसकी अर्थी बनाने को बाँस काटें। उसके घरवालों से उसके मरने के पल पल के अपडेट लेते रहें। 

ज़िन्दगी में दोस्तों को ठसाठस भरने वालों को बुरा तो लगेगा, पर मेरे हिसाब से इतने दोस्त भी नहीं होने चाहिएँ कि वे आपसे मिलें तो आप उनको पहचान ही न पाएँ और फिर मिनटों अपना सिर खुजलाते रहें, यह सोचते हुए कि यार! बंदे को देखा तो ज़रूर है, पर कहाँ देखा होगा? और फिर रो-पीट कर उसे ही आपको बताना पड़े कि हम भी तुम्हारे दोस्त हैं यार! ऐसा होने पर आपका सिर शर्म से तो नहीं झुकेगा, पर अपने को आपका दोस्त कहने वाले का सिर शर्म से ज़रूर झुक जाएगा। 

वैसे दोस्तों के सिर झुकने-झुकाने में जो मज़ा आता है उसकी किसी भी तरह के मज़े के साथ तुलना नहीं की जा सकती। पर मैं नहीं चाहता कि मेरे सामने मेरे किसी दोस्त को सिर झुकाने की नौबत आए। इसलिए मैंने लिमिटिड-से दोस्त रखे हैं ताकि मैं उन्हें सोया-सोया भी पहचानता रहूँ। वैसे आजकल ऐसे बेहूदा दोस्त बहुत कम बचे हैं जो बिन आपका नंबर सेव किए आपका फोन उठातेे ही आपकी आवाज़ भर से ही पहचान जाएँ कि न कहने के बाद भी आपकी उनको सख़्त ज़रूरत है। शेष दोस्त ज़रूरत पड़ने पर क़िस्मत से काम आ जाएँ तो बहुत ही अच्छा, और न आएँ तो उससे भी अच्छा। 

दोस्तों को ज़्यादा याद रखने के पचड़े में मैं नहीं पड़ता। मेरे लिए याद रखने के लिए यही क्या कम है कि मेरे जीमेल अकाउंट का पासवर्ड क्या है। मेरे लिए याद रखने के लिए यही क्या कम है कि मेरे फ़ेसबुक अकाउंट का पासवर्ड क्या है। मेरे लिए याद रखने के लिए यही क्या कम है कि मेरे योनो का पासवर्ड क्या है। मेरे लिए याद रखने के लिए यही क्या कम है कि मेरे लिंक्डइन का पासवर्ड क्या है। मेरे लिए याद रखने के लिए यही क्या कम है कि मेरे पेंशन अकाउंट का पासवर्ड क्या है। मेरे लिए याद रखने के लिए यही क्या कम है कि मेरे एटीएम कार्ड का पासवर्ड क्या है। मुझे अब घर की ज़रूरतें उतनी परेशान नहीं करतीं जितने ये पासवर्ड करते हैं। अब तो कई बार लगता है कि कल को जो मैं रात को सोने के बाद अगली सुबह उठने का पासवर्ड भूल गया तो शायद उठ ही न पाऊँ। 

मैं जीते जी तो जला ही जला, वह भी समस्याओं की गीली लकड़ियों पर। वैसे गीली लकड़ियों पर मज़े-मज़े से जलने में जो मज़ा है, वह सुख की सूखी लकड़ियों पर कहाँ? पर मैं यह भी नहीं चाहता कि मैं मरने के बाद आख़िरी बार जल जलने के सारे झंझटों से मुक्त होने का मचल रहा होऊँ और उधर मेरे दोस्त आपस में तय न कर पा रहे हों कि उनमें से पहले मेरी अर्थी को कंधा कौन देगा? सबमें दोस्ती का आख़िरी हक़ अदा करने की पीछे हटने की होड़ लगी हो। और मैं इसी होड़ा-होड़ी में अर्थी पर एक दूसरे के कंधे के जाने के लिए एक दूसरे के कंधे का टुकुर-टुकुर इंतज़ार करता रहूँ। 

गधे से गधा आदमी चार दोस्त किसलिए उनसे लाख जूते खाने के बाद भी सहेज कर रखता है? लास्ट टाइम के लिए ही न! इसलिए मैंने अपने जीने के लिए दोस्त बचाकर रखे हों या न, पर अपने मरने पर इतने की दोस्त बचाकर ज़रूर रखे थे जो मेरे न चाहने के बाद भी मेरे मरने पर मेरी अर्थी को कंधा देने के लिए उनकी मजबूरियों में भी ज़रूरी हों। यह बात दीगर है कि जब दोस्त मरता है और उसके मरने की ख़बर जब दोस्तों को पहुँचती है तो वे अपने को अचानक बहुत व्यस्तताओं में पाते हैं। अब व्यस्त हैं तो क्या हो सकता है? किसीके दुःख में शामिल होने के हमारे पास विकल्प ही विकल्प होते हैं। अभी नहीं तो उठाले में जा आएँगे। उसके मरने के बाद हमारे उसे श्मशान तक छोड़ आने के बाद वह कौन-सा लौट आएगा? लौट आया तो बात बात पर तंग करना छोड़ देगा। असल में जो दोस्त जीते जी तंग करते हैं, वे मरने के बाद भी तंग करते रहते हैं। उन्हें दोस्तों को तंग करने की लत जो लगी होती है। पर उम्मीद पर ही संसार टिका है। मैं भी टिका हूँ। 

पर जबसे शहर में ज़िन्दा आदमी को दवा की सुविधा न मिलने के के बाद अब उसके शव को श्मशान घाट तक ले जाने की सरकारी सुविधा मिलने लगी है तो मेरे जैसे कई मरने वालों ने राहत की साँस ली है। अब चार दोस्तों के कंधों से भी मुक्ति मिली। वर्ना अपने मरने पर करवाते रहो अपने नाक पर रूमाल रखे रिश्तेदारों से इस उस दोस्त को फोन पर फोन। ज़िन्दा जी तो मज़ाक़ के बहाने मुँह के सामने दोस्तों की गालियाँ सुनी ही सुनी, पर अब मरने के बाद कम से कम दोस्तों की गालियाँ सुनने से तो बचे। 

शव वाहन की सुविधा मिल जाने के बाद अब मैं अपने गिनती के अपनी अंतिम यात्रा को सहेज कर रखे दोस्तों की ओर से भी अब विमुख होने लगा हूँ। अपने अंतिम समय के लिए सहेज कर रखे दोस्तों से अब निवदेन है कि वे चाहें तो मुझसे दोस्ती बनाए रख सकते हैं। मेरी सहृदयता, सदाशयता को वे अन्यथा न लें प्लीज़! केवल इसे सरकारी शव वाहन की सुविधा का तक़ाज़ा समझें।

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