सर्व सम्मति से
डॉ. अशोक गौतमसाहब जैसे ही अपने नए-नवेले विदेशी डॉगी को पंडित जी से शुभ मुहूर्त निकलवा अपने साथ ऑफ़िस लाए तो उसके दर्शनार्थ ऑफ़िस के कर्मचारियों की भीड़ ऐसे उमड़ पड़ी मानों उन्होंने विदेशी नस्ल का डॉगी पहली बार देखा हो। कुछ स्टाफ़ मेंबर डॉगी को ऐसे घूर रहे थे जैसे वे चुप रहने के बाद भी कहना चाह रहे हों कि जब हम ऑफ़िस में डॉगी से अधिक वफ़ादार रहे हैं तो ऐसे में साहब को एक और डॉगी लाने की क्या ज़रूरत थी? क्या साहब का अपने देश के डॉगियों से मोह भंग हो गया? या फिर साहब को स्वदेशी वफ़ादारों में खोट नज़र आने लगा है। पर साहब को याद रखना चाहिए कि देशी-देशी, विदेशी-विदेशी। स्वदेशी तो काटकर भी अस्पताल इंजेक्शन लगवाने ले जाता है,चाहे शर्म का ही सही।
कुछ ने साहब को मन से तो कुछ ने मन न होने पर भी विदेशी डॉगी के साक्षात् दर्शन कराने पर बधाई दी तो साहब ने सबको अपने कमरे में इस ख़ुशी के मौके पर चाय पिलाई।
साहब के कमरे में चाय पीते-पीते सब अपनी-अपनी बची-खुची सोच को नया रूप देते रहे। कुछ ने मन से साहब के विदेशी डॉगी को पुचकारा तो कुछ ने उसे मन ही मन दुत्कारा। पर डॉगी ने किसी को कुछ रिसपांस नहीं दिया। पहली बार वह देशी साहब के अधीनस्थों से जो मिल रहा था। उसे भी लगा कि दो-चार दिन की ही तो बात है। उसे सब पता चल जाएगा कि साहब की तरह उसे किसके साथ रहना है और किसके साथ नहीं।
जो किसी भी तरह से साहब के विश्वासपात्र न हो सके थे, उन्हें साहब के डॉगी के बहाने साहब का क़रीबी होने की एक बार फिर उम्मीद जगी। उन्हें लगा कि साहब को तो वे अपनी वफ़ादारी के सबूत दे नहीं पाए, अब भगवान ने उनके ऑफ़िस में डॉगी और वह भी विदेशी भेज उन्हें डॉगी के माध्यम से साहब का वफ़ादार होने का एक मौक़ा और दिया है। और जो उनमें ज़रा सी भी अक्ल शेष बची हो तो उन्हें इस मौक़े का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहिए।
जो पहले से ही साहब के क़रीबी थे उन्हें कुछ अधिक सोचने की ज़रूरत न थी। उन्हें तो तय था कि साहब अपनी तरह डॉगी का लंगोटी से रोटी तक का मौक़ा शर्तिया उन्हें ही देंगे।
जब खोजी वर्मा जी को इस बात की भनक लगी कि वे ही डॉगी पर भी अपना पुश्तैनी हक़ मान बैठे हैं जो साहब पर पहले से अपना पुश्तैनी हक़ जमाए हैं, तो वे हाँफते हुए स्टाफ़ सचिव के पास आ बोले, "शर्मा जी! ये तो बिलकुल ग़लत बात है। ये नहीं चलेगा। आप स्टाफ़ सचिव हो। साहब से बात करो वरना...."
"आख़िर बात क्या है वर्मा जी? ऑफ़िस में अब क्या नहीं चलेगा?"
"देखो न! सुनने में आया है कि साहब के डॉगी के क़रीब भी वही होने की पूरी तैयारी में हैं जो साहब के नज़दीक हैं। ऐसे में दूसरों के साथ सरासर अन्याय होगा कि नहीं? साहब सेवा के लड्डू सबको बराबर नहीं तो कुछ तो मिलने ही चाहिएं। ये कैसा समाजवाद है आपका? वे भी तो साहब के नज़दीक आने का हक़ रखते हैं। वे भी तो इसी दफ़्तर में हरामपना करते हैं। अगर मैं ग़लत बोल रहा हूँ तो कहो? साहब चंद लोगों के हैं या सबके?"
तब स्टाफ़ सचिव ने कुछ देर सोचने के बाद कहा, "है तो ठीक पर......"
"पर क्या? कहीं आप भी साहब के साथ तो नहीं हो गए?"
"नहीं यार! ऐसा कुछ नहीं! मैं तो पहले उनके साथ हूँ जिन्होंने मुझे स्टाफ़ सचिव बना स्टाफ़ फंड में से खाने का मौक़ा दिया है।"
"तो फिर एक मीटिंग की जाए अभी के अभी। और उसमें यह तय हो जाए कि किस दिन कौन साहब के डॉगी को ऑफ़िस टाइम में घुमाने ले जाएगा और कौन उसे पोटी कराने। मुझे तो डर है कि....," कह वे गंभीर हुए तो स्टाफ़ सचिव ने उन्हें सांत्वना देते कहा, "देखो दोस्त! देश में अभी लोकतंत्र बचा है। वे दिन इस देश में अभी नहीं आए कि जो जिसकी मर्ज़ी करे, वह वह करे। चमचागिरी की भी हद होती है। मेरे स्टाफ़ सचिव होते हुए ऑफ़िस में ग़लत होने की कभी कल्पना तक न करना।"
"पर साहब कहे देते हैं जो ऐसा हुआ तो.....हमसे बुरा कोई न होगा। ऐसा हुआ तो हम अपने हक़ के लिए ऑफ़िस में ख़ून की नदियां बहा देंगे।"
"तो लो, अभी स्टाफ़ मीटिंग कर लेते हैं," कह स्टाफ़ सचिव ने टेबुल की दराज़ में से स्टाफ़ की लिस्ट निकाली और उसमें लिख दिया कि दो बजे स्टाफ़ की बैठक है। सभी कर्मचारियों का इसमें आना ज़रूरी है।"
नोटिस नोट करने के बाद सभी स्टाफ़ मेंबर रूम में ठीक दो बजे आ गए। जब साहब के पालतू नहीं आए तो वर्मा जी का माथा खनकने लगा। कुछेक को लगा कि उनके मन में जिस बात को लेकर शंका थी, वह सच निकली। पर तभी वे आ गए तो कइयों की जान में जान आई।
"तो आज की बैठक का मुद्दा है कि.... हम चाहते हैं कि साहब पर भले ही कुछ लोगों का हक़ रहा हो पर उनके डॉगी पर पूरे स्टाफ़ का हक़ बनता है ताकि विदेशी डॉगी को भी लगे कि हम सब एक न होने के बाद भी एक हैं। विदेशी डॉगी के सामने ऐसी एकता का प्रदर्शन देश हित में है। ऐसा होने से विदेशों में यह मैसेज जाएगा कि..."
"तो??"
कुछ देर तक गंभीर होने के बाद स्टाफ़ सचिव ने कहा, "स्टाफ़ सचिव होने के नाते मेरी राय है कि साहब के डॉगी की सेवा पानी हर रोज़ एक-एक जना बारी-बारी करे।"
"मतलब?"
"मेरा मतलब ये कि साहब के डॉगी की सेवा करने में सबको समान तरजीह दी जाए ताकि डॉगी को लगे कि साहब एक-दो से नहीं, सबसे प्रेम करते हैं।"
"तो…?" साहब के एक ख़ास ने गुस्साए जलते हुए पूछा तो स्टाफ़ सचिव ने झेंपते हुए कहा, "तो ऑफ़िस की सिनियोरिटी लिस्ट के हिसाब से सबको बराबर साहब के डॉगी को सारा दिन घुमाने से लेकर दूसरे सारे काम करने का अवसर लोकतांत्रिक तरीक़े से मिलेगा। पाँच बजे के बाद जिसे साहब के घर जाकर डॉगी के लिए जो करना हो, वे करते रहें, वे आज़ाद हैं। इसमें स्टाफ़ को कोई आपत्ति नहीं। मंजूर?"
"महिलाओं को प्राथमिकता कोई नहीं?"
"नहीं! डॉगी की नज़रों में सब समान होते हैं। मंजूर?"
दो-तीन को छोड़ सबने तालियाँ बजाते कहा, "मंजूर!" पहली बार देश में कोई प्रस्ताव एकमत करतल ध्वनि के बीच पास हुआ तो स्टाफ़ सचिव ने पूछा, "कल किसकी बारी है डॉगी की सेवा- सुश्रुषा की?" उनके पूछने पर सीना फुलाए गुप्ता जी ने सबके आगे खड़े हो ऐसे कहा मानों कल वे अपने पुरखों की सेवा का पुण्य लूटने जा रहे हों, "मेरी!" उस वक़्त उनकी आँखों की चमक ओर निचुड़े चेहरे की दमक देखने लायक़ थी।
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