फिर हैप्पी इंडिपेंडेंस डे
डॉ. अशोक गौतमलीजिए, फिर एक और इंडिपेंडेंस डे का प्रोग्राम शुरू हो गया। बिजली बीच-बीच में आ जा रही है। मुझे बिजली और बिजली वालों पर पर ग़ुस्सा आ रहा है तो बीवी को केवल मुझ पर। उसके विचार में, जब मैं इंडिपेंडेंट हूँ ही नहीं तो क्या ज़रूरत है इंडिपेंडेंस डे का प्रोग्राम देखने की? क्यों मैं यह सब कर अपना बेकार का समय और बेकार कर रहा हूँ? इसके बदले उसके हिसाब से तो यही बेहतर है कि घर के काम समय पर ख़त्म करूँ, फिर आराम करूँ। प्रोग्राम देखने भर से कोई इंडिपेंडेंट हो पाया है क्या आज तक? यह सच मैं भी जानता हूँ और वह भी। पर हर बार इस प्रोग्राम को देखना मेरी मजबूरी है और प्रोग्राम को देखने पर गालियाँ देना उसकी। मैं इंडिपेंडेंस डे का प्रोग्राम देखने को इसलिए भी मजबूर हूँ, क्योंकि और सारा साल मेरा कोई अधिकार हो या न पर, इंडिपेंडेंस और रिपब्लिक डे का प्रोग्राम देखना मेरा कम से कम उस दिन का जन्मसिद्ध अधिकार है।
वैसे जबसे हम इंडिपेंडेंट हुए हैं, देश में सभी तो हँसते-हँसते एक दूसरे पर ग़ुस्सा कर ही दिन काट रहे हैं। सरकार हँसते-हँसते विपक्ष पर ग़ुस्सा निकाल देश चाट रही है तो विपक्ष हँसते-हँसते सरकार पर ग़ुस्सा निकाल जनता से पीने को पानी माँग रहा है। बेटा हँसते-हँसते बाप पर ग़ुस्सा निकाल जवान हो रहा है तो बाप हँसते-हँसते बेटे पर ग़ुस्सा निकालते-निकालते बूढ़ा हो रहा है। हँसत-हँसते बीवी का अपना ही ग़ुस्सा है। देशभक्त क़िस्म के जीव वज़ह बेवज़ह हँसत-हँसते अपने पड़ोसी देशों पर ग़ुस्से हैं। वे हँसते-हँसते जानते हैं कि जिस दिन जनता को उनके चेहरे पर ग़ुस्से के ताव नहीं दिखेंगे उस दिन वह उन्हें भाव देना बंद कर देगी।
दिल्ली से इंडिपेंडेंस डे लाइव देखने से पहले बिजली वाले को सानुरोध फोन किया था,"यार! मैं फिर वही बोल रहा हूँ। आज तो बिजली ठीक कर दो। इंडिपेंडेंट हूँ तो नहीं, पर इंडिपेंडेंटता वाला प्रोग्राम देख कर मन मना लूँ कि मैं भी इंडिपेंडेंट हूँ।"
"कहाँ से बिजली गुल है तुम्हारी?"
"लगता है मीटर के पास से। वहाँ तक तो बिजली है, पर अंदर नहीं आ रही," मैंने उसे बताया तो वह तुनकते बोला,"देश और घर के मीटर की यही दिक़्क़त है। मीटर तक तो सप्लाई दिखती है पर घर में रोशनी नहीं होती। ऐसा करो, अपने घर की वायरिंग चेक करवा लो। उसके बाद मुझे फोन करना परसों। वह आज तो कम से कम किसी भी रेट में नहीं आएगा। आज तो फ़ुली इंडिपेंडेंस डे है," उसने खट्टा सा खाकर कहा और फोन काट दिया, बहुत बार पहले की तरह। वैसे भी कौन सा वह और दिनों शिकायत करने पर तुरंत आ जाता है। दस-दस बार शिकायत करने के बाद भी मर्ज़ी का आता है और शिकायत अटेंड करने से पहले चाय के साथ सौ लेकर ही शिकायत पर काम शुरू करता है।
...तो टीवी पर बिजली के रुक-रुक कर आने के चलते फ़िफ़्टीन अगस्त का प्रोग्राम भी रुक-रुक कर चल रहा है। हर बार रोते-रोते विशेष अतिथियों के साथ राष्ट्रगीत गाता टीवी पर इंडिपेंडेंस डे की परेड देख चुका हूँ। पर आज तक अपने को कहीं से भी इंडिपेंडेंट फ़ील नहीं कर सका। ज्यों ही इंडिपेंडेंस फ़ंक्शन ख़त्म होने के बाद जब अपने आस-पास देखता हूँ तो वही रोटी को पपीहे की तरह मुँह खोले ग़रीब, वही पढ़े लिखे काम माँगते हाथ, वही अस्पताल में डॉक्टरों की देखरेख में मरते लोग . . . और भी न जाने क्या क्या! सब पिछले सालों सा ही। विकसित हुए तो बस, देश, जनता को खाने के नए नए तरीक़े।
जोरू का ग़ुलाम न होने के बाद भी जोरू का ग़ुलाम होने के चलते हर इंडिपेंडेंस डे को ऐसे ही मज़े से बीवी की पचासियों गालियाँ सुनने के बाद भी बेशर्म बन अब तक बीसियों बार काम बीच में छोड़ दसियों प्रधानमंत्रियों का भाषण सुन चुका हूँ। इंडिपेंडेंटस डे के प्रोग्राम में प्रधानमंत्री बदलते रहे हैं, उनके प्रोग्राम नहीं। जनता और देश कमोबेश वही है। नए प्रधानमंत्री पुराने के कामों को नए-नए शब्दों में लपेट शब्दों में आगे पीछे जादूगर वाला हेरफेर कर जनता को पुराने वाली अपनी भावी योजना बता उससे अपने पक्ष में तालियाँ पिटवाते रहते हैं। जनता भी सोचती है उसका काम लोकतंत्र में तालियाँ और छाती पीटना ही तो है। इसलिए वह सत्ता बदलने पर ज़्यादा परवाह नहीं करती। वोट देने के तुरंत बाद उनकी मन पसंद लय में तालियाँ और छातियाँ पीटने की रिहर्सल शुरू कर देती है।
ये तो शुक्र है कि जैसे-तैसे अबकी बार गर्मियों से पहले बाप के समय का छत पर लटका पंखा ठीक करवा दिया है। वर्ना, इन गर्मियों में हवा के बदले अपने लटकने के ही काम आता अथवा हिम्मत रखता तो फ़ेस टू फ़ेस इंडिपेंडेंस डे का प्रोग्राम देखने आई जनता की तरह मुझे भी घर के अंदर टीवी पर पसीना होते फ़िफ़्टीन अगस्त देखना पड़ता।
अजीब बात है। इधर हम हर बार फ़िफ़्टीन अगस्त मना रहे होते हैं, उधर ये मौसम हमें इंडिपेंडेंस डे न मनाने की कोशिश में हमें पसीना-पसीना कर रहा होता है। इंडिपेंडेंस डे वाले दिन एसी के नीचे भी ताश खेलना दूभर होता है।
जनता फ़िफ़्टीन अगस्त का प्रोग्राम देखती पसीना-पसीना तो लाल क़िले की प्राचीर से वे देश की जनता को संबोधित करते पसीना-पसीना। काश! हम वसंत में ही इंडिपेंडेंट हो जाते तो कम से कम इंडिपेंडेंस डे मनाने में दिली नहीं तो कम से कम मौसमी जोश तो होता।
वैसे देश में पसीना-पसीना आज कौन नहीं हो रहा? इंडिपेंडेंस डे हो या इंडिपेंडेंस डे मनाने वाले। सभी चलते पंखे के नीचे लगे टीवी स्क्रीन पर पसीना-पसीना दिख रहे हैं। इंडिपेंडेंट होने के लिए उतना पसीना नहीं बहा होगा जितना पसीना आज हमें ख़ुद के इंडिपेंडेंट दिखने के लिए, अपनी-अपनी कुर्सियाँ, अपने अपने भ्रष्टाचारियों को ईमानदार बनाने दिखाने के लिए बहाना पड़ रहा है।
हर रिपब्लिक डे पर ठिठुरती और हर फ़िफ़्टीन अगस्त को पसीना-पसीना होती जनता के भविष्य के बारे में अपनी बगल के अवसरवादी कम समाजवादी से पूछा तो वे तपाक से बोले,"जब तक देश में हमारे वाला समाजवाद नहीं आ जाता, तब तक इस देश की जनता रिपब्लिक वाले दिन ही नहीं, उस दिन से लेकर अगले रिपब्लिक डे तक यों ही फटी रजाइयों में ठिठुरती रहेगी। और जब तक हमारे वाला समाजवाद देश की ज़मीन पर नहीं उगता तब तक हर इंडिपेंडेंस डे से लेकर अगले इंडिपेंडेंस डे तक इस देश की जनता पसीना-पसीना होती रहेगी। हम ही इस देश को पसीने और ठिठुरन से मुक्ति दिलवा सकते हैं," भगवान करे, जनता को पसीने ओर ठिठुरन से निजात दिलवाने के लिए उनका समाजवाद भी जल्दी आ जाए। इनके उनके वाले समाजवाद बहुत देख लिए दोस्तो! अब कम से कम इनका भी समाजवादी मुँह बंद हो। जनता की क़िस्मत में तो बस ठिठुरना और पसीना होना ही लिखा है। दोनों के बीच की स्थिति उसे शायद ही कभी नसीब हो। पता नहीं किसका श्राप है कि इस देश की जनता या तो लू से मरेगी, या सर्दी से। अपनी मौत मरने की वज़ह तो वह ऊपर से लिखवा कर आती ही नहीं।
जबसे देश इंडिपेंडेंट हुआ है, वे लोकतंत्र वाले लालक़िले पर चढ़ इंडिपेंडेंस डे के मौक़े पर लोक को संबोधित करने लगे हैं; लगता है, वह आज़ादी से पहले वाला लालक़िला नहीं रहा। उसकी भी उनसे मिली भगत हो गई है। या फिर वह चुप है।
ख़ैर, चाय तो वे किसीको पिलाते नहीं। सबसे चाय पीते ही हैं। उनको चाय पिलाते-पिलाते उनसे तब यों ही पूछ लिया था, "बंधु! ये देश कब तक पटरी पर होगा?" तो उन्होंने मुफ़्त की चाय पीते-पीते बताया था, "पिछले देश का कबाड़ा कर गए हैं। ये तो शुक्र मनाओ अबके देश हमारे चंगुल में आ गया। वर्ना . . . देश बहुत नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है दोस्त! देश की बात न ही करो तो बेहतर! प्लीज़ कोई और बात करो। जब कोई देश की बात करता है तो मुझे बेहोशी आने लगती है," कहते उन्होंने मेरे हाथों में अपना सिर थमा दिया।
"तो तुम इस देश को कब तक पटरी पर ले आओगे?"
"सहत्तर साल के बेपटरी हुए देश को पटरी पर लाने को कम से कम पाँच-सात बार लगातार जनता को हमें कुर्सी पर चढ़ाना होगा। पहले हम उनके द्वारा नोच-नोच कर बचे विकास के जीने को फड़फड़ाते कबूतर के बचे सारे पंख निकालेंगे। उसके बाद उसके अपने विकास के पंख लगा उसे अपने ढंग से उड़ना सिखाएँगे। तब कहीं जाकर जो देश पटरी के बदले पट पर भी आ जाए तो ग़नीमत समझो बंधु!"
वैसे जबसे हम इंडिपेंडेंट हुए हैं, तबसे धीरे-धीरे किसीके न कहने के बाद भी हम स्वयं ही इंडिपेंडेंस हमारा पहला अधिकार के तहत हम हर पिछले इंडिपेंडेंस डे के मुक़ाबले पहले से अधिक इंडिपेंडेंट हुए हैं। कानून के लचीलेपन को देख चोरी करने को चोर हर पिछले इंडिपेंडेंस डे के मुक़ाबले पहले से अधिक इंडिपेंडेंट, निडर हुआ है। बीसियों घोषणाओं के बाद भी उसके खेत तक किरण की नोक भर बादल न पहुँचने पर किसान आत्महत्या करने के लिए पिछले इंडिपेंडेंस डे के मुक़ाबले अबके अधिक इंडिपेंडेंट हुआ है। दफ़्तर का बाबू सहकारिता में विश्वास रखे किसान के लिए आई सब्सिडी खाने के लिए हर पिछले इंडिपेंडेंस डे के मुक़ाबले अबके अधिक इंडिपेंडेंट दिख रहा है। हर बिरादरी का नेता जनता को घोषणाओं की घुट्टी पिला विगत इंडिपेंडेंस डे के मुक़ाबले पहले से अधिक देश खाने के लिए इंडिपेंडेंट हुआ है। ग़रीब ग़रीबी खाने के लिए हर पिछले इंडिपेंडेंस डे के मुक़ाबले पहले से अधिक इंडिपेंडेंट हो रहा है।
देश में किसी चीज़ का ग्राफ ऊपर चढ़ा हो या न, पर इंडिपेंडेंट होने के बाद देश में अपने-अपने तरीक़े से इंडिपेंडेंट होने का ग्राफ ज़रूर चढ़ा है। जो लोग बात बात पर संप्रभुता की बात करते हैं, उनकी बात ख़त्म हो जाने के तुंरत बाद पता लगता है कि वही देश प्रभु के आसरे चल रहा है। बाद में कुछ इंडिपेंडेंट क़िस्म के साहसी लोग प्रभु को प्रभुत्व में तबदील कर देते हैं। जो बचे-खुचे नव समाजवादी कुरता, पाजामा, लंगोट-संगोट खोल सोए-सोए भी देश में समाजवाद लाने की फ़िराक़ी ज़द्दोजेहद में लगे हैं। उन्हें विश्वास है कल को वे जो सत्ता में आ जाएँगे तो देश में उनके हिसाब का समाजवादी सूर्य उगेगा। उनके हिसाब का पानी नलों में आएगा। उनके हिसाब की हवा में जनता साँस लेगी। तब वे इनके सूर्य को अपने गोदाम में बंद कर देंगे, उनके सत्ता में आने तक।
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