ऑफ़िस शोक
डॉ. अशोक गौतमकई महीनों से बिजली के कनेक्शन के लिए बिजली विभाग के ऑफ़िस में चक्कर पर चक्कर लगा रहा था पर एक बिजली के कनेक्शन की फ़ाइल थी कि टस से मस न हो रही थी। अचानक ऑफ़िस के एक दयावान ने मेरी हालत पर दया कर ऑफ़िस के कोने जैसे में ले जा मुझे बताया, "जनाब! खेद से कहना पड़ रहा है कि तुम्हारे बिजली के कनेक्शन की फ़ाइल की टाँग टूट गई है। उसे नोटों की बैसाखियों की ज़रूरत है। कहीं से ला सको तो वह आगे चले। आपकी हालत देख मुझे आप पर दया आ गई सो मैंने बता दिया वर्ना...!" तो मैंने उसकी इस महती कृपा के लिए उसके आगे नतमस्तक हो दोनों हाथ जोड़ते जितनी विनम्रता मेरे पास उस वक़्त थी, उस सज्जन पर उड़ेलते कहा, "जनाब, मेरी फ़ाइल की ही टाँगें नहीं टूटी हैं! अब तो आपके दफ़्तर के चक्कर काटते-काटते मेरी भी टाँगें जवाब देने लगी हैं। कितने की आएँगी बैसाखियाँ फ़ाइल को चलाने के लिए?"
"धीरे कहो, ज़रा धीरे। आप ऐसा कीजिए हमें पाँच सौ दे दीजिए, बैसाखियाँ हम ही ले आएँगे। आपको फ़ाइलों की बैसाखियों की दुकान नहीं मिलेगी। अनजान बाज़ार में कहाँ-कहाँ सिर टकराते फिरोगे?" बंदे ने जिस सदाशयता से कहा मैं उसके आगे नतमस्तक हुए बिना न रह सका। मैंने जेब से पाँच सौ निकाले यह सोच कि पिछले जनम में मैंने इसके खा रखे होंगे और उसके हाथों पर रखे तो वह मुस्कुराता बोला, "बस! समझो आपकी फ़ाइल की टाँगें ठीक हो गईं। अब तो वह उन फ़ाइलों से भी तेज़ दौड़ेगी जिनके चार-चार टाँगें हैं। आप बस कल आ जाइएगा और हाथों-हाथ बिजली का मीटर ले जाइएगा।"
"तो कल कितने बजे आपके दर्शन कर कृतार्थ होऊँ?"
"दोपहर बाद आइएगा। मैं सब तैयार रखूँगा। देर से ही, पर रास्ते पर आने के लिए बहुत-बहुत धयन्वाद!" उन्होंने मुझ पर उपकार करने के बाद इधर-उधर देखा। जब निश्चिंत हो गए कि उन्हें किसी ने नहीं देखा तो उन्होंने अब के भी भगवान का शुक्रिया अदा किया और आगे हो लिए। तुम धन्य हो हे कलियुग के ऐसे सरकारी!
बाहरी मन से रिश्वत देने के बाद मन मनाने के लिए सबसे बेहतर विकल्प यही होता है कि हम इसे पिछले जन्म का किया पाप मान लें। और मैंने भी माना तो मन को बेहद शांति मिली। इतनी कि उतनी तो बिजली का मीटर लगने के बाद भी शायद ही मिलती।
अगले रोज सजधज कर मैं उनके ऑफ़िस सीना चौड़ कर जा पहुँचा। रिश्वत देने के बाद रिश्वत देने वाले का सीना काम करने वाले के आगे चौड़ा हो जाता है तो काम के बदले रिश्वत लेने के बाद काम करवाने वाले के आगे एकाएक नतमस्तक हो जाता है। ऐसा मैं उस वक़्त फ़ील कर रहा था। लगा, आज तो मीटर घर आकर ही रहेगा। मैं भले ही घर पहुँच कर रहूँ या न। साहब के बताए सही समय पर बिजली विभाग के ऑफ़िस सीना तान पहुँचा पर वहाँ सन्नाटा पसरा देखा तो हैरान रह गया। इस ऑफ़िस में तो रात को भी काम-काज होता रहता है और अभी किसी कुत्ते के भौंकने तक की आवाज़ नहीं? इधर-उधर देखा तो मन ने कहा, दफ़्तर तो वही है। तो क्या हो गया कि यहाँ उल्लू तक नहीं बोल रहे?
ऑफ़िस के भीतर गया तो हर टेबुल पर फ़ाइलें उदास, जैसे किसी फ़ाइल का देहांत हो गया हो। कहीं कोई नहीं! अचानक सामने कोने में सिर झुकाए ऑफ़िस का चौकीदार दिखा तो मैंने उससे पूछा, "बंधु! बिजली वालों का ऑफ़िस यही है न?"
"जी!" मरी सी आवाज़ जैसे बंदे ने महीनों से रिश्वत न खाई हो।
"तो आज यहाँ कोई नहीं दिख रहा? कहाँ चले गए सब जनता की हजामत करने वाले? क्या कोई रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा गया जो इस तरह...."
"नहीं, ऑफ़िस के सबसे लोकप्रिय कुत्ते का अचानक स्वर्गवास हो गया साहब! वहीं गए हैं सब उसके स्यापे में रूदालियों का रोल निभाने," कह वह फफक-फफक कर रो पड़ा तो मैंने उसे सांत्वना देते कहा, "इतने क्यों रोते हो यार! इतने तो बंदे आजकल अपने बाप के मरने पर भी नहीं रोते। आना-जाना तो इस जग की रीत है।"
"वह हमें अपने बाप से बढ़कर था सर! बाप ने हमें दिया ही क्या? इस साहब के कुत्ते के आसरे ही तो हम जी रहे थे। अब तो लगता है जैसे हम सब अनाथ हो गए।"
"कुत्ते के मरने पर भी कोई अनाथ होता है क्या? अब तो लोग अपने बाप के मरने के बाद भी अपने को अनाथ नहीं मानते। बाप के मरने पर दीवाली मनाते हैं और तुम हो कि... कुत्ते के मरने पर इतने इमोशनल नहीं होते यार! तुम तो कुछ अधिक ही इमोशनल हो रहे हो कुत्ते की मौत को लेकर! वह किस जमात का कुत्ता था?" मैंने यों ही उससे बात का सिलसिला ज़ारी रखने का बहाना ढूँढा तो वह ग़ुस्साते बोला, "क्या मतलब तुम्हारा?"
उसने पास रखे साहब के बाथरूम के तौलिए में अपने आँसू पोंछे तो मैंने भी वक़्त की नज़ाकत का भरपूर इस्तेमाल करते उसके ग़म में ग़मगीन होते कहा, "मेरा मतलब वह हिंदू था, या ईसाई था या फिर...."
"क्या करना तुम्हें उसका जानकर? तुम किस धर्म के हो?"
"यार, मैं न हिंदू हूँ न मुसलमान, न मैं सिख हूँ, न ईसाई। मैं तो खिलाने वालों की जमात का हूँ। सबको खिलाने वालों की कोई जमात नहीं होती। बस एक ही जमात होती है। सोच रहा हूँ यहाँ तक आ ही गया तो उसके दाह संस्कार में हाज़िर हो साहब की नज़रों में कुछ पुण्य मैं भी बटोर लेता हूँ। कहाँ हो रहा है उसका अंतिम संस्कार?"
"कह रहे थे कि अभी तो उसके अपार्थिव शरीर को ऑफ़िस के रेस्ट हाउस में रखा गया है सबके अंतिम दर्शन के लिए।"
"अपार्थिव शरीर?"
"कुत्ते पंच तत्व के नहीं होते न सर! पंच तत्व की तो ये मुई देह है जो हर दम दुखों से सनी रहती है। साहब के कुत्ते हर दुख पर विजय प्राप्त किए होते हैं। इसलिए वे मरने के बाद भी अजर, अमर रहते हैं," बंदा मुझे चौकीदार कम संत अधिक लगा।
"तो क्या और भी उसके दर्शन के इच्छुक हैं?" मुझे उसके मरने के बाद भी उससे ईर्ष्या की खुजली होने लगी थी।
"हाँ, छोटे साहब हफ़्ते भर से दिल्ली गए थे। सरकारी काम के बहाने रंगरलियाँ मनाने। कितना प्यार था उन्हें साहब के कुत्ते से? इतना तो उन्हें उनकी बीवी भी न करती होंगी? जैसे ही उन्हें साहब के कुत्ते की अचानक मौत के बारे में फ़ोन गया तो वे ऑफ़िस के सारे काम बीच में ही छोड़ वहाँ से उसी वक़्त निकल पड़े और साहब से कहा कि प्लीज़! जब तक मैं आपके कुत्ते के अंतिम दर्शन नहीं कर लेता, तब तक उसका अंतिम संस्कार करोगे तो मैं आत्महत्या कर लूँगा।"
"तो साफ़ है कि कुत्ते का अंतिम संस्कार कल ही हो पाएगा?"
"कुछ नहीं कह सकते। ख़ुदा क़सम, ये कुत्ता सब साहबों के कुत्तों में सबसे अधिक मिलनसार था। साहबों की नौकरी बजाते-बजाते बाल सफ़ेद हो गए पर ऐसा कुत्ता मैंने आज तक नहीं देखा। उसमें कतई भी इस बात का गर्व न था कि वह हमारे ऑफ़िस के सबसे बड़े आदमी का कुत्ता है। सबके साथ एक सा रहता था। वर्ग भेद से परे की आत्मा था वह। पर साहब, भगवान भी अच्छे कुत्तों को ही उठाता है। काटने वाले कुत्तों से तो वह भी डरता है। भगवान उसकी आत्मा को शांति दे," कह उसने स्वर्ग की ओर हाथ जोड़े जैसे भगवान उसे ही देख रहे हों।
"कुत्ता बीमार चल रहा था या.....?"
"पता ही नहीं चला। कमबख़्त ने सँभलने का मौक़ा ही नहीं दिया। सेवा करने का मौक़ा ही नहीं दिया उसने। कल ही अचानक उसके सीने में दर्द उठा तो साहब उसे ऑफ़िस की गाड़ी में सारे काम छोड़ अपोलो ले गए। वहाँ जाकर पता चला कि उसे दिल का दौरा पड़ा है, सो एडमिट करा दिया स्पैशल वार्ड में।"
"सच्ची को, बड़े भाग वाला कुत्ता था यार वह। यहाँ साधारण जनता को अस्पताल में स्टूल तक नहीं मिलता और उसे अपोलो में स्पैशल वार्ड! भगवान उसकी आत्मा को सच्ची को शांति दे। ऐसे कुत्ते समाज में युगों बाद जन्म लेते हैं। तो ऑफ़िस कब लगेगा अब?"
"कुत्ते की अचानक मुत्यु पर स्टाफ़ सचिव ने सात दिन के ऑफ़िस शोक की घोषणा की है।"
"मतलब अब अगले हफ़्ते ही...."
"फ़िलहाल तो यही मानकर चलिए.. बाक़ी तो साहब के इस आकस्मिक ग़म से उबरने पर निर्भर है।"
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