उधार दे, कुएँ में डाल
डॉ. अशोक गौतममैं थोड़ा बहुत लिख-लुक्ख लेता हूँ, इधर-उधर से मार-मूर कर। इसी के बूते आज अपने देश का मूर्धन्य हो धन्य हो रहा हूँ। मुझे लिखना आता हो या न पर चुराने की कला में मैं सिद्धहस्त हूँ। दो लाइनें इसकी उठाई तो दो उसकी और हो गई धांसू रचना तैयार। सहृदयी उसे सुनते हैं तो आह-आह कर उठते हैं। उनकी इसी आह-आह का परिणाम है कि न चाहते हुए भी मेरे हाथ औरों के संग्रह को खंगालने के लिए अपने आप ही उठ जाते हैं।
लाइनें चुराने की कला में निपुण हूँ भी क्यों न? इत्ते साल जो हो गए हैं ये काम करते-करते। अब तो इस काम मे लगे सिर के बाल भी सफ़ेद होने लग गए हैं। कई बार सोचता हूँ कि ये चोरी-चकारी का काम छोड़ दूँ और ज़िंदगी में कम से कम तो दो-चार लाइनें अपने-आप लिख जाऊँ तो बात बने। पर जब सामने ढेर सारा दिवंगत, अदिवंगत मित्रों का लिखा हुआ दिखता है तो मेरी सृजनात्मकता जवाब दे जाती है।
पीने वाला जैसे पिए बिना नहीं रह सकता, नेता जैसे अंट-संट कहे बिना नहीं रह सकता, हमारी गली का लाला जैसे किलो के बदले नौ सौ ग्राम दिए बिना नहीं रह सकता, वैसे ही मैं किसी के भी साहित्य पर हाथ साफ़ किए बिना नहीं रह सकता। अब तो ये चोरने-चुराने कि लत्त ऐसी लग गई है कि बिन कुछ चुरा कर लिखे बिना रोटी ही नहीं पचती। लाख गोलियाँ हाजमोला खा लूँ तो खा लूँ, पर क्या मजाल जो खट्टे डकार रुक जाएँ।
मुझ में दूसरी अच्छी आदत है मैं किसी से उधार लेकर लौटाता नहीं। मैं किसी से उधार ले कर वैसे ही भूल जाता हूँ जैसे नेता चुनाव के वक़्त जनता से वादे कर चुनाव जीतने के बाद भूल जाते हैं। वैसे भी उधार लेने की चीज़ है, लेकर देने की नहीं। जो लोग इस सत्य को जान लेते हैं वे सात जनम तक लिया उधार नहीं लौटाते। उनके लिए बेचारे उधार देने वाले उनके साथ न चाहते हुए भी जन्म लेते रहते हैं कि हो सकता है वे इस जन्म में उनसे लिया उधार लौटा दें। सब में शर्म हो सकती है पर मैंने जो नोट किया है, उधार लेकर देने के मामले में बहुत कम लोगों में शर्म होती है। और जो उधार लेकर देने के मामले में शर्म फ़ील करें, ऐसी आत्माएँ नीच होती हैं। गधे हैं वे जो उधार लेकर लौटाते हैं। उधार देकर अपने दोस्तों पर अहसान करना उधार देने वालों का नैतिक कर्तव्य होता है और अपने दोस्तों से उधार लेकर अँगूठा न होने के बाद भी उन्हें हर बार अँगूठा दिखाना उधार लेने वालों का मूलभूत अधिकार।\
वे आज फिर अपना दिया उधार माँगने आए थोबड़ा लटकाए, ठिठकते हुए, सहमते हुए, जैसे उन्होंने मुझे उधार देकर मुझ पर बड़ा भारी अहसान किया हो। इतिहास गवाह है कि किसी भी युग में उधार लेने वाला उधार देने वाले का अहसानमंद नहीं हुआ, उधार लेने वाला उधार देने वाले पर ही उधार ले अहसान करता रहा है और उधार देने वाला लौटा दे, लौटा दे की रट लगाए उधार के पैसे वापस आए बिना ही हर जन्म में तड़प-तड़प कर मरता रहा है। उधार देने वाला उधार लेने वाले कि नज़रों में भले ही गधा हो, पर वह किसी को उधार देते हुए अपनी नज़रों में ख़ुद को गोल्डन जुबली फ़िल्म के हीरो से कम नहीं समझता। हम जैसे उधार लेने वालों के जाल में फँसता भी तभी है।\
एक और बात, दिए उधार के वापस आने की चिंता उधार देने वाले की व्यक्तिगत होती है, लेने वाले की नहीं। एक आदर्श कर्ज़दार वही है जो लिया उधार देने की रंच भर भी चिंता नहीं करता। मित्रो! उधार लेकर फिर देने की चिंता में घुलते रहे तो उधार लेकर भी क्या जिए? मेरी तरह के उधार लेने वालों की इसी प्रवृत्ति का मैं कायल हूँ।
आते ही हर बार की तरह पता नहीं किसके आगे दोनों हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते बोले,‘"यार! अबके मेरा दिया लौटा दे। बड़े साल हो गए। सोच रहा था तुम मेरा दिया लौटा देते तो अबके त्योहार के मौक़े पर कमरे में सफ़ेदी ही करवा लेता। कैसे कमीने साहित्यकार हो तुम भी। देखो उनको जिन्होंने सामाजिक असहिष्णुता के विरोध में अपने सम्मान तक लौटा दिए और एक तुम हो मेरा उधार तक नहीं लौटा रहे? हे मेरी आस्तीन के साहित्यकार दोस्त! जानता हूँ, सम्मान के नाम पर तुम्हारे पास भूजी भाँग भी नहीं पर कम से कम इस परंपरा का निर्वाह करते मेरा उधार ही लौटा देते तो मुझे भी लगता कि.....," वे जितने गुस्से में कह सकते थे, कह चुके तो मैंने पहले की तरह ही लोक-लाज त्याग उन्हें समझाते कहा, "हद है यार, जब भी मिलते हो बस उधार लिए को देने की ही परोक्ष-अपरोक्ष अपील करते हो। दोस्तों को उधार देने के बाद क्या ऐसे पेश आते हैं? तुम मरे जा रहे हो क्या? हम मरे जा रहे हैं क्या? जब कोई नहीं मर रहा तो चिंता काहे की? बुरा मत मानना, पर ऐसा उधार देकर माँगने वाला बेशर्म मैंने आज तक नहीं देखा। रही बात लौटाने की, तो यह व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है। वे सम्मान लौटा रहे हैं, उनकी मर्ज़ी। मैं तुमसे उधार लिया लौटाऊँ या न, ये मेरी मर्ज़ी।
"देखो दोस्त! तुम में और तो सब खूबियाँ ही खूबियाँ हैं। बस, एक यही बुरी आदत है कि उधार देकर माँगने लग जाते हो, पपीहे की सी रट लगाए। बार-बार मुझे अपना कर्ज़दार होने का स्मरण कराते हो, जबकि मैं इस बात को सदा-सदा के लिए भूल जाता चाहता हूँ। बार-बार मुझसे अपना उधार माँगते हुए क्या तुम्हें शर्म नहीं आती? तुम्हारा भला इसी में है मेरे दोस्त! हो सके तो किसी को उधार दिए को माँगने की ये बुरी आदत अभी बदल डालो। तुम्हारी आत्मा को बड़ा चैन मिलेगा। मैं तो ख़ैर मज़े में हूँ ही। उधार दे कुएँ में डालने से बड़ा कोई परमार्थ नहीं। माना, उधार प्रेम की कैंची है पर वह बहुधा उधार देने वाले का ही नाक काटती है, लेने वाले का नहीं। क्योंकि उधार लेने वाले के पास तो नाक होती ही नहीं," इतनी खरी-खोटी सुनने के बाद कोई गधा ही आगे से कुछ कहने की हिम्मत करेगा। वे भी नहीं कर पाए, आदमी जो ठहरे। आदर्श नकटे उधार देने वाले की यही तो एक सबसे बड़ी ख़ासियत होती है भाई साहब कि वह उधार देने के बाद गुर्राता नहीं, गिड़गिड़ाता है, और बार-बार गिड़गिड़ाने के बाद ख़ामोश हो जाता है।
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