कालजयी का जयंती लाइव

15-04-2022

कालजयी का जयंती लाइव

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 203, अप्रैल द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

वह कालजयी की रजत जयंती नहीं, स्वर्ण जयंती नहीं, हीरक जयंती भी नहीं, ताज़ी टटकी पहली जयंती थी। यह बात दीगर है कि वह कालजयी ज़िन्दा रहने तक किसी दूसरे की जयंती में जीवित रहने तक नहीं गया था। गया नहीं था या जयंती पुण्यतिथि विभाग ने उसे बुलाया नहीं था, वह जाने या जयंती पुण्यतिथि विभाग। यह उनका आपसी मामला है। पर सुना है किसी पुण्यतिथि वाले ने उसे बता दिया था कि जो किसी दिवंगत लेखक की जयंती में भाग लेने जाया जाए तो उसकी जयंती मनते देर नहीं लगती। 

इधर कालजयी की पहली जयंती को जयंती पुण्यतिथि विभाग धूमधाम से मनाने खाने खिलाने की तैयारी में जुटा था तो उधर कालजयी अपनी जयंती में आने की तैयारी में, किसीसे कुरता तो किसीसे पाजामा उधारी में लेता दो दिन के लिए। मरने के बाद मरने से क्या डर! अपने साहित्यिक जयंती पुण्यतिथि विभाग के पास मुख्यतः बस, दो ही काम हैं। पहला, गए लेखकों की पुण्यतिथियाँ और जयंतियाँ मनाने का और दूसरा हर ज़िन्दा लेखक की किताब की साल में दो प्रतियाँ ख़रीदने का। उससे ज़्यादा कोई लिखे तो लिखता रहे। ज़्यादा लिखने की कौन सी उसने विभाग से परमिशन ले रखी है? 

तो कालजयी की पहली जयंती थी। उसे अपनी जयंती में आने को जयंती पुण्यतिथि विभाग द्वारा निमंत्रण पत्र लिखने के बाद पोस्ट नहीं किया गया था। उसका डिस्पैच्ड निमंत्रण पत्र उन बड़े बाबू की टेबल के नीचे गिरा पड़ा था जिन्हें पिछले के पुण्यतिथि में कार्यक्रम में खाने जाने का मौक़ा न मिला था। पर कालजयी को अपने ख़ुफ़िया सूत्रों से पता चल गया था कि जयंती पुण्यतिथि विभाग उसकी जयंती मना रहा है। 

कालजयी की जयंती के अवसर पर होने वाले कार्यक्रम की धमाकेदार रूपरेखा समाचार पत्रों को प्रेस नोट के माध्यम से भेजी जा चुकी थी ताकि उससे चिपके रहने वाले स्वयंभू साहित्यकारों के दाँत खड़े हो जाएँ। वैसे साहित्यिक वर्ल्ड में सारे साहित्यकार स्वयंभू ही होते हैं। अपने सिवाय उसमें कोई दूसरे को साहित्यकार मानता ही नहीं। 

ज्यों ही कालजयी की जयंती मनाने का दिन निकट आया, वह सज ।-धज कर जयंती पुण्यतिथि विभाग द्वारा अपने जयंती आयोजन में जा अपनी जयंती की अप्रत्यक्ष अध्यक्षता करने को तैयार होने लगा तो अपनी रजत जयंती से ताज़े लौटे एक लेखक ने उसे समझाते हुए कहा भी, “दोस्त! अपनी जयंती में मत जाओ। वहाँ सिवाय निराशा के कुछ नहीं मिलेगा,” पर वह नहीं माना तो नहीं माना। 

और वह तय समय से दो घंटे लेट होने वाले अपने जयंती समरोह के हॉल के कोने में कभी इस करवट तो कभी उस करवट अपने को ऊँट की तरह उलटता रहा, पलटता रहा। जब वह समारोह कक्ष में अपने को उलटता-पलटता थक गया कि अचानक उसकी जयंती समारोह शुरू होने के कुछ आसार लगे तो उसकी साँस में साँस आई। 

वह चुपचाप देखता रहा। उसकी फोटोस्टेट फोटो के आगे ज्योति प्रज्ज्वलित की गई। उसकी फोटोस्टेट फोटो पर बिल में सौ के पर असल में दस रुपए के संयोजक द्वारा लाए फूल मुख्यातिथि द्वारा पूरी श्रद्धा से चढ़ाए गए। मीडिया वाले इसके साक्षी बने। उसके बदले मुख्यातिथि को शॉल टोपी से सम्मानित किया गया तो वह एकबार फिर सम्मानित होता-होता रह गया। कालजयी ने तो सोचा था कि मरने के बाद ही सही, उसकी जयंती पर उसे सम्मानित किया जा रहा है। उसके बाद विभाग के पंजीकृत परमानेंट विद्वानों द्वारा उसकी जयंती पर उस पर शोधपत्रों के नाम पर इधर-उधर की मारते आधे-पौने शोध पत्र पढ़े गए। फिर संयोजक द्वारा शोधपत्रों पर होने वाली चर्चा चाय की ओर मोड़ दी गई। क्योंकि शोधपत्रों में चर्चा के लिए कुछ न था। 

बीच बीच में चाय बराबर चलती रही ताकि कोई सो न जाए। चाय के साथ किसीको बिस्कुट आए तो किसीको चाय ही। जिनको दोनों मिले में वे ख़ास मेहमानों में शुमार थे। देखते ही देखते जयंती वाले को विस्थापित करते, अपने-अपने को स्थापित करते लंच हो गया। पर लंच सचमुच बड़ा सही था। लगता था, अबके संयोजक ने उसमें बेईमानी कम की थी। दाल में नमक जितनी। वह साठ का था तो साठ का ही। आठ का नहीं। लंच करके जब सब उसकी जयंती समारोह में आए दूर पार के किराए पारिश्रमिक के फ़ॉर्म भर खिसकने लगे तो अचानक मुझे लगा ज्यों कोई मेरा साहित्यिक कुरता पीछे से खींच रहा हो। 

असल में मैं अंदर से साहित्यकार नहीं हूँ, पर बाहर से पूरा साहित्यकार सा हूँ। ये जो मेरा कुरता पाजामा है न! बस, यही हर सरकारी असरकारी साहित्यिक कार्यक्रम में मुझे घैंठ साहित्यकार दिखाए रखता है। जब पीछे मुड़कर देखा, तो कोई नहीं। फिर सोचा, अपने तथाकथित साहित्यिक दोस्त ही होंगे। बहुधा जब वे मुझे खींच नहीं पाते तो मेरा कुरता पाजामा खींच कर ही अपनी खीझ कम कर लिया करते हैं। 

दुबारा फिर किसीने पीछे से मेरा कुरता खींचा तो मुझे ग़ुस्सा आ गया। मुड़ कर पीछे देखा तो पहचानते देर न लगी। यार! ये बंदा तो वही है जिसकी जयंती खाने, सॉरी मनाने को हम सब यहाँ इकट्ठा हुए हैं। जिसकी फोटोस्टेट फोटो के आगे दीया अभी भी जल रहा है। 

“क्या बात है बंधु?” मैंने विनम्रता से अपना कुरता ठीक करते पूछा। क्योंकि आज का सबकुछ उनके ही सौजन्य से था। 

“बंधु! आख़िर ये सब हो क्या रहा है? यहाँ सब इकट्ठा क्यों हुए हैं?” 

“लंच खाने को? नहीं, तुम्हारी जयंती मनाने को। सच कहूँ जयंती बंधु! आज तो सच्ची को मज़ा आ गया। तुम्हें तुम्हारी जयंती की बहुत-बहुत बधाई बंधु! बड़े लक्की हो। जयंती पुण्यतिथि विभाग ने तुम्हारी ऐसी जयंती मनाई है कि . . . वाह! क्या मटर पनीर बना था! पहली बार किसी लेखक की जयंती में असली बासमती चावल खाए। वरना मोटे चावल ही बासमती के रेट में पेट को मिलते रहे। बजट बचा रहा तो पुण्यतिथि भी मना-खा लेंगे। क्या तुम किसीकी पुण्यतिथि, जयंती में कभी नहीं गए जो ऐसे . . .?” मैंने अपनी तो अपनी, साथ वाले की भी उँगलियाँ चाटते चाटते कहा तो कालजयी बोले, “नहीं। पहली बार अपनी जयंती में ही आया हूँ। पर मेरी जयंती में साहित्यकार तो कोई नहीं, सब लंचिए ही लंचिए हैं,” उसने जयंती वाला होने के बाद भी ऑब्जेक्शन किया तो मैं समझ गया कि बंधु को पहली बार क्यों अपनी जयंती में ही आना पड़ा है? अरे भैया! पेट पर हाथ फेर-फेर कर साहित्य के नाम पर खाना है तो आँखें मूँद कर विभाग की जय जयकार करो। गीदड़ों की हू हू में अपनी सुरीली हुंकार भरो। सरकारी समारोह हैं प्यारे! ऐसे ही चलते हैं। हमसे कुछ बचा हो तो तुम भी नीचे जाकर खा लो।”

“लंच लुंच तो छोड़ो! पर जिसकी जयंती है, उस पर तो कोई ख़ास बात ही नहीं हो रही? सब बस, अपनी अपनी ही मार रहे हैं।”

“अरे भैया! जिस पर जीते जी बात नहीं हुई, उसकी जयंती पर कौन ख़ास बात करेगा? जो हुई, उसे ही अभिनंदन ग्रंथ समझो। तुम्हें श्रद्धांजलि तो दी न सबने सिर उठाकर, मुस्कुराकर। क्या यह ख़ास नहीं? अच्छा, चलो एक बात बताओ? जिदंगी भर किसीने तुम पर कभी सड़े फूल अर्पित किए?” 

“नहीं!”

“किसीने तुम्हारी तस्वीर के आगे घी का तो छोड़ो, नक़ली तेल का भी दीया जलाया कभी?” 

“नहीं!”

“किसीको तुमने लंच तो छोड़ो, चाय का गिलास भी पिलाया था कभी? इतनों को लंच, उससे अधिक की रसीद, क्या ये तुम्हारा सम्मान नहीं?” मैंने पूछा तो अबके कालजयी ने शर्म से अपना सिर नीचा कर लिया। तब पहली बार लाइफ़ में किसी साहित्यकार को अपना सिर ख़ुद ही नीचा किए देखा। शायद कुछ कुछ सच्चा साहित्यकार होगा, तभी उसने ऐसा किया होगा। वर्ना हम जैसे धुरंधर तो औरों के सिर अपनी वाहियात हरकतों से नीचे करवा कर ही दम लेते हैं, “इतना तो हुआ तुम्हारी जयंती में। अब और क्या चाहते हो?” 

मैंने जयंती वाले कालजयी को दुरुस्त करते उसके मुँह पर ही उसे मुँह तोड़ जवाब दिया तो बंधु ने खिसियाते मुस्कुराते मेरे पेट पर हाथ फेरा और अपने जयंती समारोह में अपनी कविता सुनाते ही वहाँ से खिसकने वालों के बीच दुम दबा खिसक लिए। 

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