नमः नव मठाधिपतये
डॉ. अशोक गौतममैंने भी कई बार न लिखते हुए भी लिखते-लिखते नोटिस किया है कि साहित्य की दुनिया में मेरे जैसा, लिखने को उतना बेचैन नहीं दिखता जितना किसी साहित्य के मठ का मठाधिपति होने को आतुर दिखता है। तब मेरे जैसे इसके उसके चेतन अचेतन अवचेतन में बस यही इच्छा रहती है कि बस, वह जैसे-तैसे एकबार किसी साहित्य के मठ का मठाधिपति हो जाए तो शेष सब तो उसके बाद...। हर होने वाला या होने की इच्छा रखने वाला मठाधिपति जानता है कि जो ऐसे-वैसे, जैसे-तैसे किसी साहित्यिक मठ का इस-उस को पछाड़-लताड़ मठाधिपति हो गया तो वह प्रजापति से उँचा हो गया। प्रजापति होने पर भी वह आनंद कहाँ जो साहित्य के मठाधिपति होने में है। प्रजापति के पास भी उतनी शक्तियाँ नहीं होतीं जितनी मठाधिपति के पास होती हैं।
... और ऐसा ही सोचते-सोचते वे भी उस दिन अकेले अपने दम पर अपने साहित्यिक विरोधियों के ख़ून से सींचे साहित्य के मठ में मठाधिपति का पद न हथिया पाने के बाद मठाधिपति होने की खुली अधखुली आकांक्षाओं के अपने दिमाग़ में दो-चार कुत्ते साथ लिए अपने साहित्य के मठ के मठाधिपति और साहित्य में मठ परंपरा के ख़िलाफ़ बग़ावत करते मठाद्रोही साहित्यकार घोषित हो गए थे।
असल में वे साहित्यिक मठ का डटकर खाने पीने के बाद भी तब-तब साहित्यिक मठ की कार्य प्रणाली से बहुत आहत होते रहे थे जब-जब उनके मन में मठ में सर्वोपरि पद पाने की हूक उठती थी।
आप ही कहिए? बी लेवल तक का साहित्यकार कोई मठ, अखाड़ा क्यों ज्वाइन करता है? मठ में कोई खूँटा न होने के बावजूद भी उसमें अपने को क्यों बाँधे रखता है? इसीलिए यदा-कदा वे अपने को और ऊँचा पद पाने के इरादे से अपने में संघर्ष की आँच जलाए रखे मठ में रहते हुए भी मठाधिपति के विरुद्ध मठ की तानाशाही पारदर्शी प्रणाली की छाती पर सुलगा अनसुलगा विरोध दर्ज़ करते रहते।
वैसे सरजी! ये भी तो कोई बात नहीं होती कि आप मठ के सचिव हो सारी उम्र मठाधिपति का झोला उठाए चले रहें डिक्टेटर मठाधिपति के पीछे-पीछे। जहाँ भी वे मंच पर विराजें आप लग जाओ मंच की पहली सीढ़ी पर से ही उनकी भाटचारी करने। कभी उनका भी कोई झोला उठाए तो उनका न लिखने वाला लिखना भी सार्थक हो।
सुविख्यात साहित्यकार आज वह नहीं जो कालजयी लिखता है। सुविख्यात आज वह जो अपने मठ के मठाधिपति का झोला उठाए। दाँव लगते ही मठाधिपति हो जाए। सुविख्यात आज वह जिसके लिखे का कंकड़-पत्थर भरा झोला उसके चेले पालकी में सजा उठाएँ और लंगड़ाते लंगड़ाते चलें यह दिखाते हुए कि उफ्फ! उनके साहित्यिक मठ के मठाधिपति के लेखन का झोला कितना भारी? और वे स्वयंभू सुविख्यात साहित्यकार पालकी के पीछे-पीछे चेलों से अपने ऊपर चँवर झुलवाते साहित्यिक पद यात्रा पर पाठकों के जागरण की पीड़ा उठाए।
....तबके फिर उन्होंने कुछ पहले जैसा ही किया था। पर पहले की हद से अधिक खुलकर। एक बार फिर जब वे अपने साहित्यिक मठ के महासचिव के पद पर पसरे-पसरे मठाधिपति का महिमागान करते-करते थक गए तो उनके मन ने पुनः तथाकथित साहित्यिक मठ के मठाधिपति का पद पाने के सपने ने जागे-जागे ही अँगड़ाई ली तो उन्होंने एकबार फिर लाइफ़टाइम अपने साहित्यिक मठ के मठाधिपति से उसका पद छीनने के लिए गोटियाँ फ़िट करनी दिमाग़ में शुरू कर दीं।
पर उस साहित्यिक मठ के मठाधिपति भी घाघ मठाधिपति थे। वे चौबीसों घंटे अपने साहित्यिक मठ के हर सदस्य की ज़ुबान पर तो अपने कान रखे ही होते थे, परंतु मठ के सदस्यों के कानों के बीच भी अपने कान अड़ाए होते थे। किसीको नहीं पता था कि उनके पास कितने कान हैं? उन्हें सब पता था कि किसी भी मठ का आजीवन मठाधिपति बने रहने के लिए क्या-क्या ज़रूरी होता है।
...तो अब वे उस साहित्यिक मठ में रहते हुए मठाधिपति का पूरा पद पूरी तरह चाहते थे। इसके लिए उनका दिमाग़ विद्रोह कर गया तो कर गया। वैस भी पद पाने हथियाने के विद्रोह को ज़्यादा देर तक नहीं दबाया जा सकता न मन में, न दिमाग़ में, न राजनीति में, न साहित्य में।
पर वे ये भी अच्छी तरह जानते थे कि मठ की सदस्यता के बिना उनके जैसे हर साहित्यकार की हर जगह दुर्गति ही दुर्गति होती रही है और आगे भी होती रहेगी। इसलिए हर क़दम खुलकर उठाने के बाद भी हर कदम फूँक-फूँक कर उठा रहे थे। मित्रो! जिस साहित्यकार की आज किसी भी मठ से एफ़िलिएशन न हो, उसे कोई नहीं पूछता। साहित्य की देवी पूछती हो तो पूछती रहे। मठेशक्ति साहित्य युगे।
उधर साहित्य के मठ की कार्यकारिणी उन्हें कई बार इस बाबत इनडायरेक्टली स्पष्ट कर चुकी थी - मित्र! अभी तुम उस स्तर के अपने मुँह अपने मियाँ मिट्ठू नहीं हो पाए हो जितना किसी साहित्यिक मठाधिपति को अनिवार्य माना गया है। सो कीप इट अप! अभी और अपनी भाटगीरी की ज़रूरत है। देखो दोस्त! किसी भी साहित्यिक मठ का मठाधिपति आजतक केवल वही रहा है जो आत्म साहित्यिक प्रशंसा में अपने ऊपर मठ द्वारा साहित्यिक गतिविधियों के लिए इकट्ठा किए चंदे से पत्रिकाओं के विशेषांक निकालने का माद्दा रखता रहा हो। माफ़ करना! तुम अभी उस हद से बहुत पीछे हो। इसलिए जाओ, पहले अपनी ख्याति, विख्याती का फ़ेसबुक पर अपने-आप और जमकर प्रचार-प्रसार करो। सबको बताओ कि तुम जो नहीं हो, वह हो। फ़ेसबुक पर अपनी वाहियात रचनाओं पर मित्रों के लाइक्स, कमेंट्स का और नंबर बढ़ाओ। अतिरिक्त व्हाट्सएप ग्रुपों पर अपनी रचनाएँ चिपकाओ। मित्रों से उन पर रचना से बड़े कमेंट्स हँसते हुए ज़बरदस्ती लिखवाओ। अख़बारों, पत्रिकाओं में अपने साक्षात्कार अपने आप बनाकर अपने आप और अधिक छपवाओ। जब हमें लगेगा कि साहित्य के मठ के प्रधान बनने का तुम्हारा दावा आत्मप्रशंसा करते-करते उनसे अव्वल हो गया है तो हम बिन तुम्हारे अप्लाई किए ही तुम्हें अपने साहित्यिक मठ के मुखपत्र में मठाधिपति घोषित कर देंगे। ये मठ ज़ोर ज़बरदस्ती, विद्रोह-सिद्रोह से नहीं चलता भाई साहब! इस मठ के मठाधिपति होने के अपने कुछ नियम क़ायदे हैं। और कहीं लोकतंत्र बचा हो या न, पर अपने साहित्यिक मठ में लोकतंत्र अभी भी ज़िंदा है दोस्त!
ख़ैर, वे लिखते तो पहले भी उटपटांग ही थे, पर ये उनकी हिम्मत क्या कम थी कि पूरी शिद्दत से लिखते थे।
बस! फिर क्या था! उन्होंने वह उटपटांग लिखना भी बंद किया और साहित्य जगत में मठ परंपरा के विरोध में ताड़ी मार अपने साक्षात्कार बनाने जुट गए जगह-जगह छपवाने के लिए। आजू-बाजू अपने जैसे पद जुनूनी एक के कुछ काम चलाऊ पत्रिकाओं से नज़दीकी के रिश्ते थे। सो, साक्षात्कार छपने के इंतज़ाम लिखने से पहले ही हो गए।
मित्रो! इधर आजकल एक पंगा और हो चला है। बहुधा पत्रिकाओं को अपना साक्षात्कार छापने के लिए ख़ुद ही बनाकर देना पड़ते हैं पूरी तरह संपादित कर। मतलब, प्रश्न भी आपके और उत्तर भी आपके, मात्राएँ, पूर्ण विराम, अल्प विराम तो ख़ैर आपके ही। या कि अपने से अपना साक्षात्कार करने, लिखने से लेकर प्रूफ़ रीडिंग, अंक की बाइंडिंग और बोले ... पत्रिका अपने पाठकों तक पहुँचाने की पूर्ण ज़िम्मेदारी भी आपकी। जब आप अपने पाठकों तक अपने आप अपना साक्षात्कारी विशेषांक पहुँचाएँगे तभी तो वे जान पाएँगे कि आह! आप कितने बड़े राइटर हैं। ऐसे में अगर पत्रिका का प्रकाशक कमज़ोर हुआ तो पत्रिका छपवाने में हिस्सा अलग से लगाओ। वैसे हर किसी उन जैसे साहित्यकार पर विशेषांक निकालने पर हर पत्रिका का प्रकाशक अपने को रोता हुआ ही दिखाता है। अगर ये सब न करो तो अपने साक्षात्कार, अपने ऊपर निकलने वाले विशेषांक के कुछ का कुछ छपने की बराबर आशंका बनी रहती है। किसी और तरह के पाठकों के बीच जाने की आशंका शत प्रतिशत बनी रहती है। साक्षात्कार में जो आपने कहा नहीं होता, वह छप जाता है। और जो आपने जाँघ ठोंक-ठोंक कर कहा, लिखा होता है ,वह पता नहीं कहाँ चला जाता है। अपने ऊपर निकलवाते विशेषांक में जो आपने अपने बारे में लिखा, लिखवाया नहीं होता, वह छप जाता है।
और जैसे-तैसे अपने ऊपर अपने साक्षात्कारी विशेषांक के माध्यम से उन्होंने अपने साहित्यिक मठ के बहाने साहित्य के तमाम मठों को पाट बजाते चुनौती दे डाली। इधर-उधर से चार अपने जैसे अपने मुँह साहित्यिक मियाँ मिट्ठू बनने वाले अपने आजू-बाजू बाँधे, एक मंच बनाया और साहित्यिक मठों के मठाधिपतियों के ख़िलाफ़ सचित्र साक्षात्कारीय धावा बोल दिया।
साहित्य में मठ परंपरा के विरोधी अपने साक्षात्कारों में उन्होंने इधर-उधर साफ-साफ लिखा बका कि वे लिखने बकने के पहले से ही साहित्य में मठ परंपरा के सख़्त ख़िलाफ़ थे। वे आज भी मठाधिपतियों के सख़्त ख़िलाफ़ हैं। वे साहित्य में साहित्य के होने न होने का विरोध क़तई नहीं करते, पर साहित्य में मठों का गला फाड़ कर विरोध करते हैं। मठ साहित्यकार की स्वतंत्रता में सबसे बड़ी बाधा हैं। मठ खुले गले वाले साहित्यकारों का गला घोंटते हैं आदि इत्यादि।
वे दूसरे तमाम मठों का समर्थन करते हैं, पर साहित्य के क्षेत्र में रोज़ कुकरमुत्तों की तरह उग रहे मठों के मठाधीशों के सख़्त विरोधी हैं। वे मठाधिपति मुक्त मठों के हिमायती हैं। वे ऐसे मठ चाहते हैं जिनमें मठाधिपति रोटेशन में बनें। या कि वहाँ सब मठाधिपति हों, या फिर कोई मठाधिपति न हो। आज के बाद जहाँ भी उन्हें साहित्यिक मठ का सड़ा फट्टा तक लगा दिखेगा, वे उस सड़े फट्टे को भी तोड़ उसके ख़िलाफ़ उनकी प्रशंसा में लिखने वाले क़लम के सिपाहियों के साथ अपनी ज़ुबान खोलने से पूर्व अविलंब मोर्चा खोल देंगे।
लिखते-लिखते उन्होंने अपने से लिए साक्षात्कारों में ये भी लिखा कि मौजूदा हालातों में साहित्य में स्थापित साहित्यिक मठों को गिराने की खुली चुनौती देते कोरोना से भी ख़तरनाक बयानी संक्रमण फैलाते कहा कि जब तक साहित्य में एक भी मठ शेष, निःशेष रहेगा, उनका साहित्यिक मठ मठाधिपति गिराओ आंदोलन तब तक जारी रहेगा। वे तब तक बिन लिखे-पढ़े रहेंगे जब तक....उनका ये साहित्यिक मठ मठाधिपति गिराओ आंदोलन तब तक जारी रहेगा जब तक..... अब उनके इस साहसिक साहित्यिक मठ गिराओ आंदोलन को कोई नहीं रोक सकता। अब वे परशुराम की तरह साहित्य जगत को साहित्यिक मठाधिपतियों से मुक्ति दिलवाने के बाद ही क़लम उठाएँगे, कुछ लिखेंगे (तब तक उनके पास लिखने लायक़ कुछ बचा तो)। अब उन्होंने बिल्कुल तय कर लिया है कि वे कम से कम हिंदी साहित्य को मठों से मुक्त करके ही अंतिम साँस लेंगे।
...देखते ही देखते उनके साथ सैंकड़ों साहित्यिक मठों से पदस्थ अपदस्थ किए दुःखी जुड़ने लगे। ....धीरे धीरे उनके साथ साहित्यिक मठों से निकाले दुत्कारों का जमावड़ा हो गया।
....और आज उनके साहित्यिक प्रयासों से अपना चर्चित साहित्यिक मठ है तो वे उसके आमरण मठाधिपति। वे अपने मठ के माध्यम से साहित्य के नाम पर आत्मप्रशंसा वृद्धि करने में इस क़दर जुटे हैं कि पूछो ही मत। वे मठ के सक्रिय तो सक्रिय, निष्क्रिय सदस्य तक पर पैनी नज़र रखते हैं। क्या पता, दवात में स्याही डालने वाले में मठाधीशी की इच्छा कब जन्म ले ले? इन्होंने इस पद तक पहुँचने के लिए वे ही जानते हैं कितने पापड़ बेले हैं, कितने होते-होते होने से रह गए मठाधीश पेले हैं। सबसे कड़वे इस सच का उन्हें गहन अनुभव है कि कोई भी मठाधीश काम से कम, आत्मप्रचार से अधिक चर्चित होता है। इसलिए उन्होंने अपने मठ में अलग से आत्मप्रचार सेल खोल दिया है। अब ख़ुदा करे कि.....
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