खानदानी सांत्वना छाप मरहमखाना
डॉ. अशोक गौतमवे खानदानी सांत्वना छाप मरहम वाले हैं। जबसे शासन को, जनता को, सांत्वना छाप मरहम की ज़रूरत लगी होगी, वे तबसे ही सांत्वना छाप मरहम बनाने का हुनर पाले हैं। बातों ही बातों में कल जब मैं उनके पास साहब के आगे झुक-झुक कर पीड़ित रीढ़ की हड्डी के दर्द पर लगाने को मरहम लेने उनके खानादानी मरहमखाने पर गया तो उन्होंने बातों ही बातों में बताया कि जले, कटे-फटे, दर्द वाले अंग पर मरहम के बदले, जनता के दिल और दिमाग़ पर सांत्वना छाप मरहम बना, शासन-प्रशासन को सप्लाई करने का उनका धंधा मुग़लकाल के उन दिनों से है जब मुग़ल सल्तनत एक ओर आदेश दे हिंदुओं पर क़हर बरपवाया करती थी और दूसरी ओर वही मुग़ल सल्तनत हिंदुओं को अपनी दरियादिली बताते हुए, प्रताड़ित हिंदुओं के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक ज़ख़्मों पर हमारे बाप दादाओं का बनाया सांत्वना छाप मरहम लगाया करती थी। असल में शरीर के ज़ख़्म उतना दर्द नहीं करते, जितना दिमाग़ और दिल के ज़ख़्म करते हैं।
हम दोनों आज कुछ फ़्री से थे सो मैंने उनसे आगे पूछा, "उसके बाद?"
"उसके बाद भाई साहब फिर अँग्रेज़ों का राज आया! मेरे पुरखों को लगा कि शायद अब उनका सांत्वना का मरहम बनाने का धंधा बंद न हो जाए कहीं।"
"क्यों?"
"हर चीज़ विलायती ही तो थी उस वक़्त, सुई से सच तक सब! यही सोच मेरे पुरखे अभी धंधा बदलने की सोच ही रहे थे कि अँग्रेज़ी सरकार को कहीं से पता चला कि हम देश के लोगों के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक ज़ख़्मों पर लगाने वाले सांत्वना छाप मरहम बनाने के खानदानी माहिर हैं तो उन्होंने विलायत से सांत्वना छाप मरहम बनवा लाना छोड़, हमसे ही स्वदेशी सांत्वना छाप मरहम का ठेका कर लिया। मत पूछो साहब! उन दिनों हमारे मरहम की कितनी क़द्र थी? इधर अँग्रेज़ी सरकार ख़ुद जनता पर ज़ुल्म करवाती और उधर दूसरी ओर तत्काल हमारा बनाया यही सांत्वना छाप मरहम जनता के दिल और दिमाग़ पर मल देती दुलार से तो जनता सरकार की जयजयकार कर उठती, अपने ज़ख़्मों का सारा दर्द भुलाते हुए।
“जैसे-कैसे देश से अँग्रेज़ गए कि निकाले गए, निकालने वाले जानें या निकाले जानें वाले। जितने इतिहास, उतनी बातें।
“...देश में जनाब लोकतंत्र आया तो लगा अब अपना सांत्वना छाप मरहम क़तई बंद। अपने लोग अपनों के ज़ख़्मों पर सांत्वना का ज़ख़्म क्यों लगाएँगे भला? दिमाग़ में वाजिब सा प्रश्न तैरा तो हम अपने सांत्वना के मरहमखाने को लपेट पाकिस्तान जाने ही वाले थे कि एक तत्कालीन लोकतंत्र के नेता ने हमें रोक लिया तो हमने उनसे पूछा, "साहब! अब देश में सांत्वना छाप मरहम का क्या काम! अब तो सरकार जनता की और सरकार जनता के। जनता के घाव सरकार के। सरकार के घाव जनता के। पहले सरकार उनकी थी तो घाव जनता के होते थे। तब मेरे ये पूछने पर वे सादर दबी ज़ुबान मुस्कुराते बोले थे, "अरे मियां! काहे डरते हो? सूरत ही तो बदली है। बस, गोरे से काले पर आ गए। सीरत तो वही है। मुग़लों के वक़्त की, अँग्रेज़ों के वक़्त की।” सुना तो भैया लपेटा सांत्वना छाप मरहम का मरहमखाना फिर बिछा दिया।"
"फिर?"
"फिर क्या मियां! बोले, दिल खोलकर जमे रहो। आने वाला वक़्त न मेरा, न तुम्हारा! सांत्वना छाप मरहम का है। भविष्यवाणी करता हूँ कि आने वाले दिनों में सरकार को जनता के लिए सांत्वना के मरहम की ज़रूरत क़दम-क़दम पर पड़ेगी। किसी नेता का कहा पहली बार सच हुआ भैया! पहले बेगाने ज़ख़्म दे, सांत्वना का मरहम जनता के लगाते थे। अब अपने ही ज़ख़्म देकर जनता के सांत्वना का मरहम लगाने लगे, पूरे अपनेपन के साथ। कह वे जाने कहाँ चले गए।"
" फिर?"
"फिर जनाब! हम टिक गए यहीं।"
"तो?"
"तो क्या? धंधा तुम्हारे सामने है। पहले दिल्ली से ही अपने सांत्वना छाप मरहम का कारोबार चलता था, पर अब तो हर स्टेट में दिन दुगना रात चौगुना सांत्वना छाप मरहम का धंधा फल फूल रहा है साहब!"
"मैं समझा नहीं!"
"अरे भैया! पहले लोकतंत्र में कुछ इनसानियत थी सो, सांत्वना का मरहम नेता लोग जनता को लगाने को कम ही यूज़ करते थे। पर अब तो जिधर देखो, पीड़ित जनता के ज़ख़्मों पर लगाने के लिए सांत्वना के मरहम के सिवाय और कुछ लग ही नहीं रहा।"
"मतलब?"
"मतलब बाबू ये कि…,” उन्होंने अख़बार के एक टुकड़े पर मेरी दर्द कर रही रीढ़ की हड्डी के लिए सांत्वना के मरहम का चमच धरा और उसकी पुड़िया मेरी ओर सरकाते बोले, "मतलब बाबू ये कि इसे रीढ़ की हड्डी की दर्द वाली जगह नहीं, दिमाग़ के ऊपर लगा लेना। हाँ तो! मैं क्या कह रहा था कि.... जबसे देश हादसों का देश हुआ है, अपने सांत्वना छाप मरहम की माँग और भी बढ़ गई है। जितना सांत्वना छाप मरहम बना लो, माँग फिर वहीं की वहीं। अब तो सयानी सरकार कई बार तो हमारे रूहआफ़जाई सांत्वना छाप मरहम की पैकिंग पहले से ही तैयार रखती है। रखे भी क्यों न भैया! सरकार के बंदे हर जगह तो क्या, जहाँ उन्हें पहुँचना भी चाहिए, जब वहाँ भी नहीं पहुँचते तो सरकार जब कहीं कोई हादसा होता है, झट में सांत्वना छाप मरहम वहाँ पहुँचा देती है। जनता के ज़ख़्मों पर लगा देती है।"
"मसलन?"
"कहीं धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक दंगा हो गया तो सरकार झट वहाँ सांत्वना छाप मरहम भेज देती है ताकि पीड़ितों के धार्मिक ज़ख़्म भर जाएँ। जो कहीं सरकारी अमली अम्ले की लापरवाही से दुर्घटना हो जाए तो इससे पहले कि सरकारी अमला वहाँ पहुँचे कि न पहुँचे, सरकार झट सांत्वना छाप मरहम वहाँ पहुँचा रेडियो, अख़बार टीवी के माध्यम से पीड़ित जनता क लगा देती है। सच कहूँ तो भैया लोकतंत्र में इस सांत्वना छाप मरहम की अब तो इतनी डिमांड बढ़ गई है कि सरकार तो सरकार, घरेलू स्तर पर भी इसका डटकर दुरुपयोग होने लगा है। जिधर देखो, सांत्वना छाप मरहम के लिए हाहाकार। बंधु! सांत्वना छाप मरहम की डिमांड मुग़लों, अँग्रेज़ों के वक़्त भी ऐसी क्या ही रही होगी?" देश की जनता के आगे एक प्रश्न छोड़ वे तनिक साँस लेने को रुके तो मैंने उनसे आगे पूछा, "तो?"
"तो क्या भैया! मज़े हैं। सांत्वना छाप मरहम के नाम पर जो लगे बेचे जाओ।"
" मतलब?"
"अरे भैया! देश में ज़हर का सैंपल भरा जा सकता है। पर सांत्वना छाप मरहम का नहीं। सब जानते हैं कि जो इसका सैंपल भरा तो सांत्वनाओं के सहारे चलने वाला देश फिर चलेगा कैसे?"
"क्यों?"
"इसका भी सैंपल भर गया तो फिर देश की भूख, भय, गरीबी, बेरोज़गारी से त्रस्त जनता के ज़ख़्मों पर लगाने को उनके पास बचेगा क्या?" अब उनसे आगे कोई बात करने की हिम्मत मेरी न थी। सो, उनके द्वारा काग़ज़ में लपेटा सांत्वना का मरहम उठाया और घर की ओर सांत्वना लिए मुड़ गया, अपनी रीढ़ की हड्डी की दर्द को ख़ुद ही दबाए।
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