परसाई की पीठ पर गधा

15-06-2022

परसाई की पीठ पर गधा

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 207, जून द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मेरे शहर में एक विश्वविद्यालय बनाम सरकारी विद्यालय है। उसमें बहुत सी पीठें हैं। हर पीठ पर एक से एक धुरंधर लेटे हैं। जब भी सरकार बदलती है तो नई सरकार वहाँ अपने पार्टी महागधों को फ़िट करने के लिए किसी महापुरुष के नाम की पीठ स्थापित करने की घोषणा कर देती है। पीठ की पीठ पर बैठने वाले पद की घोषणा होते ही सरकारी, ग़ैर सरकारी उम्मीदवार सब इधर–उधर से अपना-अपना ज़ोर लगाते हैं। अंत में सब गोलमोल कर योग्य उम्मीदवारों का उल्लू बनाया जाता है और पीठ हित में उस पर अपना एक सबसे ख़ास गधा बैठा दिया जाता है।

अबके इस नई सरकार ने भी अपने विश्वविद्यालय बनाम विद्यालय का स्तर धँसाए रखने के नेक इरादे से चाहा कि वहाँ पर अबके परसाई पीठ की स्थापना की जाए। बाहर से उसकी इस घोषणा से लगा कि अब बदलाव तय है। सरकार परसाई को समझने लगी है। परसाई को समझना बोले तो बदलाव का स्वागत! बदलाव का अभिनंदन!

इस पीठ का मैं उचित दावेदार होने के बाद भी मेरी समझ में क़तई नहीं आ रहा था कि सरकार ने परिवर्तन के किस इरादे से विश्वविद्यालय बनाम विद्यालय में परसाई पीठ की घोषणा क्यों कर दी?

कर दी तो कर दी। सरकार कुछ भी कर सकती है।

परसाई पीठ की घोषणा के होते ही पूरे बुद्धिजीवी जगत में अफ़रा-तफ़री मच गई। बरसों से सोए परसाई की ख़िलाफ़त वाले बुद्धिजीवी सहसा जाग उठे! यार! ये अपनी सरकार जा किस ओर रही है? परसाई की पीठ और वह भी हमारी सरकार के विद्यालय में? मतलब, अब परसाई के दिन फिरे? नहीं, हम ऐसा नहीं होने देंगे। हम सरकार के विरुद्ध जलसा करेंगे! हम सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन करेंगे! हम सरकार के ख़िलाफ़ ये करेंगे, हम सरकार के ख़िलाफ़ वो करेंगे! जो हमसे हो सकेगा हम सरकार के ख़िलाफ़ वो वो सब करेंगे, पर परसाई पीठ की स्थापना नहीं होने देंगे तो नहीं होने देंगे। भले ही हमें गधे की पीठ की स्थापना हेतु विद्यालय पर दबाव क्यों न बनाना पड़े।

पर दूसरी ओर वह सरकार अडिग थी। वह परसाई चेयर की स्थापना करना ही चाहती थी ताकि उस टाइप के साहित्यकारों में ये मैसेज जाए कि . . . सरकारें बहुत से काम करने के लिए नहीं करतीं। बहुत से काम वह सिर्फ़ जनता में मैसेज देने के लिए भी करती हैं।

और भाई साहब! हो गया बनाम विश्वविद्यालय सरकारी विद्यालय में परसाई पीठ हेतु योग्य उम्मीदवारों के आवेदन का विज्ञापन जारी।

इधर मैंने भी परसाइयत पर पीएच की डिग्री कर रखी थी। सोचा, सही समय है। पीठ अपने परसाई की है, उम्मीदवारी ठोंक दी जाए।

. . . और मैं इस पीठ का उपयुक्त सवार होने हेतु आवेदन करते ही अपने को परसाई की पीठ का सबसे सशक्त दावेदार समझने लगा। परसाई पीठ पर बैठने को आवेदन करते ही लगा ज्यों अब गधे की पीठ छोड़ परसाई की पीठ पर बैठने के दिन बहुरे। अब कल को जो कोई विश्वविद्यालय शरद जोशी पीठ की कोई घोषणा करेगा तो उनकी पीठ पर भी जा चढ़ूँगा। तब मेरे पास पीठ पर चढ़ने का ख़ासा अनुभव होगा। जिसके पास किसीकी भी पीठ पर चढ़ने का अनुभव होता है, उसे किसीकी भी पीठ पर चढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। जिसकी पीठ हो वह भी नहीं। कोई भी परिणाम आने से पहले तक सोचने में जाता क्या है? चुनाव में चुनाव का परिणाम न आने तक हर उम्मीदवार अपने को मुख्यमंत्री पद के दावेदार से कम नहीं आँकता।

परसाई पीठ पर बैठने को अप्लाई किए एक महीना गुज़रा, दूसरा महीना गुज़रा। छह महीने गुज़रे। साल गुज़रा। हर बार इंटरव्यू के लिए बुला फुलाया जाता। जितने को मैं इंटरव्यू के लिए इधर–उधर से पैंट-शर्ट का अपने दोस्तों से जुगाड़ करता उतने को फिर तार आ जाता कि शासकीय कारणों से इंटरव्यू स्थगित कर दिया गया है। आख़िर जब मैं बार-बार विश्वविद्यालय बनाम विद्यालय की ओर से उल्लू बनते-बनते ऊब गया तो परसाई का नाम ले एक रोज़ मैंने विश्वविद्यालय बनाम विद्यालय के साक्षात्कार विभाग के मुखिया की पीठ पर चढ़ उनसे मिमियाते पूछा ही लिया, “सर! नमस्कार!” गधे को जो आज़ाद देश में आप सर कह दो तो वह आपको आधा अपनी पीठ पर सादर बैठाने की हामी भर देता है। शेष उस्तादी आपकी।

“कौन?”

“सर, मैं वही जिसने आपके द्वारा स्थापित परसाई पीठ पर बैठने को जनरल कैटेगरी में अप्लाई किया है। मुझे उनकी पीठ पर बैठने का सौभाग्य कब तक मिलेगा सर?” मेरी बात सुन वे बड़ी देर तक मुझे घूरते रहे और मैं उनके आगे ज़लील होता रहा। पर ऐसी कुर्सियों के आगे ज़लालत सहन करने का मेरे पास ख़ास अनुभव था सो उनके मौन ज़लील करने के बाद भी मैं क़तई ज़लील न हुआ।

“बहुत शौक़ है परसाई की पीठ पर बैठने का? सरकार के हो क्या?”

“नहीं सर! सरकार से हूँ। मैंने सरकार को वोट पाया है, तभी उनकी सरकार बनी है। अब तो मन करता है उनकी पीठ पर क्या, उनके सिर पर भी चौबीसों घंटे बैठा रहूँ।”

“अभी कुछ नहीं कह सकते, दूसरी कई पीठें इससे पहले बुक करनी हैं।”

“पर आपने तो विज्ञापन में कहा था कि परसाई की पीठ पर जल्द से जल्द योग्य उम्मीदवार को बैठाया जाएगा ताकि परसाई को भी पता चले कि विसंगतियों की पीठ पर चौबीसों घंटे चढ़े रहने से पर उन पर क्या बीतती है।”

“देखो, कहने और करने में यहाँ बहुत अंतर होता है। जो कहा जाता है, वह किया नहीं जाता। और जो कहा नहीं जाता, वह चुपके-चुपके कर दिया जाता है,” उन्होंने लंबी साँस लेते कहा तो लगा उन्होंने भी परसाई को कभी पढ़ा हो जैसे।

“तो कब तक उम्मीद करूँ परसाई की पीठ पर, सॉरी, परसाई पीठ पर सुस्ताने की? सर! जबसे परसाई पीठ के लिए अप्लाई किया है, कहीं भी और बैठने को मन नहीं करता।” मैंने आत्म लालसा उनके समाने व्यक्त की तो वे बोले, “देखो! ज़्यादा मत उछलो! अपने यहाँ पर योग्य उम्मीदवार बहुधा आसमान से गिरकर खजूर पर भी नहीं अटक पाते हैं। मंत्री जी से दस बार आग्रह कर परसाई पीठ के लिए उम्मीदवार माँग चुके हैं। उनकी वजह से हर बार परसाई पीठ के लिए इंटरव्यू की तारीख़ टालनी पड़ रही है। वे चुप हैं। लगता है, उनके पास अभी कोई योग्य उम्मीदवार नहीं।”

“तो सर ये सब दिखावा किसलिए?”

“पारदर्शिता बचाए रखने के लिए।”

“पारदर्शिता बचाए रखने के चक्कर में फिर इलिजिबल कैंडिडेट के जूतों का क्या होगा सर?” कह मैं उनको अपने घिसे जूते दिखाने लगा तो वे मुझे अपना समझ समझाते बोले, “नेक सलाह देता हूँ, मेरी मानों तो इन्हें किसी अगली पीठ हेतु चक्कर लगाने के लिए बचा कर रख लो डियर!,” और फिर मस्त हो मनमर्जी से टेबुल पर बिखरे काग़ज़ मनमर्जी की फ़ाइलों में घुसाने लगे।

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