कालजयी होने की खुजली

01-08-2021

कालजयी होने की खुजली

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 186, अगस्त प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

जैसे चींटी को जब तबाह होना होता है तो उसके पंख निकल आते हैं, जैसे गीदड़ को जब तबाह होना होता है तो वह जंगल छोड़ शहर की ओर निकल पड़ता है पीठ पर कफ़न बाँध, ठीक उसी तरह जब मेरे जैसे लेखक की उधार की जेब में खुजली होती है तो वह लिखना बंद कर प्रकाशक से संपर्क साधता है। 

लेखक को कुछ और हो या न, पर उसे हरदम कोई न कोई खाज, खुजली लगी, होती है। कुल मिलाकर वह खुजली का दास होता है। अगर उसे खुजली न भी हो तो भी वह कहीं न कहीं, कुछ न कुछ खुजलाता रहता है। और नहीं तो दिमाग़ ही सही। खुजलाना उसका पेशागत स्वभाव जो ठहरा। इसी खाज, खुजली के चलते मेरे भी कई दिनों से प्रकाशक से अपनी उधार की चटवाने को खुजली हो रही थी। दिमाग़ ने बहुत समझाया, पगले सब कुछ कर, पर प्रकाशक से संपर्क मत कर। जैसे लिख रहा है लिखता रह। कोई भी सपना देख, पर किताब छपवाने का सपना मत देखा। मारा जाएगा। कोई भी मोह मत त्याग, पर किताब छपवाने का मोह त्याग दे। पर वह लेखक ही क्या जो दिल की छोड़ दिमाग़ की सुने।

इसे मेरा सौभाग्य कहिए अथवा मुझे न चाहते हुए भी हर बार गालियाँ देते देते मेरे मुँह पर उधार मारते मेरे शुभचिंतकों का दुर्भाग्य कि बीसियों प्रकाशकों को फोन लगाने के बाद एक प्रकाशक ने मेरा फोन उठा ही लिया। उस वक़्त मुझे ऐसा लगा मानो माँ सरस्वती ने मेरा फोन उठाया हो।

"कौन??"

"प्रणाम सर! मैं एक होनहार लेखक बोल रहा हूँ।" 

"कहिए। हमें आजकल अधिकतर होनहार लेखकों के ही फोन आते हैं, पाठकों के नहीं," दिन के बारह बजे भी वे मुँह से ऐसे कि जैसे रात के बारह बजे फोन सुन रहे हों। 

"मैं आपके गौरवशाली प्रकाशन से अपना कविता संग्रह प्रकाशित करवा कालजयी होना चाहता हूँ," मैंने उनके बिन देखे प्रकाशन को चने के झाड़ पर चढ़ाया तो उनको बाँस पर। 

उन्होंने पहले की अपनी ढीली-ढाली आवाज़ को तब गंभीरता देते पूछा, "तो?"

"अगर आप मुझे अपने प्रकाशन से कालजयी होने वाली पुस्तक के बारे में नियम और शर्तें बता देते तो . . ."

"मतलब, आपने कविता संग्रह प्रकाशित करवाने के लिए सिर में कफ़न बाँध ही लिया है?"

"जी हाँ ! अब ऐसा ही कुछ समझिए कि मेरा सिर प्रकाशक की ओखली में जाने को बेचैन है।"

"देखिए! अभी तो हम आपका संग्रह ले नहीं पाएँगे, पर जो आप अपना संग्रह हमारे प्रकाशन से प्रकाशित करवाने को पगलाए हुए जा रहे हैं तो हम आपके लिए केवल इतना ही कर सकते हैं कि . . ."

"कितना सर!" मुझे मेरे कानों में पुरानी प्रेस में कविता संग्रह छपने की ठक-ठक की आवाज़ आने लगी तो मन मोर हो उठा, "आप खुलकर कहिए सर!" 

मेरे कहते ही वे खुलते हुए बोले, "देखिए, आप तो जानते ही हैं कि प्रकाशन का काम आज कितना जोखिम का काम हो गया है? सरकारी ख़रीद में किताब को लाना कितना कठिन है। किसे-किसे नहीं कमीशन खिलानी-पिलानी पड़ती। किस-किस के आगे हाथ नहीं जोड़ने पड़ते। तब जाकर सौ-पचास कापियों के ऑर्डर मिल गए तो मिल गए। किताब बिकने का और दूसरा रास्ता नहीं है। पर हम फिर भी अपने प्रिय लेखकों को निराश नहीं करते। हमारा तो बस, एक ही उद्देश्य है कि . . ." कहते कहते वे रुके तो मुझे बुखार सा आने लगा। मेरी बाहर की साँस बाहर तो अंदर की अंदर। लगा, मेरा कविता संग्रह गया पानी में। पर शुक्र ख़ुदा का, उन्होंने आगे कहना शुरू कर ही दिया, "हम आपको कालजयी बनाने के लिए इतना भर कर सकते हैं कि . . ." यार! ये बंदा हर पाँच शब्द बोलने के बाद रुक क्यों रहा है?

"कि सर???"

"कि किताब छपवाने को सारे पैसे आपको लगाने होंगे।"

"कितने सर!"

"कितने पेज हैं?"

"सौ मान कर चलिए।"

"तो आप बीस हजार मान कर चलिए।" 

"पर सर! बदले में . . ."

"बदले में हम आपको बीस लेखकीय प्रतियाँ देंगे। बिल्कुल मुफ़्त। दूसरे तो आजकल तीन लेखकीय प्रतियाँ ही देकर ही लेखक से पल्ला झाड़ रहे हैं। आप हमें शरीफ़ लेखक लग रहे हो सो . . ." अच्छा लगा कि किसी लेखक को किसी शैतान ने शरीफ़ कहा। नहीं तो यहाँ सब दूसरों को अपने जैसा ही समझते हैं। 

"पर सर . . ."

"और हाँ! अपनी स्टेट की थोक ख़रीद में आपको ही अपनी किताब ख़रीदवानी होगी। इसे पहली शर्त मानकर चलिए। प्रूफ़ रीडिंग भी आपको ही करनी होगी। छपने के बाद किताब में कोई ग़लती रह गई तो इसकी सारी नैतिक ज़िम्मेदारी आपकी होगी। उसके बाद हम आपकी किताब अमेज़न, फ़्लिपकार्ट पर डाल देंगे और तय मानिए, आप दूसरे ही दिन गली के लेखक से हिंदी के जेम्स बांड हो जाओगे। हमारे कई पुरस्कृत करने वाली संस्थाओं से सीधे संबंध हैं। आपको उनसे पुरस्कृत भी करवा देंगे। अब बीस हज़ार में आपको और क्या चाहिए? ऐसी डील शायद ही आपको कहीं और मिले।"

"सर! इतना सब तय हो जाने के बाद कहने को ही सही कोई रायल्टी-रूअल्टी का एग्रीमेंट भी कर लेते तो दूसरों को फ़ेसबुक पर दिखाने को हो जाता कि मेरी किताब रायल्टी के साथ आ रही है।"

"चलो, कर लेंगे। पर याद रखिएगा, हम आपको उसके बाद और प्रतियाँ सहत्तर प्रतिशत के हिसाब से ही दे पाएँगे। रे लेखक बंधु! आप भी क्या याद करोगे कि किसी रईस प्रकाशक से आपका संग्रह निकल रहा है," फिर कुछ देर कुछ सोचने का दिखावा करने के बाद प्रकाशक ने हँसते हुए मुझ पर अहसान-सा करते कहा, "तो मैं आपको अपना अकाउंट नंबर भेज रहा हूँ। पचास प्रतिशत अपना कविता संग्रह भेजने से पहले इसमें डाल दीजिएगा। और शेष पहला प्रूफ़ यहाँ से भेजने के बाद। पर एक बात का ख़ास ध्यान रहे," वे चेतावनी सी देते बोले।

"किस बात का सर!"

"अपना संग्रह हमारे अकाउंट में पैसे डालने के बाद ही पोस्ट कीजिएगा। शेष संशोधित नियम और शर्तें बीच-बीच में तय करते रहेंगे।" 

"पर सर! रायल्टी वाला एग्रीमेंट?"

"हो जाएगा वह भी। पर हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम आपकी किताब में वो काग़ज़ लगाएँगे, उसकी वो बाइंडिंग करवाएँगे, उसकी वो छपाई करवाएँगे कि . . . लोग किताब के भीतर जाने की बीस बार सोचें। वे बस, बंद किताब को ही निहारते रहें," उन्होंने कहा और फोन काट दिया। 

भाई साहब! कहते हुए बेशर्म को आ तो शर्म सी रही है, पर आप में से किसीसे भी दस की हज़ार एक बार फिर उधार मिल सकते हैं क्या? कुछ महीनों के लिए, यक़ीन मानिए। अबके मैं लौटा ज़रूर दूँगा। मेरे कालजयी होने का सवाल है प्लीज़!

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