फ़र्ज़ी का असली इंटरव्यू
डॉ. अशोक गौतमशूगर मिल वाले संपादक महोदय का फोन आया, "क्या कर रहे हो?"
"क्या करना सर! एक्सक्लूसिव ढूँढ़ने के लिए फटे जूते अड़ा रहा हूँ।"
"आज एक्सक्लूसिव को मारो गोली। एक इंटरव्यू करके लाओ।"
"किसका सर! शहर के कुत्तों तक का इंटरव्यू तक तो ले चुका हूँ। अब शहर में इंटरव्यू के लिए बचा ही कौन?"
"है! अभी भी एक बचा है। पता चला है कि फ़र्ज़ी की डिग्रियों का धंधा करने वाला फँस गया है।"
"सच्ची को सर! ये तो बहुत बुरा हुआ।"
"चलो हो गया तो हो गया। होनी को कौन रोक सकता है? उसके अपनों ने ही उसे मरवा दिया।"
"पता नहीं अब सर वह किन-किन के झूठे नाम ले मरवाएगा?"
"चलो वो तो जब होगा तब छापा जाएगा, पर तुम उसका इंटरव्यू करके आओ! पर हाँ ध्यान रखना! तुम आज तक असली के भी फ़र्ज़ी इंटरव्यू करते आए हो। ऐसे में यार! जर्नलिज़्म की रक्षा हेतु एक तो असली इंटरव्यू ले लेना, अख़बार का नाम रोशन हो जाएगा," संपादक जी का आदेश पा मैंने चलते-चलते फ़र्ज़ी से असली इंटरव्यू लेने के लिए सवाल बनाए और वहाँ पहुँच गया जहाँ जेलरूपी पंच सितारा जैसी सुविधाओं से लैस कोठरी में फ़र्ज़ी जी आराम फ़रमा रहे थे। मुझे देख वे मुस्कुराते ग़ुस्साते बोले, "अब फ़ुर्सत मिली यार तुमको? पहले तो विज्ञापनों के लिए रोज़ आ जाया करते थे।"
"माफ़ करना सर! वे कोई दूसरे होंगे मेरी शक्ल के। हमारे अख़बार में विज्ञापन नहीं छपते।"
"छपते नहीं या मिलते नहीं?"
"जो समझना, समझ लीजिए। मैं आपका एक्सक्लूसिव लेने आया हूँ। मेरी इंटरव्यू लेने में इतनी महारत है कि आप रातों-रात . . . आपकी आज्ञा हो तो ..." मैंने मोबाइल का रिर्काडर ऑन किया तो वे बोले, "रुको यार! ज़रा ठीक तो होने दो। जेल में हैं तो इसका मतलब ये तो नहीं हो जाता कि . . . महान होने का रास्ता जेल से होकर ही गुज़रता है," उन्होंने कहा तो मैंने कहा, "नहीं सर! मैं प्रिंट मीडिया का बंदा हूँ, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का नहीं। इसलिए आपको सजने की क़तई ज़रूरत नहीं। तो इंटरव्यू शुरू करें? संपादक जी चाहते हैं कि आपका एक्सक्लूसिव इंटरव्यू आज के अख़बार में छप जाए।"
"तो ठीक है पूछो जो पूछना चाहते हो? मैं फिजीकली तैयार हूँ।"
"सर! मेरा पहला सवाल, आपने फ़र्ज़ी डिग्रियाँ बेचने की, क़दम-क़दम पर क़ानून के काँटों से भरी राह ही क्यों चुनी?"
जेल में भी वह मुस्कुराते हुए बोले– "हमें परंपरा से चली आ रही असली डिग्रियों की राह पंसद न थी। दूसरे मैं बचपन से ही ख़तरों का खिलाड़ी रहा था इसलिए।"
"तो मेरा अगला सवाल। आप ये महान कांड अकेले कैसे कर गए?"
"अकेला था नहीं मित्र, आज अकेला कर दिया गया हूँ। अकेले तो आज चना भी नहीं फोड़ा जा सकता बंधु! वाह! क्या दिन थे वे भी जब एक से एक गणमान्य मुझसे जुड़े हुए थे। मुझे यहाँ आकर कोई ज्ञान हुआ हो या न, पर यह आत्मज्ञान ज़रूर हो गया कि सब चलती के साथी होते हैं। मुसीबत में अपना साया भी साथ नहीं देता," कह वे क्षणिक उदास हुए।
"आपके स्वार्थी दोस्तों को मेरी ओर से विनम्र श्रद्धांजलि सर जो आपको इस हाल में अकेला छोड़ गए। बुरा मत मानिएगा! फ़र्ज़ी डिग्रियाँ बेचकर आपने असली डिग्रियों को धोखा नहीं दिया क्या?"
"नहीं। बिल्कुल नहीं। किसी में हिम्मत हो तो वह असली डिग्री बेचकर दिखाए? अब जो बिकने की क़ाबिलियत रखता होगा समाज में वही तो बिकेगा न!"
"अब पकड़े जाने पर भी आपको नहीं लगता कि यह अपराध था?"
"देश में साक्षरता दर के साथ-साथ डिग्री दर बढ़ाना कोई ज़ुल्म है तो हाँ! मैंने यह अपराध किया किया है। मैं ऐसे अपराध एक बार नहीं, देर-सबेर बाहर हो जाने पर, बाहर जाने पर हर बार करने को जेल की हवा निःसंकोच खाता रहूँगा। बाहर की हवा वैसे भी बहुत दूषित हो गई है। बिन मेहनत किए यहाँ कौन डिग्रीधारी नहीं होना चाहता? पर ये असली डिग्रियाँ ही कइयों के डिग्रीधारी होने के अरमान मसलती रही हैं। मैंने ख़ुद असली डिग्री के दंश झेले हैं। इसलिए मैंने उनकी भावनाओं को समझ इस धंधे की शुरूआत की थी ताकि कल को देश में अनपढ़ तो सब मिलें, पर कोई बिना डिग्री के न मिले।"
"आपको क्या लगता है अब आप भी बाइज़्ज़त छूट जाएँगे?"
"ये तो मेरे वकील साहब ही मुझसे बेहतर जानते हैं। पर देखना, एक न एक दिन चमत्कार ज़रूर होगा। यहाँ अँधेर है, देर नहीं," कह उन्होंने ऐसी चैन की साँस ली मानों वे जेल से बाहर आ गए हों।
"सुना है आपके पास भी फ़र्ज़ी डिग्री ही थी?"
"तो क्या हो गया! किसी न किसी रूप में फ़र्ज़ी तो यहाँ सब हैं। वैसे मेरे जैसे कितने ही फ़र्ज़ी डिग्री के सहारे समाज के दर्जी बन मस्ती कर रहे हैं। जो कट गया, वही समाज सापेक्ष हो गया। जैसा उन्होंने सिल दिया, वही फ़ैशन हो गया। वक़्त वक़्त की बात है बंधु! जो ज़रा चिंतन मनन करके देखो तो इस धरती पर असली है ही क्या? जो असली दिखता है, अंततः वह भी फ़र्ज़ी ही है। ये असली सब पीड़ाओं की जड़ है। इसलिए जो पीड़ाओं से भरे इस जहान में तनिक भी मस्त रहना चाहता है, वह असली का त्याग कर प्रेम मुदित मन से फ़र्ज़ी की जय जयकार करे।"
"आपका देश के बचे फ़र्ज़ी डिग्री की इच्छा रखने वालों को जेल से कोई एक्सक्लूसिव मैसेज?"
"मैं तो बस, उन्हें इतना ही संदेश देना चाहूँगा कि मेरे पकड़े जाने पर हताश होने की क़तई ज़रूरत नहीं। हर मुहल्ले में मेरे पेटी भाई उनकी सेवा करने को आज भी बैठे हैं। बस, पारखी नज़रों से उन्हें तलाशने की ज़रूरत है। उनके मिलते ही पलक झपकते पत्थर को भी हीरे सा तराश देने का हुनर है उनके पास। इधर मूल्य दिया उधर उसी वक़्त डिग्री हाथ। कोई तीन, चार, पाँच साल का इंतज़ार नहीं। पर ऐसे फ़नकारों की इस समाज में क़द्र ही किसे है? सब गले में फ़र्ज़ी चमड़े के फटे ढोल डाल असली-असली ठोके जा रहे हैं। पर देखना, एक दिन वह ज़रूर आएगा जब फ़र्ज़ी समाज के सिरमौर होंगे। पता नहीं क्यों, अब तो डिग्री से वंचितों को डिग्री देना भी पाप हो गया मित्र! क्या वंचितों का मन अपने नाम के आगे डिग्री लगाने को नहीं करता? करता है। पर ये असली का हल्ला पाने वाले . . . मैं उनके लिए ही जेलयात्रा पर निकला हूँ। जो मुझे उनका ध्यान न आता तो कोई और छोटा-मोटा धंधा कर लेता। पर अपने पेट से ज़रूरी तो दूसरों के गले डिग्रियों से भरना है ताकि वे भी समाज में आदरणीय बन सकें। तुम जर्नलिज़्म में क्या किए हो?"
"डिप्लोमा ही है सर मेरे पास," मैंने शर्ट के खुले बटनों में दुबकी छाती सिकोड़ते कहा तो वे सीना चौड़ा कर बोले, "कोई बात नहीं। हम हैं किसलिए? कह देना! डिग्री की कहीं इंटरव्यू में जरूरत पड़े तो। बिल्कुल नॉमिनल रेट में दिलवा दूँगा। वह भी ऐसी कि कोई उसके असलीपने पर उसके फट जाने के बाद भी उँगली न उठा सके। कुछ और बाक़ी बचा क्या . . ."
"नहीं सर! मुझे हौसला और एक्सक्लूसिव देने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। क़ानून करे आप . . . अब बहुत हो गया! देखना कल आपका इंटरव्यू फ़्रंट पेज पर छपा होगा।"
"हम तो इस धंधे में जबसे हैं तबसे फ़्रंट पेज पर ही रहे हैं दोस्त! बीच के पेजों में में छपना वैसे भी हमें पसंद नहीं। गुड लक, टेक केयर," उन्होंने मुस्कुराते कहा तो मैंने अपने फोन का रिकॉर्डर ऑफ़ किया और पहली बार किसी फ़र्ज़ी का असली इंटरव्यू लिए अपनी छाती पीटता बाहर आ गया।
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