इंस्पेक्टर खातादीन सुवाच
डॉ. अशोक गौतम
इंस्पेक्टर खातादीन साहब अभी-अभी बीवी द्वारा व्हाट्सएप पर जारी की ताज़ा सब्ज़ियों की लिस्ट की सब्ज़ियाँ अपने मातहत के हाथों अपने घर भिजवा आराम करने इंस्पेक्टर की कुर्सी पर आराम से पसरे ही थे कि हेड ऑफ़िस से फोन आ गया। ये फोन भी न! काश उनके थाने में और तो सब कुछ होता पर कमबख़्त ये फोन न होता। घर में तो वे इंस्पेक्टर होने के बाद भी फ़ुल-टाइम बंधुआ नौकर ही होते हैं, पर जो थाने आकर ज्यों ही ज़रा-सा अपने पद की कुर्सी पर पसर पद की गरिमा की अनुभूति करने लगते हैं कि कोई न कोई सरोकार का बेकार-सा फोन आ जाता है। कभी कलुआ का तो कभी ठलुआ का! साहब! जी हमने चोरी को अंजाम दे दिया है, फलाने के घर हमारा चोरी का मिशन सक्सेस हुआ। अब आप कहाँ मिल रहे हो अपना हिस्सा लेने।
अब इस निर्जीव फोन को कौन समझाए कि अगर तू नहीं थकता तो मैं तो थक जाता हूँ। तू हाड़-मांस का नहीं तो मैं तो हाड़-मांस का हूँ। जब भी घर के कामों को निपटा थाने आकर कुर्सी पर ज़रा सा आराम करने का मन होता है कि हरामी बज उठता है। मेरी तरह बेशर्म कहीं का! मेरी नहीं तो कम से कम मेरे पद की तो रिस्पेक्ट किया कर। पर रिस्पेक्ट करने की संस्कृति इस समाज से अब विलुप्त ही हो गई हो जैसे। अब इसे कौन समझाए कि कोई माने या न, पर वे अपने इलाक़े के अभी भी सबसे ख़तरनाक व्यक्तित्व हैं।
इंस्पेक्टर खातादीन साहब ने अलसाए हुए मूँछें ऊपर नीचे करते फोन उठाया तो दूसरी ओर से दीन-हीन नहीं, आदेश वाली आवाज़ आई, “खातादीन?”
“जी सर!” इंस्पेक्टर खातादीन साहब ने तत्काल अपनी इंस्पेक्टरी कुर्सी के नीचे खिसकाई और मुँह अदबी ज़ुबान से लथपथ किया। वे पल भर में समझ गए कि किसी ख़ास का फोन है। आम का होता तो उनका नाम लेने की हिमाक़त न करता। उन्हें एसपी साहब वाला सम्मान देता। वह भी फोन पर ही उनके जूतों पर नाक रगड़ते हुए। जी सर कहते-कहते खातादीन साहब ने हेड ऑफ़िस की ओर को सैल्यूट मारी, “मैं हेड ऑफ़िस से बोल रहा हूँ।”
“पहचान गया सर! हेड ऑफ़िस की आवाज़ को कौन नहीं पहचानता सर! वह तो बिन सुने भी चौबीसों घंटे हमारे दिमाग़ में गूँजती रहती है सर! बीवी की आवाज़ के बाद दूसरी कोई आवाज़ है तो बस, हेड ऑफ़िस की ही आवाज़ है जो इन कानों को राग मल्लहार से भी अधिक प्रिय है। जी सर! कहिए क्या आदेश है? मैडम जी को उनकी पसंदीदा जलेबियाँ भेजनी हैं? कितनी भेजूँ सर?”
“नहीं! मुफ़्त की जलेबियाँ खा-खाकर उन्हें शुगर हो गया है। वहाँ शुगर फ़्री जलेबियाँ बनती हों तो पता करना। अख़बार से पता चला है कि तुम्हारे इलाक़े में बड़ी मछली छिपकर बैठी है।”
“मेरे इलाक़े में सर! इंस्पेक्टर खातादीन के होते हो ही नहीं सकता सर! मेरे इलाक़े के सारे तालाबों पर तो गगनचुंबी इमारतें बन चुकी हैं सर! ऐसे में अख़बार वालों ने ग़लत ख़बर छाप दी होगी जनाब!”
“नहीं। हमारी ख़बरें ग़लत हो सकती हैं, पर अख़बार वालों की ख़बरें ग़लती नहीं होतीं।”
“तो सर मछली कौन सी है?”
“मतलब . . . ”
“मेरा मतलब जनाब ये कि वह सत्ता के संरक्षण में पलने वाली मछली है या . . . ”
“देखो! तुम्हें कितनी बार कहा कि हम सत्ताधारी मछली को पकड़ने का अधिकार नहीं रखते। हम जिस सरकार से पगार लेते हैं उसकी मछलियों को पकड़़ने का तो छोड़ो, उनकी ओर देखने तक का हमारे पास नैतिक अधिकार नहीं होता। हम सब कुछ कर सकते हैं, पर नमक हरामी क़तई नहीं।”
“मतलब सर! मछली विपक्ष की है?”
“ठीक पकड़े तुम! अब अगर प्रोमोशन चाहते हो तो . . . ज़िन्दगी में तुमने आज तक कीड़े-मकोड़े बहुत पकड़े। अब मौक़ा हाथ से मत जाने दो। नौकरी में ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते। देखो, अबके सौदेबाज़ी कर उसे सेफ़ पैसेज मत देना वर्ना . . . प्रोमोशन लेटर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है। तो अब ऐसा करो कि . . . ”
“सर! कहो तो यहीं से काँटा डाल उसे पकड़ आपश्री के चरणों में पेश करूँ या . . . पर सर! कल को जो इसी मछली की सरकार आ गई तो? लोकतंत्र में सरकार बदलते देर कहाँ लगती है जनाब? मेरे तो रिटायरमेंट के अब दो ही साल बचे हैं, पर सर! आपको तो अभी बहुत आगे तक जाना है। मेरा तो अब तक की नौकरी का यही अनुभव रहा है कि नौकरी में रहकर किसी भी दल की मछली से बैर अच्छा नहीं होता।”
“तो??” हेड ऑफ़िस वाले साहब नए-नए जो थे नौकरी में आए!
“तो सर! मेरे हिसाब से इस बार भी मच्छली पकड़ने का सफल अभिनय कर लेते हैं हर बार की तरह! नौकरी भी सेफ़ और मच्छली भी सेफ़,” इंस्पेक्टर खातादीन साहब ने मातहत होने के बाद भी हेड ऑफ़िस को चालीस सालों से संचित नसीहत दी तो दूसरी ओर से फोन कट गया। फोन कटते ही इंस्पेक्टर खातादीन साहब ने फोन कट जाने के बाद भी दो-चार बार हैलो-हैलो की और फोन का रिसीवर फोन के सिर पर मार चैन की साँस लेते बीवी द्वारा भेजी जाने वाली घर के सामान की अगली लिस्ट का बेसब्री से अपने को ख़ुद ही गालियाँ देते इंतज़ार करने में व्यस्त हो गए।
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