माधो! पग-पग ठगों का डेरा
डॉ. अशोक गौतमपता नहीं क्यों कई दिनों से दाँत में दर्द हो रहा था? वायरस फ़्री पेस्ट तो दिन में चार-चार बार करता रहा हूँ। ऑफ़िस में खाना तो मैंने उस दिन से ही त्याग परित्याग दिया था जिस दिन सिर में पहला सफ़ेद बाल दिखा था।
हो सकता है पुराने खाए के चलते अब अंदर से कोई दाँत अब सड़ रहा हो। पुरानी बीमारियाँ अक़्सर ईमानदार होने पर पर ही रंग दिखाती हैं। आजकल वैसे भी अंदर से ही सब सड़ा जा रहा है, क्या सिस्टम ! क्या शरीर! बाहर से तो सब चकाचक है।
इधर-उधर से डेंटिस्ट के रिव्यू सुनने के बाद उन दंत चकित्सक के पास गया। उनके बारे में ये भी विख्यात था कि जो भी उनके पास अपने दाँतों को लेकर एक बार गया, वह दूसरी बार न गया।
"क्या बात है?"
"जी! दाँत में दर्द है," सुन उन्होंने अपने आगे मेरा मुँह खुलवाते कहा, "गुड! वेरी गुड! वेरी वेरी गुड! अच्छा तो, अपना मुँह खोलो," मेरे बहुत कोशिश करने के बाद भी जब उनके मन माफ़िक उनके आगे मेरा मुँह न खुला तो वे डाँटते बोले, "हद है यार! खुले मुँहों के दौर में ठीक ढंग से अपना मुँह भी नहीं खोल सकते? जबकि आज आदमी अपना मुँह सोए-सोए भी खुला रखता है।"
“सर! विवाह से पहले मुँह खोलने की जो थोड़ी बहुत आदत थी, विवाह करने के बाद सो भी जाती रही। अब तो जब-जब भी मुँह खोलने की कोशिश की, मुँह पर ही मुँह की खानी पड़ी। ...और अब हालात ये हैं कि महीनों बाद मुँह अभ्यास करने को खोल लिया करता हूँ, एकांत में। ताकि कल को मुँह खुलना बिल्कुल ही बंद न हो जाए या कि मुँह खोलना भूल ही न जाऊँ," पर आख़िर वे भी वे थे। अपने हिसाब से मेरा खुलवा कर ही रहे। जब मेरा मुँह उनके आगे उनके हिसाब का खुल गया तो वे ज्ञान की टॉर्च जला मेरे मुँह के भीतर झाँकते मुझे दाँत दर्द का ओरल समाधान और प्रायोगिक ज्ञान एक साथ देते बोले, "डियर! आजकल दर्द कहाँ नहीं? आजकल दर्द किसे नहीं? यह संसार दर्द के सिवाय और कुछ नहीं। इस लोक में दर्द ही शाश्वत है और सब मिथ्या। ब्रह्मचर्य दर्द देता है, गृहस्थ दर्द देता, वानप्रस्थ दर्द देता है, और संन्यास तक तो कोई आज पहुँच ही नहीं पाता। जो सरकार में हैं, उनके भी दर्द है, जो सरकार से बाहर हैं उनके तो दर्द ही दर्द है नख से लेकर शिख तक। वोटर से लेकर वेटर तक हर जीव दर्द से दर्द-दर्द चिल्ला रहा है। वे सुबह दस बजे दर्द लिए उठते हैं और रात को आठ बजे दर्द में चिल्लाते-चिल्लाते ही सो जाते हैं। सारा दिन टीवी के आगे बैठी बीवी सुबह से लेकर शाम तक दर्द से चीख़-चिल्ला, कराह रही है तो ऑफ़िस में उसका वर्कर वर्क लोड के दर्द से चीख़-चिल्ला, कराह रहा है, पर सुनता कोई नहीं।
"आज किसीके के सिर में दर्द है तो किसीके पाँव में। किसीके पेट में दर्द है तो किसीके दिल में। आजकल बंधु! हवा ही ऐसी चली है कि बंदों को चैन की साँस लेने में दर्द फ़ील हो रहा है," वे डिम टॉर्च के प्रकाश से मेरे भीतर पहुँचाने से अधिक ज्ञान का प्रकाश डालते, मुँह खुलवाए मेरा रखे और बोलते ख़ुद रहे, "पर याद रहे, आदमी के इसी दर्द का फ़ायदा उठाने को इस दर्द से निजात दिलवाने के लिए आज पग-पग पर ठग डेरा सजाए बैठे हैं। धर्म की आड़ में संत ठग रहे हैं तो लोकहित की आड़ में श्रीमंत!
"इधर पकी फ़सल काटने के नेक इरादे लिए सरकार के शोध संस्थान की मार्फ़त अपना शुद्धिकरण करवा सरकार में आए फ़सल बटेरे ठग सरकार को ठग रहे हैं तो उधर नंगे पाँव सरकार के साथ चले वर्करों को सरकार ठग रही है। कोई दर्द की आड़ में दर्द पीड़ित को ठग रहा है तो कोई मरज की आड़ में मरज पीड़ित को। कोई रोटी की आड़ में भूखे को ठग रहा है तो कोई लँगोटी की आड़ में नंगे को। कहीं प्रिय शिष्य की आड़ में ठग आदर्श गुरु को ठग रहा है तो कहीं आदर्श गुरु की आड़ में गुरुघंटाल भोले शिष्य को ठग रहा है। कहीं ठग घनिष्ठ बन ठग को ठग रहा है तो कहीं ठग को घनिष्ठ बना ठगों द्वारा ठगा जा रहा है। कुल मिलाकर यह संसार पग-पग ठगी के डेरों के अतिरिक्त और कुछ नहीं।
"डियर! दर्द और मरज से छुटकारा पाने का लोभ दे भले चंगे से भले चंगे, सुखी से सुखी जीव को जितनी सहजता से ठगा जा सकता है उतनी सहजता से स्वर्ग का लोभ देकर भी नहीं। बिन मेहनत किए वैकुंठ की कामना करने वाला एक यह सुखप्रिय प्राणी है कि स्वयं जनित सौ विध तापों से निजात पाने के चक्कर में ठगों द्वारा क़दम-क़दम पर सप्रेम , सादर, सानुनय ठगा जा रहा है।
"अब दाँत के दर्द को मारो गोली! चक्षु हो तो देखो, सड़क से लेकर संसद तक ठग ही ठग बैठे–लेटे हैं, शिकार का इंतज़ार करते। इसलिए ज़िंदगी में किसी और से सावधान रहना या न, पर ऐसे ठगों से सावधान ज़रूर रहना," कह उन्होंने मेरे मुँह में घुसाई ज्ञान की टॉर्च बाहर निकाली तो मुँह अपनी पोज़ीशन में आने लगा धीरे-धीरे। मत पूछो, मुझे उस वक़्त मुँह खोलने में कितनी तकलीफ़ हुई थी? इतनी कि तब मैं दाँत का दर्द तक भूल गया था। उन्होंने ज्ञान की टॉर्च ऑफ़ कर फ़ाइनली कहा, "अब एक संवैधानिक सलाह देता हूँ, केवल पाँच सौ फ़ीस में। किसी ऐरे-ग़ैरे के आगे, आगे से कभी दाँत दिखाने को मुँह मत खोलना। वह मुँह खुलवाने को चाहे जितनी भी कोशिश क्यों न करे, दाँत कुछ और दिन चलाने हों तो," सच कहूँ, जब मैंने दाँत के दर्द को गोली मार उनको ग़ौर से देखा तो उस वक़्त वे मुझे डॉक्टर कम किसी चर्च के पादरी अधिक लगे। और फिर क़ातिल भाव से मेरी जेब को निहारते चुप हो गए तो मैंने झिझकते-झिझकते अपनी जेब से ख़ुशी-ख़ुशी उनको पाँच सौ का नोट मुस्कुराते हुए थमाया और ख़ुशी-ख़ुशी घर आ गया, यह सोच कि चलो, दाँत दर्द के लिए कम से कम कोई दवाई तो न लिखवानी, खानी पड़ी। वर्ना आजकल तो दवा के नाम पर मरीज़ को पता नहीं क्या-क्या खिलाया, पिलाया जा रहा है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- रावण ऐसे नहीं मरा करते दोस्त
- शर्मा एक्सक्लूसिव पैट् शॉप
- अंधास्था द्वारे, वारे-न्यारे
- अंधेर नगरी फ़ास्ट क़ानून
- अजर अमर वायरस
- अतिथि करोनो भवः
- अपने गंजे, अपने कंघे
- अब तो मैं पुतला होकर ही रहूँगा
- अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा
- अमृत अल्कोहल दोऊ खड़े . . .
- असंतुष्ट इज़ बैटर दैन संतुष्ट
- अस्पताल में एक और आम हादसा
- आज्ञाकारी पति की वाल से
- आदमी होने की ज़रूरी शर्त
- आदर्श ऑफ़िस के दरिंदे
- आश्वासन मय सब जग जानी
- आसमान तो नहीं गिरा है न भाई साहब!
- आह प्रदूषण! वाह प्रदूषण!!
- आह रिटायरी! स्वाहा रिटायरी!
- इंस्पेक्टर खातादीन सुवाच
- उठो हिंदी वियोगी! मैम आ गई
- उधार दे, कुएँ में डाल
- उनका न्यू मोटर वीइकल क़ानून
- उफ़! अब मेरे भी दिन फिरेंगे
- एक और वैष्णव का उदय
- एक निगेटिव रिपोर्ट बस!
- एक सार्वजनिक सूचना
- एप्पों की पालकी! जय कन्हैया लाल की!
- ऐन ऑफ़िशियल प्लांटेशन ड्राइव
- ऑफ़िस शोक
- ओम् जय उलूक जी भ्राता!
- कंघीहीन भाइयों के लिए ख़ुशख़बरी!
- कवि की निजी क्रीड़ात्मक पीड़ाएँ
- काम करे मेरी जूत्ती
- कालजयी का जयंती लाइव
- कालजयी होने की खुजली
- कुक्कड़ का राजनीतिक शोक
- कुछ तीखा हो जाए
- कुशल साहब, ग़ुसल लाजवाब
- केवल गाँधी वाले आवेदन करें
- क्षमाम्! क्षमाम्! चमचाश्री!
- खानदानी सांत्वना छाप मरहमखाना
- गधी मैया दूध दे
- गर्दभ कैबिनेट हेतु बुद्धिजीवी विमर्श
- चमचा अलंकरण समारोह
- चरणयोगी भोग्या वसुंधरा
- चला गब्बर बब्बर होने
- चार्ज हैंडिड ओवर, टेकन ओवर
- चुनाव करवाइए, कोविड भगाइए
- छगन जी पहलवान लोकतंत्र की रक्षा के अखाड़े में
- जनतंत्र द्रुत प्रगति पर है
- जाके प्रिय न बॉस बीवेही
- जी ज़नाब का मिठाई सेटिंग दर्शन
- जैसे तुम, वैसे हम
- जो सुख सरकारी चौबारे वह....
- ज्ञानपीठ कोचिंग सेंटर
- टट्टी ख़त्म
- ट्रायल का बकरा मैं मैं
- ट्रिन.. ट्रिन... ट्रिन... ट्रिन...
- ठंडी चाय, तौबा! हाय!
- ठेले पर वैक्सीन
- डेज़ी की कमर्शियल आत्मकथा
- डोमेस्टिक चकित्सक के घर कोराना
- तीसरे दर्जे का शुभचिंतक
- त्रस्त पतियों के लिए डायमंड चांस
- त्रासदी विवाहित इश्क़िए की
- दंबूक सिंह खद्दरधारी
- दीर्घायु कामना को उग्र बीवी!
- धुएँ का नया लॉट
- न काहू से दोस्ती, न काहू की ख़ैर
- नंगा सबसे चंगा
- नई नाक वाले पुराने दोस्त
- नमः नव मठाधिपतये
- नशा मुक्ति केंद्र में लेखक
- नो कमेंट्स प्लीज!
- नक़लं परमं धर्मम्
- पधारो म्हारे मोबाइल नशा मुक्ति धाम
- परसाई की पीठ पर गधा
- पशु-आदमी भाई! भाई!
- पहली बार मज़े
- पार्टी सौभाग्य श्री की तलाश
- पावर वालों का पावरफ़ुल कुत्ता
- पुरस्कार पाने का रोडमैप
- पुरस्कार रोग से लाचार और मैं तीमारदार
- पुल के उठाले में नेता जी
- पेपर लीकेज संघ ज़िंदाबाद!
- पैदल चल, मस्त रह
- पोइट आइसोलेशन में है वसंत!
- पोलिंग की पूर्व संध्या पर नेताजी का उद्बोधन
- फिर हैप्पी इंडिपेंडेंस डे
- फोटुओं और कार्यक्रमों का रिश्ता
- बंगाली बाबा परीक्षक वशीकरण वाले
- बधाई हो बधाई!!
- बाबा के डायपर और ऑफ़िस में हाइपर
- बुद्धिजीवी मेकर
- बूढ़ों के लिए ख़ुशख़बरी!
- बेगम जी के उपवास में ख़्वारियाँ
- बैकुंठ में जन्म लेती कुंठाएँ
- ब्लैक मार्किटियों की गूगल मीट
- भगौड़ी बीवी और पति विलाप
- भाड़े की देशभक्ति
- भोलाराम की मुक्ति
- मंत्री जी इंद्रलोक को
- मच्छर एकता ज़िंदाबाद!
- मातादीन का श्राप
- मातादीनजी का कन्फ़ैशन
- माधो! पग-पग ठगों का डेरा
- मार्जन, परिमार्जन, कुत्ता गार्जियन
- मालपुआमय हर कथा सुहानी
- मास्टर जी मंकी मोर्चे पर
- मिक्सिंग, फिक्सिंग और क्या??
- मुहब्बत में राजनीति
- मूर्तिभंजक की मूर्ति का चीरहरण
- मेरी किताब यमलोक पहुँची
- मेरे घर अख़बार आने के कारण
- मॉर्निंग वॉक और न्यू कुत्ता विमर्श
- मोबाइल लोक की जय!
- यमराज के सुतंत्र में गुरुजी
- यान के इंतज़ार में चंद्र सुंदरी
- राइटरों की नई राइटिंग संहिता
- राजनीतिक निवेश में ऐश ही ऐश
- रामदास, ठंड और बयानू सिकंदर
- रिटायरमेंट का मातम
- रिटायरियों का ओरिएंटेशन प्रोग्राम
- रैशनेलिटि स्वाहा
- लिंक बनाए राखिए . . .
- लिटरेचर फ़र्टिलिटी सेंटर
- लो, कर लो बात!
- वदाइयाँ यार! वदाइयाँ!
- विद द ग्रेस ऑफ़ ऑल्माइटी डॉग
- विनम्र श्रद्धांजलि पेंडिंग-सी
- वीवीआईपी के साथ विश्वानाथ
- वैक्सीन का रिएक्शन
- वैष्णवी ब्लड की जाँच रिपोर्ट
- व्यंग्य मार्केटिंग में बीवियाँ
- शर्मा जी को कुत्ता कमान
- शुभाकांक्षी, प्यालीदास!
- शेविंग पाउडर बलमा
- शोक सभा उर्फ टपाजंलि समारोह
- सजना है मुझे! हिंदी के लिए
- सम्मान लिपासुओं के लिए शुभ सूचना
- सम्मानित होने का चस्का
- सर जी! मैं अभी भी ग़ुलाम हूँ
- सरकार का पुतला ज़िंदाबाद!
- सर्व सम्मति से
- सामाजिक न्याय हेतु मंत्री जी को ज्ञापन
- साहब और कोरोना में खलयुद्ध
- साहित्य में साहित्य प्रवर्तक अडीशन
- सूधो! गब्बर से कहियो जाय
- सॉरी सरजी!
- स्टेट्स श्री में कुत्तों का योगदान
- स्याही फेंकिंग सूची और तथाकथित साली की ख़ुशी
- स्वर्गलोक में पारदर्शिता
- हँसना ज़रूरी है
- हम हैं तो मुमकिन है
- हाथ जोड़ता हूँ तिलोत्तमा प्लीज़!
- हादसा तो होने दे यार!
- हाय! मैं अभागा पति
- हिंदी दिवस, श्रोता शून्य, कवि बस!
- हिस्टॉरिकल भाषण
- हैप्पी बर्थडे टू बॉस के ऑगी जी!
- ख़ुश्बू बंद, बदबू शुरू
- ज़िंदा-जी हरिद्वार यात्रा
- ज़िम्मेदारों के बीच यमराज
- फ़र्ज़ी का असली इंटरव्यू
- फ़ेसबुकोहलिक की टाइम लाइन से
- फ़्री का चंदन, नो चूँ! नो चाँ नंदन!
- फ़्री दिल चेकअप कैंप में डियर लाल
- कविता
- पुस्तक समीक्षा
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-