माधो! पग-पग ठगों का डेरा

01-09-2021

माधो! पग-पग ठगों का डेरा

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

पता नहीं क्यों कई दिनों से दाँत में दर्द हो रहा था? वायरस फ़्री पेस्ट तो दिन में चार-चार बार करता रहा हूँ। ऑफ़िस में खाना तो मैंने उस दिन से ही त्याग परित्याग दिया था जिस दिन सिर में पहला सफ़ेद बाल दिखा था। 

हो सकता है पुराने खाए के चलते अब अंदर से कोई दाँत अब सड़ रहा हो। पुरानी बीमारियाँ अक़्सर ईमानदार होने पर पर ही रंग दिखाती हैं। आजकल वैसे भी अंदर से ही सब सड़ा जा रहा है, क्या सिस्टम ! क्या शरीर! बाहर से तो सब चकाचक है। 

इधर-उधर से डेंटिस्ट के रिव्यू सुनने के बाद उन दंत चकित्सक के पास गया। उनके बारे में ये भी विख्यात था कि जो भी उनके पास अपने दाँतों को लेकर एक बार गया, वह दूसरी बार न गया। 

"क्या बात है?"

"जी! दाँत में दर्द है," सुन उन्होंने अपने आगे मेरा मुँह खुलवाते कहा, "गुड! वेरी गुड! वेरी वेरी गुड! अच्छा तो, अपना मुँह खोलो," मेरे बहुत कोशिश करने के बाद भी जब उनके मन माफ़िक उनके आगे मेरा मुँह न खुला तो वे डाँटते बोले, "हद है यार! खुले मुँहों के दौर में ठीक ढंग से अपना मुँह भी नहीं खोल सकते? जबकि आज आदमी अपना मुँह सोए-सोए भी खुला रखता है।" 

“सर! विवाह से पहले मुँह खोलने की जो थोड़ी बहुत आदत थी, विवाह करने के बाद सो भी जाती रही। अब तो जब-जब भी मुँह खोलने की कोशिश की, मुँह पर ही मुँह की खानी पड़ी। ...और अब हालात ये हैं कि महीनों बाद मुँह अभ्यास करने को खोल लिया करता हूँ, एकांत में। ताकि कल को मुँह खुलना बिल्कुल ही बंद न हो जाए या कि मुँह खोलना भूल ही न जाऊँ," पर आख़िर वे भी वे थे। अपने हिसाब से मेरा खुलवा कर ही रहे। जब मेरा मुँह उनके आगे उनके हिसाब का खुल गया तो वे ज्ञान की टॉर्च जला मेरे मुँह के भीतर झाँकते मुझे दाँत दर्द का ओरल समाधान और प्रायोगिक ज्ञान एक साथ देते बोले, "डियर! आजकल दर्द कहाँ नहीं? आजकल दर्द किसे नहीं? यह संसार दर्द के सिवाय और कुछ नहीं। इस लोक में दर्द ही शाश्वत है और सब मिथ्या। ब्रह्मचर्य दर्द देता है, गृहस्थ दर्द देता, वानप्रस्थ दर्द देता है, और संन्यास तक तो कोई आज पहुँच ही नहीं पाता। जो सरकार में हैं, उनके भी दर्द है, जो सरकार से बाहर हैं उनके तो दर्द ही दर्द है नख से लेकर शिख तक। वोटर से लेकर वेटर तक हर जीव दर्द से दर्द-दर्द चिल्ला रहा है। वे सुबह दस बजे दर्द लिए उठते हैं और रात को आठ बजे दर्द में चिल्लाते-चिल्लाते ही सो जाते हैं। सारा दिन टीवी के आगे बैठी बीवी सुबह से लेकर शाम तक दर्द से चीख़-चिल्ला, कराह रही है तो ऑफ़िस में उसका वर्कर वर्क लोड के दर्द से चीख़-चिल्ला, कराह रहा है, पर सुनता कोई नहीं। 

"आज किसीके के सिर में दर्द है तो किसीके पाँव में। किसीके पेट में दर्द है तो किसीके दिल में। आजकल बंधु! हवा ही ऐसी चली है कि बंदों को चैन की साँस लेने में दर्द फ़ील हो रहा है," वे डिम टॉर्च के प्रकाश से मेरे भीतर पहुँचाने से अधिक ज्ञान का प्रकाश डालते, मुँह खुलवाए मेरा रखे और बोलते ख़ुद रहे, "पर याद रहे, आदमी के इसी दर्द का फ़ायदा उठाने को इस दर्द से निजात दिलवाने के लिए आज पग-पग पर ठग डेरा सजाए बैठे हैं। धर्म की आड़ में संत ठग रहे हैं तो लोकहित की आड़ में श्रीमंत! 

"इधर पकी फ़सल काटने के नेक इरादे लिए सरकार के शोध संस्थान की मार्फ़त अपना शुद्धिकरण करवा सरकार में आए फ़सल बटेरे ठग सरकार को ठग रहे हैं तो उधर नंगे पाँव सरकार के साथ चले वर्करों को सरकार ठग रही है। कोई दर्द की आड़ में दर्द पीड़ित को ठग रहा है तो कोई मरज की आड़ में मरज पीड़ित को। कोई रोटी की आड़ में भूखे को ठग रहा है तो कोई लँगोटी की आड़ में नंगे को। कहीं प्रिय शिष्य की आड़ में ठग आदर्श गुरु को ठग रहा है तो कहीं आदर्श गुरु  की आड़ में गुरुघंटाल भोले शिष्य को ठग रहा है। कहीं ठग घनिष्ठ बन ठग को ठग रहा है तो कहीं ठग को घनिष्ठ बना ठगों द्वारा ठगा जा रहा है। कुल मिलाकर यह संसार पग-पग ठगी के डेरों के अतिरिक्त और कुछ नहीं।  

"डियर! दर्द और मरज से छुटकारा पाने का लोभ दे भले चंगे से भले चंगे, सुखी से सुखी जीव को जितनी सहजता से ठगा जा सकता है उतनी सहजता से स्वर्ग का लोभ देकर भी नहीं। बिन मेहनत किए वैकुंठ की कामना करने वाला एक यह सुखप्रिय प्राणी है कि स्वयं जनित  सौ विध तापों से निजात पाने के चक्कर में ठगों द्वारा क़दम-क़दम पर सप्रेम , सादर, सानुनय ठगा जा रहा है। 

"अब दाँत के दर्द को मारो गोली! चक्षु हो तो देखो, सड़क से लेकर संसद तक ठग ही ठग बैठे–लेटे हैं, शिकार का इंतज़ार करते। इसलिए ज़िंदगी में किसी और से सावधान रहना या न, पर ऐसे ठगों से सावधान ज़रूर रहना," कह उन्होंने मेरे मुँह में घुसाई ज्ञान की टॉर्च बाहर निकाली तो मुँह अपनी पोज़ीशन में आने लगा धीरे-धीरे। मत पूछो, मुझे उस वक़्त मुँह खोलने में कितनी तकलीफ़ हुई थी? इतनी कि तब मैं दाँत का दर्द तक भूल गया था। उन्होंने ज्ञान की टॉर्च ऑफ़ कर फ़ाइनली कहा, "अब एक संवैधानिक सलाह देता हूँ, केवल पाँच सौ फ़ीस में। किसी ऐरे-ग़ैरे के आगे, आगे से कभी दाँत दिखाने को मुँह मत खोलना। वह मुँह खुलवाने को चाहे जितनी भी कोशिश क्यों न करे, दाँत कुछ और दिन चलाने हों तो," सच कहूँ, जब मैंने दाँत के दर्द को गोली मार उनको ग़ौर से देखा तो उस वक़्त वे मुझे डॉक्टर कम किसी चर्च के पादरी अधिक लगे।  और फिर क़ातिल भाव से मेरी जेब को निहारते चुप हो गए तो मैंने झिझकते-झिझकते अपनी जेब से ख़ुशी-ख़ुशी उनको पाँच सौ का नोट मुस्कुराते हुए थमाया और ख़ुशी-ख़ुशी घर आ गया, यह सोच कि चलो, दाँत दर्द के लिए कम से कम कोई दवाई तो न लिखवानी, खानी पड़ी। वर्ना आजकल तो दवा के नाम पर मरीज़ को पता नहीं क्या-क्या खिलाया, पिलाया जा रहा है। 
 

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