ज्ञानपीठ कोचिंग सेंटर
डॉ. अशोक गौतमइतना तो तय है कि जबसे प्रेम शब्द की उत्पत्ति हुई और मनुष्य प्रेम करने लगा तबसे ही अपने प्रेम वायरस को लाख छुपाने के बावजूद भी पूरे मुहल्ले को पता चलता रहा है, कि अमुक बंदा प्रेम संक्रमित हो गया। पर लेखन के मामले में ऐसा नहीं है। कई बार तो लेखक मुहल्ले में लिखते-लिखते मर भी जाते हैं, पर उनके मरने के बाद भी मुहल्ले वालों को पता नहीं चलता कि उनके मुहल्ले में कोई लेखक भी रहता था।
भला-चंगा जीव कब लेखन के वायरस की चपेट में आ जाए मुहल्ले को तो छोड़िए, उसे ख़ुद को भी पता नहीं चलता। उसे भी पता तब चलता है जब वह उसका पूरी तरह शिकार हो जाता है।
मुझे भी बड़े समय बाद पता चला कि मुझमें लेखन का लाइलाज़ वायरस आ गया है। लेखन का वायरस हर क़िस्म के वायरस से ख़तरनाक होता है। प्लेग, कोरोना के वायरस से भी ख़तरनाक। इस वायरस की आजतक न तो कोई वैक्सीन बन पाई है, न ही कोई दवा। हाँ! प्रकाशकों के पास इस वायरस का थोड़ा बहुत इलाज ज़रूर होता है। पर उसके बाद भी लेखक में यह वायरस रहता ही रहता है। जिसे इस वायरस ने एक बार अपनी चपेट में ले लिया, उसने मरने के बाद भी लिखने की कोशिश की।
जब तक मुझे इस वायरस के बारे में पता चला तक तब देर क्या, बहुत देर हो चुकी थी। सो सोचा, दूसरा रास्ता तो अब कोई बचा नहीं, तो अब क्यों न इस वायरस का ग्रसा तुलसीदास ही हो जाऊँ। फिर तुलसीदास की बेकग्राउंड में गया तो पाया कि उनके लेखन के पीछे उतना उनका हाथ नहीं था, जितना उनकी पत्नी का हाथ था। गूगल पर ज्यों-ज्यों और सर्च किया त्यों-त्यों यह यह पता चलता गया कि हर सफल लेखक के पीछे उसकी पत्नी का बहुत बड़ा हाथ होता है। देख बड़ा दुख हुआ! मेरे पास लेखन के लिए सब कुछ था, पर बस बीवी न थी। दूसरे, होती भी तो बीवी की फटकार सुन मैं तुलसीदास होना क़तई नहीं चाहता था। किसी की फटकार सुन क्या महान होना! और वह भी बीवी की! पर मैं यह भी जानता था कि बीवी की फटकार खाए बिना कोई तुलसीदास नहीं हो सकता। कर ले चाहे जितनी कोशिश।
अब क्या किया जाए? सफल लेखक होने के लिए फिर बीवी? लिखने के लिए फिर बीवी! फिर विवाह! मतलब एक बार फिर ओखली में नख से शिख तक!
मित्रो! आपकी तो आप जानो, पर बीवी और विवाह के पिछले जन्म के कटु अनुभवों को मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। यही मुझे आज लिखने को प्रेरित करते रहे हैं। मित्र पूछते हैं कि अविवाहित होने के बाद भी तुम ऐसे बीवी से उपहार में मिली वेदनाओं, संवेदनाओं को किस तरह सजीव चित्रित कर लेते हो? तो मित्रो! उसके पीछे मेरा पिछले जन्म का वैवाहिक अनुभव है। आज भी जब जब ग़लती से पिछले जन्म की विवाहाश्रम में भोगी यंत्रणाओं को स्मरण करता हूँ, मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
तब मुहल्ले के मेरे केवल एक पाठक ने मुझे बताया कि शहर में एक धाँसू लेखन कोचिंग सेंटर चलाते हैं। विदेशी लेखकों तक में उनकी चर्चा है। वे लिखने, छपने से लेकर ब्रांड बनने, पुरस्कार लेने तक के लेखकीय टिप्स देते हैं। उन्होंने अपने सेंटर से हिंदी के साहित्य जगत को एक से एक महान पुरस्कारीय लेखक दिए हैं। उन्होंने तो यहाँ तक बताया कि मंटों को भी उन्हीं के पिताजी ने लिखने की कोचिंग दी थी। उसके बाद ही मंटो सही अर्थों में मंटो हो पाए थे।
पहले सोचा, छिः! लिखने के लिए भी कोचिंग? लिखने के लिए भी ट्यूशन! कोचिंग तो डॉक्टर बनने के लिए होती है। कोचिंग तो इंजीनियर बनने के लिए होती है। कोचिंग तो ये बनने की होती है। कोचिंग तो वो बनने के लिए होती है। पर ज्यों ही लेखन में जो सुखद भविष्य देखने लगा तो . . . और मैं लेखन जगत में कुछ होने करने का उन्माद लिए उनके पास आख़िर वैसे ही चला गया जैसा आज हर माँ-बाप का इंटेलिजेंट बच्चा और इंटेलिजेंट होने के लिए कोचिंग सेंटर के चरणों में शरण लेता है।
गए वे दिन जब कोई चोरी-चोरी कोचिंग लेने जाया करता था। गए वे दिन जब कोई बच्चा सरकारी स्कूल के बदले प्राइवेट स्कूल में पढ़ने जाता था तो उसे पढ़ाई में दूसरे वीक मानते थे। आज सब उल्टा हो गया है। आज हर बच्चा प्राइवेट स्कूल में पढ़ना चाहता है। आज हर बच्चा कोचिंग लेना चाहता है। आज हर बच्चा ट्यूशन जाना चाहता है। उसके माँ-बाप मानते हैं कि अंत में जीत होती है तो ट्यूशन, कोचिंग वालों की ही होती है। अंत में जीत होती है तो ट्यूशन, कोचिंग की होती है। कोचिंगमेव जयते!
...और मैं सारी झिझक, लाज त्याग मन में ज्ञानपीठ की हूक लिए डेमो क्लास लगाने उनके कोचिंग सेंटर में। उन्होंने अपने कोचिंग सेंटर के कमरे की दीवारों पर बीसियों सफल दिवंगत हो चुके देशी, विदेशी लेखकों की माला पहनी तस्वीरें क़रीने से लगाई हुई थीं। यह सब देख मुझे उनसे और कुछ पूछने की हिम्मत न हुई। बस, मैंने उनके चरणों में नमन करने के बाद केवल यही पूछा, "गुरुवर! ये सब जो दीवारों पर माला पहने टँगे हैं ये . . . “
"वत्स! ये सभी हमारे कोचिंग सेंटर की प्रॉडक्ट हैं। हमारे ख़ानदानी ज्ञानपीठ कोचिंग सेंटर का इतिहास बीएचयू से पुराना है। डरो मत! इनमें से सभी अपने जीवन में ही पुरस्कार प्राप्त किए हैं। कई विदेशी लेखकों ने यहाँ से कोचिंग लेने के बाद अँग्रेज़ी में लिखते हुए भी हिंदी के अवार्ड ससम्मान हासिल किए। मरने के बाद पुरस्कृत हुए लेखकों को हम पुरस्कृत ही नहीं मानते,” उन्होंने कहा तो लेखकीय आत्मा को बड़ी शांति मिली। वर्ना मैं तो समझा था कि . . .
"तो तुम लिखना चाहते हो?”
"नहीं गुरुवर! लिख तो रहा हूँ पर . . .”
"तो लेखन का क्रैश कोर्स कर लेखन में स्थापित होना चाहते हो?"
"जी गुरुवर!"
"अच्छा तो बताओ, लेखन के लिए क्या-क्या ज़रूरी होता है?"
"जी गुरुवर! विचार, संवदेना।"
"और?" वे मेरे लेखकीय दिमाग़ में झाँकते बोले।
"कच्ची-पकी भाषा और टाइप करने को एक कम्प्यूटर!" मैंने आज की कम से कम लेखकीय रिक्वायरमेंट बताई तो वे हँसे। काफ़ी देर हँसते रहे। जब हँसते-हँसते थक गए तो गंभीर होकर बोले,"नहीं! लिखने के लिए न पहले विचार ज़रूरी है, न भाषा और न कम्प्यूटर।"
"तो गुरुवर?"
"भाई साहब! कोचिंग सेंटर यों ही कोचिंग सेंटर नहीं होते।
"बस, यहीं तो बिन कोचिंग के अच्छे से अच्छा लेखक भी गच्चा खा जाता है। और बहुत बेहतर लिखने के बाद भी पुरस्कार के लिए चातक की तरह पुरस्कार! पुरस्कार! करता दिवंगत हो जाता है।"
"तो गुरुवर?"
"अच्छा तो पहले ये बताओ, फ़ैमिली वाले हो या औरों की फ़ैमिली को ही अपनी फ़ैमिली मान गुज़ारा चलाते रहते हो?"
"गुरुवर! गुरुवर!" मैं अचकचाया तो वे बोले, "कोई बात नहीं। सच्चा लेखक वैसे भी अपनी असली फ़ैमिली का बोझ नहीं उठा सकता। उल्टे वह अपनी फ़ैमिली पर बोझ ही होता है। आज फ़ैमिली के भले ही फ़ैमिली न हो, पर लेखक की फ़ैमिली न होते हुए भी उसकी लेखन फ़ैमिली होना बहुत लाज़िमी है। उस फ़ैमिली में दो चार संपादक, दो-चार समीक्षक, दो-चार हर सरकार में अंदर तक पहुँच रखने वाले और एक-दो फ़ैमिली प्रकाशक सदस्य होना बहुत ज़रूरी होता है। लेखक की फ़ैमिली में इनमें से जो एक भी कम हो तो समझो, पुरस्कार, ब्रांड लेखक होने की सारी मेहनत पर पानी। फिर चाहे जितना मर्ज़ी लिख लो, जितना मर्ज़ी दौड़ लो। कुत्ता भी न पूछे। इन फ़ैमिली मेंबरों के बिना आज की तारीख़ में तुलसीदास भी तुलसीदास न हो पाते। भले ही वे पहले से लाख दर्जे अच्छा लिखते। बिना फ़ैमिली संपादक के आज नागार्जुन की रचना को भी अनियतकालीन पत्रिका का संपादक ख़ेद और धन्यवाद सहित पत्रिका की लाइफ़ टाइम मेंबरशिप के लिए उकसा उसके बाद रचना छापने का दिलासा दे अपने को धर्मयुग के संपादक के आगे की परंपरा का संपादक बताते क़तई गुरेज़ परहेज़ न करे।
अगर तुम्हारे पास निजी समीक्षक नहीं तो समझ लो गोर्की, वर्ड्सवर्थ सरीखा लिखा छपा सब तूड़ी भूसा। बिन पहचान वाला हर समीक्षक अपने को हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नगेंद्र की अगली परंपरा से कम नहीं आँकता।
अच्छा बताओ! कालिदास को कालिदास किसने बनाया था?" उन्होंने अचानक पूछा तो मैं डरा! मेरी अंदर की साँस अंदर तो बाहर की बाहर। यार! फिर बीवी! पर मेरे कुछ भी कहने से पहले वे ख़ुद ही बोले,"बीवी ने नहीं, उनको कंधे पर उठाए समीक्षकों ने। इसलिए अपने साथ बैठो या न, पर अपने इन फ़ैमिली मेंबरों के साथ किसी न किसी बहाने गेट टू गैदर ज़रूर करो। भले ही उधार लेकर करनी पड़े। यही फ़ैमिली मेंबर हर क़िस्म के लेखक को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने का माद्दा रखते हैं, इनका मन करे तो।"
"जी गुरुवर!" मैं उनके आगे आधा नतमस्तक!
"वत्स! पुरस्कृत होने के लिए क्या ज़रूरी है, क्या बकवास! हम अपने कोचिंग सेंटर में यही सब पिद्दी लेखकों को महान होने के लिए सैद्धांतिक कम, प्रैक्टिकली अधिक सिखाते हैं। हम अपने कोचिंग सेंटर में नज़र लेखन पर उतनी फ़ोक्स नहीं करते, जितनी प्रकाशन, पुरस्कार पर फ़ोक्स करते हैं। यही हमारे लेखन कोचिंग सेंटर की सबसे बड़ी क्वालिटी है जो हमें दूसरे कोचिंग सेंटरों से बिलकुल अलग करती है। अब पहली और अंतिम डेमो क्लास ख़त्म। महान लेखक होना अब तुम्हारी जेब में," उन्होंने अपने टेबल के खाने से अपना लेखक से महान लेखक बनाने वाले विभिन्न कोर्सों की फ़ीस का ब्राउशर निकाल मुझे हँसते हुए अपने माथे से लगा देते कहा,"कमरे में जाकर इतमिनान से, ठंडे दिमाग से पढ़ लेना। हम जुबली लेखक से लेकर डायमंड जुबली तक सब तैयार करते हैं।"
सोच रहा हूँ, जब बनना ही है तो जुबली लेखक ही क्यों बना जाए? डायमंड जुबली क्यों नहीं? जब सिर ओखली में देना ही है तो आधा क्यों? बस, थोड़ी फीस आड़े आ रही है। पर एक बैंक ने कोचिंग लोन देना मान लिया है। आगे माँ सरस्वती इच्छा!
1 टिप्पणियाँ
-
महोदय बहुत सुंदर अब और एक कृपा करें कि बताइएगा कि यह निजी समीक्षक किस बाज़ार में मिलते है? और उस बैंक का पता भी भेजिए जहां यह कोचिंग लोन मिलता है हम भी लेखक बनना चाहते हैं सीधा डायमंड जुबली बहुत बहुत बधाई ! सच मन खुश हो गया!
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- रावण ऐसे नहीं मरा करते दोस्त
- शर्मा एक्सक्लूसिव पैट् शॉप
- अंधास्था द्वारे, वारे-न्यारे
- अंधेर नगरी फ़ास्ट क़ानून
- अजर अमर वायरस
- अतिथि करोनो भवः
- अपने गंजे, अपने कंघे
- अब तो मैं पुतला होकर ही रहूँगा
- अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा
- अमृत अल्कोहल दोऊ खड़े . . .
- असंतुष्ट इज़ बैटर दैन संतुष्ट
- अस्पताल में एक और आम हादसा
- आज्ञाकारी पति की वाल से
- आदमी होने की ज़रूरी शर्त
- आदर्श ऑफ़िस के दरिंदे
- आश्वासन मय सब जग जानी
- आसमान तो नहीं गिरा है न भाई साहब!
- आह प्रदूषण! वाह प्रदूषण!!
- आह रिटायरी! स्वाहा रिटायरी!
- इंस्पेक्टर खातादीन सुवाच
- उठो हिंदी वियोगी! मैम आ गई
- उधार दे, कुएँ में डाल
- उनका न्यू मोटर वीइकल क़ानून
- उफ़! अब मेरे भी दिन फिरेंगे
- एक और वैष्णव का उदय
- एक निगेटिव रिपोर्ट बस!
- एक सार्वजनिक सूचना
- एप्पों की पालकी! जय कन्हैया लाल की!
- ऐन ऑफ़िशियल प्लांटेशन ड्राइव
- ऑफ़िस शोक
- ओम् जय उलूक जी भ्राता!
- कंघीहीन भाइयों के लिए ख़ुशख़बरी!
- कवि की निजी क्रीड़ात्मक पीड़ाएँ
- काम करे मेरी जूत्ती
- कालजयी का जयंती लाइव
- कालजयी होने की खुजली
- कुक्कड़ का राजनीतिक शोक
- कुछ तीखा हो जाए
- कुशल साहब, ग़ुसल लाजवाब
- केवल गाँधी वाले आवेदन करें
- क्षमाम्! क्षमाम्! चमचाश्री!
- खानदानी सांत्वना छाप मरहमखाना
- गधी मैया दूध दे
- गर्दभ कैबिनेट हेतु बुद्धिजीवी विमर्श
- चमचा अलंकरण समारोह
- चरणयोगी भोग्या वसुंधरा
- चला गब्बर बब्बर होने
- चार्ज हैंडिड ओवर, टेकन ओवर
- चुनाव करवाइए, कोविड भगाइए
- छगन जी पहलवान लोकतंत्र की रक्षा के अखाड़े में
- जनतंत्र द्रुत प्रगति पर है
- जाके प्रिय न बॉस बीवेही
- जी ज़नाब का मिठाई सेटिंग दर्शन
- जैसे तुम, वैसे हम
- जो सुख सरकारी चौबारे वह....
- ज्ञानपीठ कोचिंग सेंटर
- टट्टी ख़त्म
- ट्रायल का बकरा मैं मैं
- ट्रिन.. ट्रिन... ट्रिन... ट्रिन...
- ठंडी चाय, तौबा! हाय!
- ठेले पर वैक्सीन
- डेज़ी की कमर्शियल आत्मकथा
- डोमेस्टिक चकित्सक के घर कोराना
- तीसरे दर्जे का शुभचिंतक
- त्रस्त पतियों के लिए डायमंड चांस
- त्रासदी विवाहित इश्क़िए की
- दंबूक सिंह खद्दरधारी
- दीर्घायु कामना को उग्र बीवी!
- धुएँ का नया लॉट
- न काहू से दोस्ती, न काहू की ख़ैर
- नंगा सबसे चंगा
- नई नाक वाले पुराने दोस्त
- नमः नव मठाधिपतये
- नशा मुक्ति केंद्र में लेखक
- नो कमेंट्स प्लीज!
- नक़लं परमं धर्मम्
- पधारो म्हारे मोबाइल नशा मुक्ति धाम
- परसाई की पीठ पर गधा
- पशु-आदमी भाई! भाई!
- पहली बार मज़े
- पार्टी सौभाग्य श्री की तलाश
- पावर वालों का पावरफ़ुल कुत्ता
- पुरस्कार पाने का रोडमैप
- पुरस्कार रोग से लाचार और मैं तीमारदार
- पुल के उठाले में नेता जी
- पेपर लीकेज संघ ज़िंदाबाद!
- पैदल चल, मस्त रह
- पोइट आइसोलेशन में है वसंत!
- पोलिंग की पूर्व संध्या पर नेताजी का उद्बोधन
- फिर हैप्पी इंडिपेंडेंस डे
- फोटुओं और कार्यक्रमों का रिश्ता
- बंगाली बाबा परीक्षक वशीकरण वाले
- बधाई हो बधाई!!
- बाबा के डायपर और ऑफ़िस में हाइपर
- बुद्धिजीवी मेकर
- बूढ़ों के लिए ख़ुशख़बरी!
- बेगम जी के उपवास में ख़्वारियाँ
- बैकुंठ में जन्म लेती कुंठाएँ
- ब्लैक मार्किटियों की गूगल मीट
- भगौड़ी बीवी और पति विलाप
- भाड़े की देशभक्ति
- भोलाराम की मुक्ति
- मंत्री जी इंद्रलोक को
- मच्छर एकता ज़िंदाबाद!
- मातादीन का श्राप
- मातादीनजी का कन्फ़ैशन
- माधो! पग-पग ठगों का डेरा
- मार्जन, परिमार्जन, कुत्ता गार्जियन
- मालपुआमय हर कथा सुहानी
- मास्टर जी मंकी मोर्चे पर
- मिक्सिंग, फिक्सिंग और क्या??
- मुहब्बत में राजनीति
- मूर्तिभंजक की मूर्ति का चीरहरण
- मेरी किताब यमलोक पहुँची
- मेरे घर अख़बार आने के कारण
- मॉर्निंग वॉक और न्यू कुत्ता विमर्श
- मोबाइल लोक की जय!
- यमराज के सुतंत्र में गुरुजी
- यान के इंतज़ार में चंद्र सुंदरी
- राइटरों की नई राइटिंग संहिता
- राजनीतिक निवेश में ऐश ही ऐश
- रामदास, ठंड और बयानू सिकंदर
- रिटायरमेंट का मातम
- रिटायरियों का ओरिएंटेशन प्रोग्राम
- रैशनेलिटि स्वाहा
- लिंक बनाए राखिए . . .
- लिटरेचर फ़र्टिलिटी सेंटर
- लो, कर लो बात!
- वदाइयाँ यार! वदाइयाँ!
- विद द ग्रेस ऑफ़ ऑल्माइटी डॉग
- विनम्र श्रद्धांजलि पेंडिंग-सी
- वीवीआईपी के साथ विश्वानाथ
- वैक्सीन का रिएक्शन
- वैष्णवी ब्लड की जाँच रिपोर्ट
- व्यंग्य मार्केटिंग में बीवियाँ
- शर्मा जी को कुत्ता कमान
- शुभाकांक्षी, प्यालीदास!
- शेविंग पाउडर बलमा
- शोक सभा उर्फ टपाजंलि समारोह
- सजना है मुझे! हिंदी के लिए
- सम्मान लिपासुओं के लिए शुभ सूचना
- सम्मानित होने का चस्का
- सर जी! मैं अभी भी ग़ुलाम हूँ
- सरकार का पुतला ज़िंदाबाद!
- सर्व सम्मति से
- सामाजिक न्याय हेतु मंत्री जी को ज्ञापन
- साहब और कोरोना में खलयुद्ध
- साहित्य में साहित्य प्रवर्तक अडीशन
- सूधो! गब्बर से कहियो जाय
- सॉरी सरजी!
- स्टेट्स श्री में कुत्तों का योगदान
- स्याही फेंकिंग सूची और तथाकथित साली की ख़ुशी
- स्वर्गलोक में पारदर्शिता
- हँसना ज़रूरी है
- हम हैं तो मुमकिन है
- हाथ जोड़ता हूँ तिलोत्तमा प्लीज़!
- हादसा तो होने दे यार!
- हाय! मैं अभागा पति
- हिंदी दिवस, श्रोता शून्य, कवि बस!
- हिस्टॉरिकल भाषण
- हैप्पी बर्थडे टू बॉस के ऑगी जी!
- ख़ुश्बू बंद, बदबू शुरू
- ज़िंदा-जी हरिद्वार यात्रा
- ज़िम्मेदारों के बीच यमराज
- फ़र्ज़ी का असली इंटरव्यू
- फ़ेसबुकोहलिक की टाइम लाइन से
- फ़्री का चंदन, नो चूँ! नो चाँ नंदन!
- फ़्री दिल चेकअप कैंप में डियर लाल
- कविता
- पुस्तक समीक्षा
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-