दंबूक सिंह खद्दरधारी

15-01-2024

दंबूक सिंह खद्दरधारी

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 245, जनवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

डाकू दंबूक सिंह में हज़ारों कमियों के बावजूद वैसे तो बहुत सी छुपी ख़ासियतें थी, पर उसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि शहर के नेता लोकतंत्र को और भी मज़बूत बनाने के लिए अपनी स्वार्थ प्रणाली में जो भी बदलाव करते उन्हें वह अपने लूट के लोकतंत्र को मज़बूत करने हेतु तुरंत स्वीकार ही नहीं करता अपितु बिना आदेश अप्लाई भी कर देता। 

जब उसे पता चला कि उसके इलाक़े में आने वाले नगर निगम की महिला मेयर ने अपने परिवार की बेहतरी के लिए अपने मुँह बोले पति को अपना राजनीतिक सलाहकार नियुक्त किया है तो डाकू दंबूक सिंह ने भी उससे प्रेरणा ले तुरंत अपनी मुँह बोली बीवी को अपना राजनीतिक सलाहकार बना लिया ताकि घर का पद घर में ही रहे। घर के एक जीव को सरकारी रोटी का इंतज़ाम हो जाए और उसे कम से कम राजनीतिक सलाह तो सही मिले। आज सभी सलाहों में सबसे बड़़ी राजनीतिक सलाह मानी जाती है। 

उस दिन डाकू दंबूक सिंह जंगल की शिला पर बैठा पुलिस वालों से पंद्रह अगस्त को उपहार में मिली बंदूक साफ़ करते पता नहीं जनता के कल्याण को लेकर क्यों सोचने लगा कि तभी उसकी मुँह बोली बीवी ने उसकी बंदूक की नोक पर अपने होंठ रखे कहा, “हे मेरे मुँह बोले पति!”

“कहो हे मेरी मुँह बोली सती!”

“डियर, अब शहर और जंगल की लूट में कोई ख़ास अंतर नहीं रह गया है, पुलिस भी अब हमसे झूठी मुठभेड़ करते-करते थक गई है। तो फिर क्यों न ऐसा करें कि जंगल के पल-पल कम होते बीहड़ों के बदले अब शहर जाकर सम्मानजनक तरीक़े से धंधा आगे बढ़ाया जाए। अब मैं भी शहर की गंदी आबोहवा का आनंद लेना चाहती हूँ।”

“पर शहर में हमारे धंधे को ख़तरा नहीं हो जाएगा क्या?” डाकू दंबूक सिंह चिंतक हुआ।

“डाकू लुटेरों से खचाखच भरे शहर में तुम्हें कौन पहचानेगा मेरे दंबूक सिंह? अब टाइम बदल गया है। तुमसे बड़े डाकू अब शहर में मज़े कर रहे हैं। अपने को गिरफ़्तार करने वाली पुलिस से अपने गेटों पर पहरा करवाते। अगर हम सभ्य तरीक़े से डाके डालें तो हमें वहाँ कोई नहीं पूछेगा।”

“सभ्य तरीक़े से भी डाके डाले जाते हैं क्या? डाका तो सदा असभ्य ही रहा है।”

“नहीं। अब डाकों का रूप प्रारूप बदल चुका है। सभ्य तरीक़ों से की हर असभ्य लूट सभ्य होती है।”

“तो इसका क्या प्रोसीजर है?” सभ्य लूट के तरीक़े में डाकू दंबूक सिंह की रुचि दिखी तो उसकी मुँह बोली बीवी गद्‌गद्‌, “तो ऐसा करते हैं, चुनाव आ रहे हैं। तुम अगला डाका डालने की तैयारी के बदले चुनाव की तैयारी करो।”

“डाकू भी चुनाव लड़ सकते हैं क्या? मुझ इनामी डाकू को वोट कौन देगा?” 

“आजकल ईमानदारों को नहीं, इनामी, सलामी डाकुओं को ही जनता वोट देती है। उसे डाकू जितना सुरक्षित रख सकते हैं उतने ईमानदार नहीं।”

“मतलब??” डाकू दंबूक सिंह ने अपने राजनीतिक सलाहकार के पाँव छूने चाहे तो उसकी मुँह बोली बीवी ने अपने पाँव पीछे कर लिए, “पर नेता का तो जनाधार होता है। डाकू का क्या जनाधार!” 

“जनाधार जनता में लोकप्रिय होकर नहीं बनता हे मेरे मुँह बोले पति।”

“तो कैसे बनता है?” 

“जनता से झूठे वादे कर। जनता को जाली गारंटियाँ दे। जनता को सब्ज़-बाग़ दिखा। जनता को डरा धमका। देखो, जैसा उनका एरिया है, वैसा तुम्हारा भी है। उनके आतंक से उनके एरिए की जनता उनके चरण चूमती है तो तुम्हारे आंतक से तुम्हारे इलाक़े की।”

“सो तो है।” 

“जैसे वे अपने चुनाव क्षेत्र में पॉवरफ़ुल हैं उसी तरह तुम भी अपने इलाक़े में पॉवरफ़ुल हो। तुम्हारी पॉवर का डंका पूरे तुम्हारे इलाक़े में दिन रात बजता है कि नहीं?” 

“हाँ! तो?” 

“तो क्या! अब तुम्हारा चुनाव में खड़े होने का सही वक़्त आ गया है। अब तुम चुनाव लड़ने को अब पूरी तरह फ़िट हो। चुनाव लड़ने का सारा साज़ो सामान तो तुम्हारे पास है ही।”

“बिना चुनाव लड़े भी तो मैं लूट ही रहा हूँ। ऐसे में अपने एक भाई का हक़ क्यों मारना?” 

“क्योंकि फिर तुम जनता के प्रिय डाकू से प्रिय नेता हो जाओगे।”

“जनता का प्रिय नेता होने से भला डाकू होना नहीं है क्या?” 

“नहीं! जनता का प्रिय नेता होने से हमें जंगल छोड़ शहर में लूट पाने का लाइसेंस मिल जाएगा।” 

“फिर क्या होगा? जंगल की खुली हवा तो नहीं मिलेगी न वहाँ?” 

“जंगल के बदले हमें दिल्ली में सरकारी रिहाइश मिलेगी। हवा से लेकर हवाई जहाज़ की यात्रा तक सब फ़्री। जहाँ मन किया लूट पाते घूम आए, झूम आए।”

“जंगल में भी तो मस्ती है।” 

“ये मस्ती भी कोई मस्ती है दंबूक सिंह? जिस पुलिस से हम दिनरात कहने को ही सही छुपते फिरते हैं, तब वही हमारी सुरक्षा में हमारे बँगले में दिन रात तैनात होगी।”

“फिर क्या होगा?” 

“हम डाकू से लाटू हो जाएँगे। तब हमारे बच्चे भी धीरुभाई अंबानी स्कूल में पढ़ेंगे।”

“उन्हें पढ़ाकर करना क्या? पढ़कर भी तो डाकू ही बनना है। अच्छा, फिर क्या होगा? वहाँ फिर से धंधा जमाने में दिक़्क़त नहीं आएगी क्या?” 

“नहीं। इसी धंधे को आगे बढ़ाएँगे।”

“पर मेरे नमक हलाल कालिया, सांबा का क्या होगा?” 

“कालिया को कुश्ती महासंघ का प्रधान बना देंगे तो सांबा को धींगामुश्ती महासंघ का। और बाक़ियों को भी किसी न किसी इज़्ज़तदार सीटों पर फ़िट कर देंगे।”

“मतलब सब को इज़्ज़त की रोटी मिलेगी?” 

“बिल्कुल पक्का!”

“अरे ओ कालिया! अरे ओ सांबा! जल्दी मेरे चुनाव लड़ने की तैयारियाँ शुरू करो। अब मैं लोकतांत्रिक तरीक़े से डाके डालना चाहता हूँ। सारे अख़बारों में जंगल की आग की तरह ख़बर भिजवा दो कि अब जंगल को छोड़ डाकू दंबूक सिह जनता की रक्षा की फ़ील्ड में जलवे दिखाने दिल्ली जा रहा है। सारे मीडिया को ख़रीद लो! जितना हमने जनता से लूटा है, महालूट के लिए उसे दिल खोलकर जनता में अभी से बाँटना शुरू कर दो। डाकू दंबूक सिंह से जनता की पीड़ा अब और सहन नहीं हो रही। वह जनता पर अब और अत्याचार होते सहन नहीं कर सकता। जय भवानी! जय दिल्ली रानी! खादी ग्रामोद्योग से मेरे लिए लूट की खद्दर का इंतज़ाम करो,” इसी ख़ुशी में दंबूक सिंह की गैंग ने सौ राउंड फ़ायर किए। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
पुस्तक समीक्षा
कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें