जी ज़नाब का मिठाई सेटिंग दर्शन

01-12-2023

जी ज़नाब का मिठाई सेटिंग दर्शन

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 242, दिसंबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

अपने मुहल्ले के ‘जी ज़नाब’ मल्टी डायमेंशनल गुणी हैं। पूरे मुहल्ले को ही नहीं, पानी विभाग वालों को भी पता है कि वे पानी का मीटर रोकने के माहिर हैं। वे पानी के मीटर को कैसे रोकते हैं, ये बस वे ही जानते हैं। इस तकनीक को वे किसीको नहीं बताते। ठीक वैसे ही जैसे पुराने ज़माने के हकीम अपनी मृत्युबाण दवाइयों के फ़ार्मूले किसीको नहीं बताते थे। पानी विभाग वाले उनके मीटर बदल-बदल कर थक गए। पर क्या मजाल जो कोई भी पानी का मीटर उनके आदेश के बिना एक भी चक्कर लगाए। 

अपने पड़ोसी जी ज़नाब जी बिजली का मीटर रोकने के माहिर हैं। वे बिजली का मीटर इस ढंग से रोकते हैं कि जब बिजली विभाग वाले उनके मीटर की रीडिंग लेने आते हैं तो वे उसे दूर से ही चुटकी में चालू कर देते हैं। और मीटर की रीडिंग लेकर जाते ही उनका बिजली का मीटर आज़ादी के बाद से आज तक ग़रीब के विकास की तरह बंद। या कि यों कहें उनके घर में लगा बिजली का मीटर बिजली विभाग के इशारे पर चलता नहीं, पर उनके आदेश पर रुकता ज़रूर है, यह कहना ज़्यादा तर्कसंगत रहेगा। और इधर अपने घर में बिजली, पानी विभाग के लगे मीटर हैं कि पानी न आने के बाद भी चलता रहता है। घर की सारी लाइटें बंद करने के बाद भी मिल्खा सिंह बना रहता है। 

इस सबके साथ वे ग़ज़ब के छुपे उत्सव मिठाई दर्शन शास्त्री भी हैं, इस दिवाली को ही उन्होंने पता नहीं कैसे मुझसे इसका ख़ुलासा किया या कि उनसे अपनी तारीफ़ करते ग़लती से हो गया कि किस तकनीक से वे हर त्योहार पर ‘इसकी मिठाई उसके हाथ धर’ साल भर उनको जी भर गालियाँ देने वाले मुँहों से न चाहते हुए भी अपनी वाह! वाह! करवाते हैं। 

यह दीगर बात है कि मुहल्ले में उनकी किसीके साथ नहीं बनती या किसीकी उनके साथ नहीं बनती, यह तय कर पाना मुश्किल है। पर उनकी जो मुझे सबसे अच्छी बात लगती है, वह यह है कि कोई भी तीज-त्योहार हो, वे सबसे पहले मिठाई लेकर मुहल्ले के वर्षों से बंद पड़े घर तक में मज़े से मुस्कुराते हुए घुस जाते हैं। 

अबके फिर आदतन दिवाली को वे मेरे घर, मेरे उनके घर जाने से पहले मिठाई लेकर आए तो मेरा मन उन पर सारा साल उनकी पीठ पीछे थूकने के बाद भी उनके चरण छूने को मचल उठा। जिनके मुँह पर आप सीधे शिष्टाचार वश नहीं थूक सकते, उन पर उनकी पीठ पीछे तो आप थूक ही सकते हैं न! आख़िर किसीके हिस्से का थूक आप अपने मुँह में कब तक इकट्ठा किए रहेंगे? वाह! किस नेचर का जीव है! सारा साल सारे मुहल्ले को अुंगलियों पर नचाता रहता है और जैसे ही कोई भी त्योहार आए, मिठाई लेकर सबके घर सबसे पहले बधाई देने पहुँच जाता है। 

वे आए तो मेरे जी-भर गले लगे। ठीक वैसे ही जैसे चौदह बरस का बनवास काटकर जब राम अयोध्या आए थे तो वे भरत के गले थे। मेरे गले लग मेरी गरदन में दर्द का मुझे अहसास करवा वे मुझे गीली बधाई देते बोले, “दिवाली की बधाई बंधु! तुम्हारा घर धन धान्य से भरा रहे। तुम्हारा जीवन काममय हो कर अखंड दुयश को प्राप्त करे। ऑफ़िस में तुम्हारी खाने, चुराने की भावना और दृढ़ हो। तुम्हारे घर में काम का वास हो! अगली दिवाली तक अस्वस्थ रहो!” हिंदी पर उनकी पकड़ कमज़ोर होने के बाद भी उन्होंने मुझे हिंदी में सगर्व हँसते हुए त्योहारी शुभकामनाएँ दीं तो मन गड़मड़ हुआ। 

“शेम टू यू!” असल में मुझसे ‘स’ को कभी-कभी ख़ुशी में ‘श’ कहा जाता है। ये वे अच्छी तरह जानते थे, सो बुरा नहीं माने। जब मैं अपनी गरदन के दर्द को हँसते हुए सहलाने लगा तो उन्होंने मिठाई का डिब्बा मेरी ओर किया। अजीब लोग है! पहले गले लगने के बहाने त्योहार की ख़ुशी के मौक़े पर गरदन मरोड़ते हैं और फिर मुस्कुराते हुए मिठाई का डिब्बा आगे कर देते हैं क्षमा याचना सहित। 

मुझसे रहा न गया तो मैंने उनसे पूछ ही लिया, “जी ज़नाब जी! बुरा न मानें तो अबके दिवाली के पावन अवसर पर सादर एक अपील करना चाहूँगा आपसे?” 

“एक नहीं सौ अपीलें करें। मेरे पास एक अपील की सैंकड़ों दलीलें ही दलीलें हाज़िर हैं दिवाली के ऑफ़रों की तरह।” 

“आप सारा साल तो अपने तक से सीधे मुँह बात नहीं करते और हर तीज त्योहार को सबसे पहले . . .”

वे कुछ देर मुस्कुराए। फिर कुर्सी पर लेट से बैठ गए। उसके बाद एक महान उत्सव शास्त्री का रूप धारण कर बोले, “हे उत्सव प्रिय जीव! शुद्ध से शुद्ध मिठाई जितनी अशुद्ध होती है त्योहारों के अवसर पर वह उससे भी अधिक अशुद्ध होती है, माननीय की तरह जो बस बाहर से चमकदार दिखती है।”

“तो?” 

“इसे खाकर शर्तिया बीमार हुआ जा सकता है।” 

“मैं तो हर बार ही दिवाली की मिठाई खाकर बीमार होता रहा हूँ जी ज़नाब जी! मतलब आप इस बहाने त्योहार की आड़ में भी . . .?” 

“नहीं। मैं तुम्हारी तरह दिवाली को घर में अशुद्ध मिठाइयों के ढेर लगाने वालों में से नहीं। बताना तो नहीं चाहता, पर मेरे अन्य मैनेजमेंटों की तरह इसे तुम मेरा त्योहारी मिठाई मैनेजमेंट भी कह सकते हो। मैं बस, दिवाली को एक डिब्बा मिठाई का लाता हूँ। तुम्हारी तरह बीस तीस नहीं।” 

“फिर?” 

“फिर क्या! अभी तुम्हारे घर मिठाई लेकर आया हूँ।” 

“जी!” 

“तय है तुम मेरे घर थोड़ी देर बाद मिठाई का क़र्ज़ चुकाने मिठाई का डिब्बा लेकर आओगे ही। बंदा दूसरे क़र्ज़ चुकाए या न, पर त्योहारों पर मिठाई का क़र्ज़ ज़रूर चुकाता है।” 

“तो?” 

“तो मैं उस डिब्बे को लेकर अगले पड़ोसी के घर उसे दिवाली की बधाई देने चला जाऊँगा।” 

“फिर?” 

“फिर वह भी मिठाई का क़र्ज़ उतारने मेरे घर मिठाई का डिब्बा लेकर आएगा।” 

“फिर?” 

“फिर मैं क़ायदे से उसी डिब्बे को अगले पड़ोसी के घर दिवाली की बधाई देने मुस्कुराते हुए चला जाऊँगा। और इस तरह मैं पूरे मुहल्ले में सबको मिठाई बाँट दूँगा। अंत में अपने घर नक़ली मिठाई का एक डिब्बा ही बचेगा। पुण्य बटोरते हुए उसे मंदिर में भगवान के श्री चरणों में समर्पित कर आऊँगा। भगवान भी प्रसन्न! मैं भी प्रसन्न और पुजारी तो प्रसन्न ही प्रसन्न। तुम्हारी तरह नहीं कि मुहल्ले के आधे घरों को मिठाई लाए और आधों को छोड़ दिया। और बाद में जिसने मिठाई के बदले मिठाई नहीं दी, उसे अगली दिवाली तक गालियाँ देते रहे। ऊपर से घर में लग गया नक़ली मिठाइयों का ढेर जो बाद में न खाते बने न फेंकते!” 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
पुस्तक समीक्षा
कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें