चुनाव करवाइए, कोविड भगाइए
डॉ. अशोक गौतमइस कोरोना ने साल भर से धुआँ दे रखा है। बीवी का धुआँ उसके धुएँ के आगे सुई की नोक भी नहीं। सरकार के कहने पर कि इससे बचने के लिए ये करो, उससे बचने के लिए वो करो से तंग आकर मन करता कि जो वह कहीं फ़ेस जो टू फ़ेस मिल जाए तो उससे दिल खोलकर हाथापाई कर लूँ कि यार! ये सब हो तो रहा है, पर हो क्या रहा है? पहले ही परेशानियाँ ज़िंदगी में क्या कम थीं जो एक तुम भी आ गए!
दस दिन तक डरने के बाद, इसके उसके डराने के बाद हिम्मत कर कल जब अपने को टीका लगवा कर आ रहा था कि वह रास्ते में मिल गया। मुझे देखते ही बोला, "लो, कर लो मुझसे बात! मैं ही वह हूँ जिससे बचने के लिए तुम टीका लगवा कर रहे हो।"
"तो मतलब? तुम्हीं मुझे मर्ज़ी का पानी का बिल देने वाले हो?"
"नहीं।"
"तो तुम्हीं मर्ज़ी का बंद मीटर का बिजली का बिल देने वाले हो?"
"नहीं।"
"तो तुम आख़िर हो कौन?"
"मैं कोरोना हूँ। कोरोना बोले तो कोविड उन्नीस। पिछले एक साल से जिससे बचने के लिए तुम थालियाँ बजाते रहे हो। घर की बिजली बंद कर दीए जलाते रहे हो। काढ़े के नाम पर अनाप-शनाप पीते पिलाते रहे हो। गले को गीजर बनाते रहे हो। सैनिटाइज़र से पीपीई किट में हेराफेरी कर लाखों करोड़ों बनाते रहे हो। मेरे नाम पर जनता को उललू बनाते रहे हो।"
"अच्छा तो तुम बदतमीज़ वही जिसने समाज में उत्पात मचा रखा है?"
"हाँ! पर दोस्त बुरा मत मानना! मेरी आड़ में समाज में बदतमीज़ियाँ तुम भी कम नहीं कर रहे," कह वह मेरी आँखों में झाँकने लगा तो मैंने भी उसकी आँखों में झाँकना शुरू कर दिया। जवानी में ज्यों अपनी प्रेमिका की आँखों में झाँका करता था। जब उसने मेरी आँखों में अपनी आँखों से अधिक ग़ुस्सा देखा तो वह झेंप गया।
"अच्छा तो तुम वही हो जिसकी वजह से दूल्हा दुल्हन हाथों में मेहंदी लगाने के बदले सैनिटाइज़र लगा रहे हैं?"
"हाँ! तो इसमें बुरा क्या है? गृहस्थी की चक्की में कुछ दिन और पिसने से बचे रहें तो इसमें क्या बुरा है?"
"तो तुम वही हो जिसकी वजह से पंडितजी दुल्हा दूल्हन के फेरे लगाने के बदले अपने ही फेरे लगाने को मजबूर हैं?"
"जी हाँ!" उसने अपनी सदरी के कॉलर खड़े करते कहा।
"तो तुम वही हो जिसकी वजह से मैरिज हालों में दूल्हे वालों के बदले भूत नाच रहे हैं?"
"हाँ मित्र! पर यार! थोड़ी दूर रहकर बात करो," कोरोना ने सहमते हुए कहा। उसे पता जो चल गया था कि मैं टीका लगवा कर आ रहा हूँ। इसलिए अब मैं किसी पर भी चढ़ने का अधिकारी हो गया हूँ।
"यार! धरती के इस छोर से उस छोर तक तुम बड़ा ऊधम मचाए हो। इतना टाइम हो गया तुम्हें उधम मचाते हुए। अभी भी नहीं थके क्या? देख सको तो देखो, बेचारे कवि, कवि गोष्ठियों में कविता सुनाने को कमज़ोर हुए जा रहे हैं। उनके मुँह सिल गए हैं। कभी उनके बारे में भी कुछ सोचा क्या? यार! शर्म आनी चाहिए तुम्हें। दुनिया की अर्थव्यवस्था तो चौपट कर ही दी पर अब कवि के भूखे पेट पर भी लात? देखो, कल को जो कवि ही न रहा तो कौन भूखे पेट जनता के पेट में पनीर पाएगा? जो कल को कवि न रहा तो अपनी फटी धोती सँभालता कौन जनता को कल्पना का कोट पैंट पहनाएगा? कल को जो कवि न रहा तो... तुमने फिर स्कूल बंद करवा दिए, तुमने फिर से मंदिर बंद करवा दिए। दिन को ही रात का कर्फ़्यू लगवा दिया। तुमने फिर मंदिर से मेरे आराध्य भगवा दिए। तुमने सरकारी आयोजनों पर रोक लगवा दी। बेचारों को मुर्ग-मुसल्लम के बदले मुर्गों के पंखों से पेट भरना पड़ रहा है। तुमने देश की मर-मर कर दौड़ रही अर्थव्यवस्था पर जोंक चिपका दी। पहले ही जोंके क्या कम थीं जो....तुमने दो रोटी के लिए ज़िंदगी दाँव पर लगवाने वाले ज़िंदगी के हाथों ही मरवा दिए। तुमने भक्तों को भगवान से दूर कर दिया। तुमने आदमी का दर्प चूर-चूर कर दिया। देख सको तो देखो, जो आदमी भगवान के आगे सिर नहीं झुकाता था, वह कमरे में बंद हो तुम्हारे आगे किस तरह घुटने टेके लेटा है। तुमने वर्क फ़्रॉम होम होने के चलते पति को पत्नी से परेशान कर दिया। वह बेचारा ऑफ़िस का काम करने के बदले घर के काम करने का माहिर हो गया। आख़िर अब तुम चाहते क्या हो?"
"कुछ नहीं! मैं क्या चाहूँगा? मेरे चाहने न चाहने की हर वजह तुम ही दोस्त!"
"हम? वो कैसे?"
"तुम मानते ही नहीं तो मैं क्या करूँ? तुममें सबसे गंदी बीमारी कोई है तो बस, यही कि तुम ग़लती ख़ुद करते हो और दोष दूसरों पर मढ़ते हो। बड़ा ग़ुरूर है न अपने आदमी होने पर तुम्हें? अब टूटा कि नहीं? अच्छा चलो, टीके का दर्द भुला बताओ, अब तुम चाहते क्या हो?"उसने मुझसे सहानुभूति जताते पूछा तो मैंने लाचार होने के बाद भी जीत की उम्मीद लिए कहा, "अब मैं तुमसे तुम्हारा इलाज चाहता हूँ। तीसरी या चौथी लहर आ जाने के बाद नहीं, अभी और आज चाहता हूँ।"
मेरे कहने पर उसने रुआँसे होते मेरे कंधे पर हाथ रखते कहा, "यार! मैं भी कब चाहता हूँ कि ... ये सब तुम्हारे कर्मों का फल है। माना, मैं पहले उनकी ग़लती से आया था, लेकिन अब बार-बार तुम्हारे द्वारा सादर बुलाया जा रहा हूँ। सच कहो तो मैं इस सरकार से मैं बहुत तंग आ गया हूँ। जितनी बेदर्दी से वह मेरे साथ खेल रही है उसे देखकर ग़ुस्सा तो बहुत आता है पर..."
"अच्छा चलो छोड़ो सरकार को! वह किसके साथ नहीं खेलती? बताओ! तुम्हारा इलाज क्या है?"
"वाह यार! रावण से ही उसके मरने का कारण पूछते हो?"
"तो तुम्हारे भीतर भी नाभि के पास अमृतकुंड है जो बार-बार टीका लगवाने के बाद भी बंदा पॉजिटिव हुआ जा रहा है?"
"अमृत कुंड तो रावण के साथ ही चला गया दोस्त! अब तो पवित्र से पवित्र जीवात्मा की नाभि में भी घोर हलाहल भरे विष कुंड हैं। मेरे कोई विभीषण सरीखा भाई तो है नहीं, क्योंकि वे सब आजकल राजनीति में चले गए हैं जो अपनी पार्टी बदल दूसरी पार्टी की लातों अपनी ही पार्टी को मरवा रहे हैं। सो, अपना विभीषण ख़ुद होते मैं ही तुम्हें बता देता हूँ– जहाँ-जहाँ कुर्सी के लिए चुनाव कराया जाएगा, वहाँ-वहाँ से मुझे कोसों दूर पाया जाएगा।"
"वो क्यों? चुनावी भीड़ से डरते हो क्या?"
"नहीं! नेताओं की भीड़ से बहुत डरता हूँ दोस्त! उनकी जनहित में इन दिनों की घोषणाएँ मेरा गला घोंट देती हैं। देश की जनता में लोकतंत्र के अर्थ की समझ का अभी भी भारी अभाव है। नेता में देश की सेवा को लेकर नहीं, कुर्सी को लेकर भारी तनाव है। इसलिए आज की तारीख़ में मेरा इलाज कोई टीका, सैनिटाइज़र नहीं, केवल और केवल चुनाव है। चुनाव वाले एरिया से मैं कोसों दूर रहता हूँ। क्योंकि चुनाव वाले एरिया में इनका उनका खेला देख मैं बहुत आहत होता हूँ!"
"ऐसा क्या?"
"अपनी क़सम! मैं चुनाव में किए गए नेताओं के झूठे वादों से वैक्सीन से भी अधिक डरता हूँ," कह उसने मेरे पाँव छुए और आगे हो लिया।
....तो घर घर में ड्यू न होने के बाद भी तत्काल जैसे-तैसे चुनाव करवाइए और महामारी से शर्तिया छुटकारा पाइए।
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