स्टेट्स श्री में कुत्तों का योगदान
डॉ. अशोक गौतमगए वे दिन जब आदमी की पढ़ाई उसकी स्टेट्स सिंबल होती थी। उन दिनों समाज में जो नक़ल-नुकल मारकर भी थोड़ा बहुत पढ़-लिख जाता था तो, गधे तो गधे आदमी तक उसकी इज़्ज़त करते थे। और तब पढ़ा-लिखा आदमी अपने को ख़ुदा से कम न आँकता था। कई बार तो छोटा-मोटा ख़ुदा भी जो उसको सामने से आता देखता तो या तो वह अपना रास्ता बदल लेता या फिर उसके आगे सिर नीचा किए आगे हो सरक लेता, सिर झुकाए।
पर समय बदला। पढ़े लिखों को आदमी तो गधे समझने ही लगे, गधे भी उसे गधा समझने लगे। समाज को पढ़े-लिखों से घिन्न आने लगी। कारण शायद ये भी रहा हो कि आज के समाज को नुक़सान जितना पढ़े-लिखों ने पहुँचाया है उतना अनपढ़ों ने नहीं। आज की तारीख़ में जो कोई अपनी बरबादी करवाना चाहता हो वह ख़ूब पढ़े। पीछे बढ़े। लोगों की दृष्टि में जो आज जितना पढ़ा-लिखा है आज वह उतना ही हय है।
तो मित्रो! आज का दौर डिग्रियों का दौर नहीं, एक से बढ़ कर कुत्तों दौर है। डिग्री खरीदना आज जितना आसान है कुत्ता खरीदना उतना ही मुश्किल। इसीलिए वे जो अपने को शुद्ध नस्ल का बुद्धिजीवी कहने वाले तक भी सरस्वती के उपासक होने के बदले वीसी के कुत्ते के उपासक होने के बाद ही प्रोफ़ेसरी हासिल कर पाए। और फिर वीसी के कुत्ते को सैर करवाते-करवाते उन्होंने बीसियों विदेशों के चक्कर तक लगा डाले।
कुत्तों के ज़माने में आज जिसके पास कुत्ता नहीं, उसके पास सब-कुछ होने के बाद भी वह ग़रीब है। इसलिए समाज की नब्ज़ पहचानने वालों ने अब उपाधियों के बदले कुत्ते रखने शुरू कर दिए है। जिसके पास कम पैसे हैं वह यहाँ से ख़रीदी डिग्री की जगह देशी कुत्ते से समाज में सम्मान पा रहा है और जिसके पास विदेशी डिग्री की तरह विदेशी कुत्ता ख़रीदने को पैसा है वह विदेशी कुत्ता ख़रीद उसे हर किसी के घर के आगे सुबह-सुबह हर किसी की ओर पीठ किए, अपना पेट पकड़े, अपने डियर को पोटी करवाने में मग्न है। मानो वह मेरे मुहल्ले की गड्ढा गड्ढा सड़क पर नहीं लंदन के किसी मॉल पर घूम रहा हो। मंच से लेकर गली तक जो कुत्तों की तरह भौंकता है, समाज उसके आगे सिर नवाता है।
मेरे मुहल्ले में अब कुत्तों वाले आदमी कम आदमियों वाले कुत्ते अधिक रहते हैं। कल तक जिस भी घर की ओर देखता था तो वहाँ से जब-जब कुत्तों की भौंकने की आवाज़ आती थी तो मालिक थे कि समाजोपयोगी धंधा करने के बदले उन्हें चुप कराने में अपनी सारी अनर्जी इस्तेमाल करते थे। पर अब वही कुत्ते कुलीन हो, अपने तथाकथित मालिकों को चुप करवाने के लिए उन्हें डाँट-डपट रहे होते हैं। पर एक मालिक हैं कि... अब मेरे मुहल्ले में दिन-रात आदमियों के भौंकने की आवाज़ें आती रहती हैं। इसे कहते हैं अनुरणन का सिद्धांत! आदमियों ने कुत्तों से भौंकना सीख लिया और कुत्ते आदमी की तरह मज़े से बतियाना सीख गए।
मेरे मुहल्ले में अब ले देकर बिन कुत्ते के बस एक ही घर बचा था। और वह घर था उनका, जिनके घर के सड़े गेट पर यह फट्टी नहीं टँगी थी कि कुत्तों से सावधान! इसलिए उनके घर बेख़ौफ़ चला जाता था कि मुहल्ले में कम से कम एक घर तो ऐसा है जिस घर में कुत्ते नहीं, आदमी रहते हैं।
वैसे वे आदमी हैं बहुत कुछ कुत्तों जैसे ही। जहाँ से जब मन करता, काट ही लेते। जैसे मन करता प्यार-प्यार में कुत्तों की तरह चाट ही लेते। बस, उनमें और कुत्ते में इतना फ़र्क था कि वे आदमी थे, सो हँसते हुए काटते-चाटते थे। जब वे काटते-चाटते थे तो कुत्तों के काटने-चाटने के इंजेक्शन नहीं लगवाने पड़ते थे।
पर कल शाम ज्यों ही उनके घर की ओर बेख़ौफ़ राजनीतिक गप्पशप्प लड़ाने को क़दम बढ़ाए कि उनके सड़े गेट पर मेरा मुँह चिढ़ाती फट्टी टँगी दिखी - कुत्तों से सावधान!
मित्रो! कुत्ते से सावधान तो हर घर के बाहर देखा था। पर यार! अपना बंदा तो कुत्ते के बदले कुत्तों वाला हो गया! मतलब पूरा परिवार ही... ये मैं नहीं कह रहा था। उनके सड़े गेट पर टँगी फट्टी मेरा मुँह चिढ़ाते कह रही थी- ले बच्चे! अब किसके घर जाता है सड़ी राजनीति पर तबसरा करने।
हिम्मत करके डरता-डरता उनके घर घुस ही गया। देखा तो वे कुत्तों को सोफ़ों पर बैठा ख़ुद नीचे ज़मीन पर बैठे एक नहीं, दो कुत्तों को पुचकार रहे थे। काश! बीवी को यों पुचकारते तो चाय तो गरम-गरम तो मिला करती। मैं उनकी उस भाव भंगिमा को देख परेशान! यार! जो बंदा बीड़ी तक दूसरों के बंडल से निकाल शान से पीता रहा हो, वह भी कुत्ते वाला हो गया! वह भी एक नहीं, दो दो कुत्तों वाला! घर में दो सदस्य तो दो कुत्ते। मतलब, एक कुत्ते के पीछे एक वोटर!
"बंधु! तुम भी कुत्ते, आई मीन कुत्ते वाले हो गए?”
"हाँ यार! क्या है न कि डॉक्टर से अपनी बीमारी का फ़र्ज़ी बिल बनवाने का बीस हज़ार मिला था। सो सोचा कि इस पैसे को किसी नेक काम में लगा दूँ तो.... सो....”
"तो ऐसी क्या बीमारी लिखवा दी थी तुमने अपने को?”
"वह तो डॉक्टर ही जाने! उसने तो बस मेरे साथ बीस परसेंट तय किया था,” कह वे अपने कुत्ते से मेरा परिचय करवाने लगे, "डियर जिम! ये है मेरा ख़ास दोस्त! चलो, इसे शेक हैंड करो। चलो, इसको वेलकम कहो,” और मज़े की बात! वे जो मुझसे कभी हाथ नहीं मिलाते थे, उनका कुत्ता उठा और उसने मुझसे हाथ मिलाया तो उनसे कुलीन शालीन मुझे वह कुत्ता लगा। तब पता चला कि आजकल लोग घरों में रिश्तेदारों के बदले कुत्ते क्यों रखते हैं? शायद उनसे ही कुछ संस्कार-वंस्कार सीख लें।
"मेरी मानो तो अब लगे हाथ एक स्वदेशी, विदेशी कुत्ता तुम भी ले ही लो! अब तुम ही बस एक मुहल्ले में कुत्ते कम कुत्ते वाले होने से रह गए हो,” उन्होंने मुझे अपनी ओर से समझदार होने के चलते नेक सलाह दी तो मैंने कहा, "पर.... जब मुहल्ले में इतने कुत्ते वाले हो गए हैं तो ऐसे में...”
"देखो दोस्त! अपना कुत्ता अपना होता है। कुत्ता आज की संस्कृति की अनिवार्य ज़रूरत है। सभ्य आदमी आज रोटी के बिना रह सकता है पर वह कुत्ते के बिना नहीं रह सकता। वह जानता है कि कुत्ता आज की तारीख़ में सुसंस्कृत दिखने होने के लिए कितना ज़रूरी है? तुम चाहे बीएमडब्लू में घूमो, चाहे सीएमडब्लू में! पर जब तक साथ की सीट पर आदमी से उम्दा नस्ल का कुत्ता न सज़ा हो तो कोई नोटिस नहीं लेता। लोग गँवार ही समझते हैं। साले ने कमा लिए होंगे चोरी-चकारी करके! बिन कुत्ते के तो लोग ईमानदार तक पर शक करते हैं।"
"मतलब??”
"स्टेट्स श्री में अभिवृद्धि यार स्टेट्स श्री में अभिवृद्धि! इस स्टेट्स श्री में अभिवृद्धि के लिए साथ में बीवी-हसबेंड, प्रेमी-प्रेमिका नितांत निजी हों या न, पर नितांत निजी कुत्ता अति आवश्यक है, और घर के गेट पर ये फट्टी कि- कुत्तों से सावधान,” कह वे नए लाए दूसरे कुत्ते को किस्सी करने लगे तो भाभी मेरी ओर देखने लगीं, पता नहीं क्यों?
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