हिस्टॉरिकल भाषण
डॉ. अशोक गौतमजैसे ही सरकारी विभागों को पता चला कि नेताजी उनके मंडल में पड़ने वाले बाढ़ग्रस्त क्षेत्र का औचक दौरा करने आने वाले हैं तो उनके हाथ-पाँव फूल गए। यार! ये नेता भी न! जब देखो! हमारी भलीचंगी नींद ख़राब कर देता है।
उस मंडल के सरकारी विभागों के हर अफ़सर को यह भी पता था कि नेताजी को सबसे अधिक कुछ पसंद है तो बस भाषण सुनने के लिए श्रोता। वे चाहे ज़िंदे हों चाहे मरे हुए। पिछली दफ़ा उन्होंने वहाँ के श्मशानघाट के जीर्णोंद्धार के मौक़े पर क्या ग़ज़ब का भाषण दिया था कि वहाँ जले वाह! वाह! कर उठे थे । जहाँ पर उन्हें उनके नंबर माफ़िक श्रोता उनका भाषण सुनने को न मिलें वे वहाँ के सरकारी विभागों के अफ़सरों की ऐसी क्लास लगा कर रख देते हैं कि पूछो ही मत। भले ही अपने आप वे कभी क्लास में न गए हों।
नेताजी का बाढ़ग्रस्तों को सांत्वना देने का कार्यक्रम ज्यों ही फ़ाइनल हुआ तो सब अफ़सरों को पता होने के बाद भी अहतियान नेताजी के पीए ने सबको फ़ैक्स कर साफ़ कर दिया कि वे अबके बाढ़ के बीच बाढ़ग्रस्तों को संबोधित कर इतिहास रचना चाहते हैं। भीड़ कम न हों वरना. . . हालाँकि दूसरी ओर अफ़सरों को पता था कि बाढ़ से डरकर अब वहाँ बचे ही कितने हैं? जो जैसे-कैसे बाढ़ से बचे थे, वे अपने अपने रिश्तेदारों के जा चुके थे।
सरकारी विभागों के अफ़सरों ने तब बहुतों से अपने घर छोड़ कर वहाँ से जा चुकों से निवेदन भी किया कि ’हे बाढ़ से अपने बूते पर बचे शेष जीवो! नेताजी तुम्हें संबोधित करने आ रहे हैं। आज की दिहाड़ी ले लो पर अपने प्यारे बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में केवल एकबार आओ तो सही! देखो, तुम्हारे गिरे घर तुम्हें पुकार रहे हैं। देखो! बाढ़ में डूबकर मरे मवेशी तुम्हें पुकार रहे हैं!’ पर कोई भी वहाँ आने को तैयार न हुआ। होता भी क्यों, उसी बाढ़ से तो वे जान बचाकर भागे थे जैसे कैसे।
और. . . सरकारी विभागों की अपील अबके फिर बेकार गई।
तब हर विभाग के अफ़सर ने एक सा ही सोचा कि क्यों न अपने ही विभाग के कर्मचारियों को उनके परिवार सहित फटे-पुराने कपड़े पहना बाढ़ के पानी में कुछ देर के लिए नेताजी के सामने खड़ा कर दिया जाए! वे सरकारी कर्मचारी हैं, जनता नहीं। किसी और के प्रति ईमानदार होना उनका दायित्व बनता हो या न पर सरकार के प्रति ईमानदार होना उनका नैतिक दायित्व है। वैसे भी वे साल के बारह महीने हराम की ही तो खाते हैं। नेताजी के लिए एक दिन जो घंटा दो घंटा बाढ़ के पानी में खड़े हो लेंगे तो कौन से मर जाएँगे?
. . .और सब सरकारी अफ़सरों ने आपस में बात कर तत्काल यह आदेश निकाल डाले, "विभाग के तीसरी श्रेणी के कर्मचारी से लेकर फ़र्स्ट क्लास तक सबको सूचित किया जाता है कि कल नेताजी हमारे क्षेत्र के बाढ़ग्रस्त इलाक़े का दौरा करने वाले हैं। उनकी दिली-इच्छा है कि हम सब कल सुबह दस बजे शार्प तय बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के पानी के बीच इकट्ठा हो जाएँ। . . .और हो सके तो जिन-जिन की फ़ाइलें हमारे ऑफ़िस में फाँसी का फंदा लगाने को तैयार हैं, उन्हें भी आदेश दिया जाए कि वे जो कल अपने अपने परिवारों, रिश्तेदारों के साथ, अपने पड़ोसियों के साथ वहाँ पहुँचेंगे तो उनकी बरसों से धूल फाँकती फ़ाइलों की धूल परसों दस बजे ऑफ़िस खुलते ही झाड़ दी जाएगी। जो हमारे विभाग का कर्मचारी अपने साथ अपने परिवार के इलावा जितने बंदे और लाएगा उसे उतने दिन का विशेष अवकाश दिया जाएगा। जो इस आदेश में कोताही करेगा, झूठा तो झूठा, सच्चा मेडिकल प्रस्तुत करेगा, उसके ख़िलाफ़ कड़ा अनुशासनात्मक एक्शन लिया जाएगा।"
विभागीय आदेश सुन सारे सन्न! पर हो कुछ नहीं सकता था। अपने-अपने विभाग की इज़्ज़त का सवाल था, सो सब अपने पूरे परिवार को फटे-पुराने कपड़े पहना नौ बजे बाढ़ वाली तय जगह पर अपने अपने हाथों में ऑल-आउट ले बाढ़ के पानी में खड़े हो गए।
रेस्ट हाउस में जी-भर भक्षण करने के बाद नेताजी के स्वागत के लिए आए अफ़सरों से पूछा, "तो कितने लोग हैं बाढ़ के पानी में हिम्मत से खड़े बाढ़ के पानी के बीच मेरा क्रांतिकारी भाषण सुनने को बेताब?"
"सर! कम से कम यही कोई दो-तीन हज़ार तो होंगे ही। सर! वे सब बेसब्री से आपका इंतज़ार कर रहे हैं सर कि आप कब जैसे वहाँ पहुँचें और आपके ओजस्वी विचार उनके पानी में डूबे दिमाग़ में क्रांति ला दें। अब आप जो उन्हें संबोधित करने चलें तो वे पानी से बाहर निकल अपने अपने नज़दीक के हॉस्पिटल को जाएँ।"
"गुड! इतने बच गए इस बाढ़ में अबके भी? हमने तो सुना था कि. . . मतलब मीडिया सनसनी फैला रहा था?"
"सर! मीडिया काम तो है ही सनसनी फैलाना! जो तिल का ताड़ न बनाए वह मीडिया ही काहे का! सर! बच तो और भी जाते, पर क्या है न कि हमारी सरकारी मोटर बोटों का डीज़ल ख़त्म हो गया था।"
डीसी साहब ने सिर नीचा किए कहा तो नेताजी मुस्कुराते बोले, "होना भी चाहिए। ऐसा होने से ही तो जनसंख्या नियंत्रण में होती है डियर! तो अब चलें. . .!"
"जी सर!" डीसी साहब के कहते ही उन्होंने अपना पायजामा खोलकर उनको थमाया तो डीसी साहब ने पूछा, "सर ये क्या? बिन पायजामे के?"
"नेता बिन पायजामे के ही अच्छा लगता है। नंगी जनता के बीच पायजामा पहन कर जाओ तो उसे बहुत बुरा लगता है भाई ! हम इतने इमोशनलेस भी नहीं कि. . .," नेताजी ने मुस्कुराते हुए कहा और नंगी टाँगों के रेस्ट हाउस से बाहर निकल गए।
घंटे भर में नेताजी को कभी इस कंधे तो कभी उस कंधे उठाए सरकारी अफ़सरों का काफ़िला बाढ़ग्रस्तों के बीच पहुँच गया। उन्होंने बाढ़ के पानी में कमर-कमर तक खड़े हुए विभागीय कम अभागीय बाढ़ग्रस्त कम विवशताग्रस्त असहाय देखे तो उनका मन भर आया। तब उन्होंने अपने कुरते के किनारे से अपने मन को पोंछने के बाद कहा, "अरे! हमें तो पता ही नहीं था कि हमारे घर के इतने लोग बाढ़ का शिकार हुए हैं? मतलब, अबके हथिया से मिलकर इंद्र ने बदतमीज़ी की सारी सीमाएँ पार कर दीं? कोई बात नहीं? हम उसे भी देख लेंगे। बस, एकबार मौसम ठीक हो जाए।"
उसके बाद उन्होंने एकाएक एक अफ़सर के कंधे पर चढ़ बाढ़ग्रस्तों को संबोधित करना शुरू किया, "हे मेरे क्षेत्र के बाढ़ का अपने दम पर मुक़ाबला करने वाले बाढ़ग्रस्तो! तुम्हारे जज़्बे को मेरा सलाम! मुझे यह देखकर प्रसन्नता हो रही है कि बाढ़ के पानी के बीच तुम अभी भी सही सलामत हो। किस सरकारी राशन की दुकान का आटा खाते हो यार? तुम्हें सलामत होना भी चाहिए। अभावों से भरे देश को ऐसे ही साहसी नागरिकों की ज़रूरत है। ये तो कोई बात नहीं होती कि ज़रा सी धूप लगी तो चीखते हुए सरकारी सहायता! सहायता! गाने लगे। साहस हो तो ऐसा! बाढ़ में फँसी हे साहसी आत्माओ! देश को आगे ले जाने को आतुर नेताजी का एकबार फिर सलाम स्वीकार करो। हमें ऐसे ही नागरिकों की ज़रूरत है। वाह! बाढ़ में सगर्व खड़े होने पर भी चेहरे पर कितनी प्रसन्नता! इसे कहते हैं विशुद्ध राष्ट्रवादी भावना! देश को ऐसे ही वफ़ादार नागरिकों की ज़रूरत है जो बेरोज़गार हों, पर रोएँ नहीं। आंकठ बेरोज़गारी में डूबने पर भी चेहरे पर अक्षुण्ण प्रसन्नता बनाए रखें। देश को ऐसे ही नागरिकों की जरूरत है जो महँगाई में रोएँ नहीं। आंकठ महँगाई में डूबे होने के बाद भी चेहरे पर प्रसन्नता बरक़रार रखें। भूख की कोई सीमा नहीं। देश का श्रेष्ठ नागरिक वही जो पेट पर नियंत्रण रखे। देश को आज तुम जैसे आदर्श नागरिकों की सख़्त ज़रूरत है। लोकतंत्र तुम्हारे इस जज़्बे को हमेशा याद रखेगा।
मित्रो! ये जो बाढ़ है? हम इससे पूछना चाहेंगे कि ये बिना बताए कैसे आई? लगता है, इसके पीछे नापाक पाक का हाथ है। वह नहीं चाहता कि हमारे देश का विकास हो! कोई बात नहीं! हे बाढ़ में सदा प्रसन्न रहने वालो! हम इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाएँगे। तुम हिम्मत बनाए रखो! हम तुम्हें न्याय दिलाएँगे। चाहे मरने के बाद ही सही! हम राजनीति में आए ही हरेक को न्याय दिलाने के लिए हैं. . .," वे बोले जा रहे थे और सरकारी लोक संपर्क विभाग वाले उनके विभिन्न कोणों से अख़बारों के लिए बढ़िया-बढ़िया फोटो खींचे जा रहे थे।
अचानक उन्हें सामने से एक मच्छर उड़ता हुआ अपनी ओर आता दिखाई दिया तो उन्होंने अपने भाषण को लगाम देते कहा, "तो हे मेरे क्षेत्र के बाढ़ में जैसे-कैसे बने रहने वाले साहसी नागरिको! तुमसे मिलकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। इतनी कि जितनी मुझे अपनी बीवी से मिलकर भी नहीं होती। भगवान तुम्हारे बाढ़ में खड़े रहने के हौंसलों को युगों-युगों यों ही बनाए रखे। हर बाढ़ और सूखे में तुम यों ही सीना तान कर खड़े रहो, मेरी तुम सबके लिए भगवान से यही कामना! जय बाढ़! जय भारत!" उन्होंने पूरे ज़ोर से कहा तो बाढ़ के पानी में अपने अपने परिवारों के साथ खड़े उस इलाक़े के हर सरकारी विभाग के परिवार वाले ने भी ज़ोर से अपनी अपनी नाक साफ़ करते कहा, "जय बाढ़! जय भारत!"
. . .और वे मुस्कुराते हुए अपने सबसे उम्दा चमचे अफ़सर की पीठ पर से भाषण देने के बाद उतरे और नंगी टाँगों में ही रेस्ट हाउस में रेस्ट करने निकले तो बाढ़ के कमर तक गंदे पानी में खड़े हर विभाग के कर्मचारी ने अपने अपने परिवार के साथ राहत की साँस ली।
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