आह रिटायरी! स्वाहा रिटायरी!
डॉ. अशोक गौतमइकतीस तारीख़ को वे अपनी नज़रों में बाइज़्ज़त अपने ऑफ़िस से रिटायर हो गले में अपने कहने के सहयोगियों द्वारा समर्पित काग़ज़ी फूलों की मालाएँ डलवाए उनसे अंतिम विदाई ले उनके साथ घर आए तो अगले ही दिन उनका फोन आते ही मैंने सोचा, ऑफ़िस की याद आ रही होगी ज़ालिम को! ऑफ़िस होता ही ऐसा कुत्ता है। रिटायर होने के बाद बहुत याद आता है। भले ही जब तक बंदा नौकरी में हो, उसका बारह बजे भी ऑफ़िस जाने को मन न करे, पर रिटायर होने के बाद ऑफ़िस बहुत याद आता है। मन करता है दिनरात वहीं पड़ा रहे।
रिटायर होने के बाद याद आती हैं वे कार्यालयी हरकतें जो रिटायारी ने प्रौढ़ होने के बाद भी बच्चों की तरह अपने ऑफ़िस में की थीं। याद आते हैं ऑफ़िस के छुपन-छुपाई के वे दिन जब वे जनता की फ़ाइलों के साथ ऑफ़िस में खेला करते थे। याद आते हैं ऑफ़िस के वे दिन जब वे मंत्री जी की तरह काम करवाने आने वालों की अपने आगे पीछे लंबी क़तार लगी रहती थी। जिस दिन काम करवाने वालों की उनके मन माफिक लंबी लाइन न लगी होती उस दिन वे किसीकी ओर देखते भी नहीं थे।
याद आते हैं ऑफ़िस के वे दिन जब काम करवाने वाले घंटों उनके हाथ ताकते रहते थे, कि वे उठें तो किसीकी फ़ाइल तो भवसागर पार हो। पर एक उनके हाथ होते थे और तो सब जगह को उठते थे, पर जनता की फ़ाइलों की ओर क़तई नहीं उठते थे।
“और बंधु! कैसे हो! ऑफ़िस की याद तो नहीं आ रही? घर के कामों की लिस्ट भाभीजी ने हैंड ओवर की या नहीं? अभी तो ऑफ़िस का हेंगओवर होगा। जाते जाते ही जाएगा।”
“नहीं यार! मरने को मन कर रहा है,” उन्होंने मरते मरते कहा तो मैं डरा! ये क्या हो गया बंधु को! रिटायर होने के दूसरे ही दिन बहकी-बहकी बातें करने लग गए ये तो। रिटायरमेंट के बाद हर बंदा बहक तो जाता है, पर ये इतनी जल्दी बहक जाएँगे इसका ज़रा सा भी आइडिया नहीं था। कहीं रिटायरमेंट को दिल से तो नहीं लगा लिया होगा कहीं जनाब ने? पर बाद में याद आया कि इनके पास दिल तो बहुत पहले से था ही नहीं। ऐसे में दिल से कम से कम तो इन्होंने अपनी रिटायरमेंट को लगाया नहीं होगा। फिर रिटायमेंट दिमाग़ से लगाने वाली चीज़ तो हरगिज़ नहीं।
“क्यों, क्या हो गया? भाभीश्री ने कुछ कह दिया क्या?”
“नहीं यार! चिकने घड़ों पर कुछ टिकता ही कहाँ है। नौकरी में रहते दो टके के की भी सुनने की मेरी पुरानी आदत है,” उन्होंने दुखी होकर कहा तो मेरा माथा ही नहीं, दिमाग़ भी ठनका। यार! बात कुछ न कुछ तो ज़रूर है। वर्ना रिटायरमेंट के दूसरे दिन ही बंदा इतनी बहकी-बहकी बातें न करता। रिटायर होने का दुख मरने के दुख से बड़ा कष्टदाई तो होता है मित्रो! पर इनका रिटायरमेंट का दुख इतनी जल्दी अव्वल दर्जे का कष्टदाई हो जाएगा, बात कुछ हज़म नहीं हो रही थी मन ही मन ठहाके लगाने के बाद भी।
“अभी तो बंधु कुछ दिन रिटायरमेंट का लुत्फ़ उठाओ। जहाँ मन करे वहाँ जाओ। जो खाने को मन करे वह खाओ।”
“जो मज़े ऑफ़िस में खाने के थे वैसे मज़े तो स्वर्ग में भी देवताओं को क्या ही नसीब होते होंगे दोस्त! किसी भी काम करवाने आने वाले को बस, इशारा करने भर की देर होती थी। तब वह उसी वक़्त अपनी भूख-प्यास छोड़ खिलाने को इतना उतवाला हो जाता था ज्यों वह मुझे नहीं अंध भक्त अपने भगवान को भोग लगा रहा हो। मंदिर में भगवान भूखे रह जाएँ तो रह जाएँ पर, ऑफ़िस में जब तक बंदा पीउन तक के पद पर आसीन है, कम से कम वह भूखा प्यास नहीं रह सकता।”
“तो फिर दिक़्क़त कहाँ है? किस वजह से रिटायर होने के दूसरे दिन बाद ही मरने को मन कर रहा है? मुझे भी देखो! दस साल हो गए रिटायर हुए। क्या मजाल जो इतने सालों में एक बार भी मरने को मन तो छोड़ो तन भी किया हो।”
“यार! घर की पुरानी कुर्सी पर बैठा-बैठा हद का बोर हो रहा हूँ। न कोई आगे खड़ा है न पीछे। और तो छोड़ो, अपने घर का कुत्ता भी नहीं पूछ रहा। वह भी दुम दबाए दूसरी ओर को मुँह किए लेटा है। सब मुझे घूरते किनारे हो रहे हैं। कहीं कोई जी हुज़ूरी नहीं कर रहा! कोई मुझसे बात नहीं कर रहा। सब चाह रहे हैं कि मैं ही उनसे बात करूँ। यार! अपना भी तो कोई स्टेट्स है कि नहीं? कहीं कोई पीउन नहीं दिख रहा! ऑफ़िस में तो चार-चार पीउन मेरे आगे पीछे मँडराते रहते थे? पर अब यहाँ मेरे आगे मक्खी भी नहीं भिनभिना रही। कहीं कैंटीन वाला नहीं दिख रहा। कोई चाय को नहीं पूछ रहा। बस, बीवी चाय बनाने को कह रही है।
“हाय! मेरा मन किसी पर भी बेवजह रोब मारने को अधीर हो रहा है। पर यहाँ तो सब मुझे सुनाने को बाज़ू चढ़ाए तैयार बैठै हैं। कोई मेरी बिल्कुल भी नहीं सुनना चाहता यार! रिटयरमेंट के बाद ये जीना भी कोई जीना है यार! इससे अच्छा तो रिटायर होने से पहले ही मर जाता . . . मेरा तो मानना है कि जो रिटायरमेंट के बाद किसीको सुखी ज़िन्दगी जीनी हो तो उसे रिटायरमेंट से पहले ही जैसे तैसे मर जाना चाहिए,” उन्होंने सच्ची को रोते हुए कहा तो मुझे उनपर बहुत दया आई। उस वक़्त काश! मैं उनका दुख कुछ कम कर पाता। पर यहाँ मेरे अपने ही दुख क्या कम हैं जो अब उनके दुख दूर करने की सोचता। किसी से कुछ कहता नहीं तो ये बात और है।
अंत में मैंने उनको सांत्वना देते कहा, “चलो, तुम्हारे रिटायरमेंट के बाद की पीड़ा भुलाने को तुम्हें एक क़िस्सा सुनाता हूँ—एक उच्च अधिकारी की सेवा में एक कुत्ता नियुक्त था। उसकी क़ीमत इन सर्विस पता है तब कितनी थी?”
“कितनी?”
“दो लाख!”
“कुत्ते भी इतने महँगे होते हैं क्या?”
“आजकल कुत्ते ही महँगे होते हैं। उनके मालिक तो दो टके के भी नहीं होते।”
“तो?”
“पर सदा को तो तूतम खां की तूती भी नहीं बोली तो उस कुत्ते की भी भी भला कैसे बोलती? एक न एक दिन तो उसे भी तुम्हारी तरह रिटायर होना ही था।”
“तो??”
“तो क्या, वह भी गले में फूलों की मालाएँ डाले रिटायर हो गया तुम्हारी तरह।”
“फिर??”
“फिर क्या! जब रिटायर हुआ तो पता है वह कितने में बिका?”
“कितने में?”
“केवल और केवल एक हज़ार में।”
“मतलब?”
“मतलब रिटायरमेंट!”
“तो क्या वह फिर भी ख़ुश है?”
“हाँ तो! मेरी तरह! तुम्हारे पास तो पेंशन है, जीपीएफ़ है। फिर मरने की क्यों सोचते हो यार! वह तो बेचारा न्यू पेंशन स्कीम का इंप्लाइज था।”
“पर यार! वह ऑफ़िस के दिन तो मरने के बाद भी शायद ही भूलें,” कह उन्होंने मत पूछो कितनी लंबी साँस ली और फोन ऑन ही रख पता नहीं कौन से जहान में सो या खो गए।
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