रिटायरमेंट का मातम
डॉ. अशोक गौतम
अपने सदाहँसार छेदीलाल जी जो जबसे मंत्रीजी की कृपा से सरकारी अफ़सर हुए थे, ओवर टाइम में भी मतलब-बेमतलब हँसते रहे, अपने आसपास वालों को हँसाते रहे मानो सरकार ने उनकी नियुक्ति जनता के काम करने को नहीं, हँसने, अपने कमरे के काम करने वालों को हँसाने के लिए की थी। आपको यह जानकार अति प्रसन्नता होगी कि यही छेदीलाल जी इस महीने की तीस तारीख़ को अपने जीवन के पैंसठ साल पूरे कर सरकारी नौकरी से इज़्ज़त के साथ सेवानिवृत्त हो रहे हैं। अब भगवान से यही प्रार्थना कि रिटायर होने के बाद भी वे भाभीजी के साथ घर के काम करने के बदले उनको हँसाते रहें, हँसते हुए भाभीजी के टाट में लिपटे जूते खाते रहें। भाभीजी को हँसाते हुए उनकी डाँट एक कान से सुन दूसरे कान से निकाल स्वर्गवासी होने की ओर हँसते हुए जाते रहें।
अपने सेवाकाल में वे जिस-जिस ऑफ़िस में भी तबादला होकर गए, वहाँ-वहाँ वे काम करने को नहीं, साहब की चाटुकारिता और हँसने-हँसाने के लिए ही जाने गए। उनकी चालीस साल की नौकरी की सबसे बड़ी उपलब्धि कोई रही तो बस, यही रही कि उन्होंने जो-जो भी उनके पास अपने काम को लेकर गया, उसे हँसकर-हँसाकर इस तरह टाला कि वह दूसरी बार फिर उनके पास काम करवाने नहीं गया। यही वजह है कि वे उनके मुँह के आगे भी दफ़्तर में काम करने के बदले हँसने-हँसाने के लिए ही मशहूर रहे। दफ़्तर वालों का मन जब काम करते-करते ऊब जाया करता तो वे उनकी सीट पर आ जाते थे, और तब वे उनको हँसा-हँसा कर इतनी फ़्रेश कर देते थे कि उन्हें पाँच बजे भी लगता जैसे वे अभी ही ऑफ़िस आए हों।
इन्हीं छेदीलाल साहब की इस महीने की तीस तारीख़ को रिटायरमेंट है। पर मैं साफ़ महसूस कर रहा हूँ कि ज्यों-ज्यों तीस तारीख़ नज़दीक आती जा रही है, वे उतना ही कम हँस रहे हैं, हँसा रहे हैं। उनकी हँसी का ग्राफ दिन पर दिन गिरता जा रहा है सर्दियों में पारे की तरह। मानो वे रिटायरमेंट होकर घर नहीं श्मशान जा रहे हों।
कल वे कैंटीन में बैठे पता नहीं आसमान की ओर टकटकी लगाए बिन दूरबीन क्या देख रहे थे कि मैं भी कैंटीन आ धमका, उनकी सीट का काम करके। लगा, ज्यों वे स्वर्ग में अपने लिए हँसने-हँसाने वाली कुर्सी तलाश रहे हों। या कि अकेले ही अपनी रिटायरमेंट का मातम मना रहे हों। आह रे मन! क्या दिन आ गए! अब तो अकेले ही अपने सुख में ख़ुशी होना पड़ता है तो दुःख में मातमी।
हर वर्ग का जीव सब कुछ होना चाहता है, पर सरकारी नौकरी से रिटायर होना कभी नहीं चाहता। उन्हें उदास देखा तो भीतर ही भीतर मुस्कुराते पूछा बैठा, “हे न चाहते हुए भी रिटायरमेंट के अंधे कुएँ में जा रहे सरजी! सरकारी नौकरी का अंतिम सच यही है। अब आसमान की ओर टकटकी लगाए क्या देख रहे हो? क्यों देख रहे हो? बहुत हँस-हँसा लिए सरकारी कुर्सी पर बैठे। बड़ी मुश्किल से भगवान इज़्ज़त से रिटायर होने का मौक़ा दे रहा है, वर्ना अब तो . . . अब घर में मज़े से आराम करना। पल-पल कुढ़ती भाभी को आठ पहर चौबीस घंटे हँसाते रहना। अब न बेसमय ऑफ़िस आने का झंझट और न पाँच बजे से पहले ऑफ़िस से जाने की चिंता! अब तो कुछ ही दिन रह गए फ़ाइलों में सिर खपा बाल गँवाने के,” अब वे गंजे भी हो गए हैं। उनके गंजेपन को लेकर उनके लगभग सब रिश्तेदार यही समझते हैं कि उनके सिर पर पूरे ऑफ़िस का भार है। पर सच पूछो तो वे हँसते-हँसाते अनायास अपने नाखूनों से अपने सिर के बाल नोंच-नोंच कर गंजे हुए हैं। सिर के बाल तो रिटायरमेंट तक उनके बचे होते हैं जिन्हें ऑफ़िस में सिर खुजलाने तक को भी वक़्त नहीं मिलता। पर कई बार सच जानते हुए भी आदमी का मन रखने के लिए आदमी के सामने उसको लेकर झूठ बोलना पड़ता है, सो मैंने भी कह दिया। वैसे मैं उनके बारे उनके सामने एक दो बार नहीं, बहुतों बार झूठ बोल उनकी दुआएँ ले चुका हूँ।
“यार! इस ऑफ़िस से आख़िरी बार जाते पर नमक तो न छिड़को।”
“मतलब?”
“मतलब ये कि जो मज़े यहाँ रहे वैसे स्वर्ग में भी कहाँ होंगे? दिल की कहूँ, जो ग़लती से सरकारी मुलाज़िमों की मौज-मस्ती की भनक देवताओं को लग जाए तो वे भी स्वर्ग के सुख छोड़ सरकारी मुलाज़िम होने को जोड़-तोड़ करना शुरू कर दें। अपना तो पीउन भी आईएएस से कम नहीं होता बरख़ुरदार! नौकरी के बहाने घर से बाहर निकल मौज-मस्ती का मौक़ा तो मिल जाता था। घरवाली रोज़ कपड़े प्रेस कर देती थी कि उसका पति नर सेवा करने जा रहा है। रोज़ जलते-भुनते चार चुपड़ी चपातियाँ लंच के लिए डाल देती थी ताज़ी सब्ज़ी के साथ। पर अब . . . यार! मैंने तो आज तक अपना कच्छा भी नहीं धोया। पर अब रिटायरमेंट के बाद पत्नी के हाथ के साथ हाथ चलाना न सही, पर मिलाना तो पड़ेगा ही। फिर झाड़ू पोंछा, बरतन . . . ये सब सोच कर मेरा मन तो अभी से मरने को हो रहा है,” कह वे बहुत उदास हो गए जैसे वे ऑफ़िस से नहीं, दुनिया से जा रहे हों। सच कहूँ तो इतना भावुक होते मैंने उन्हें पहली बार देखा।
“देखो सरजी! क़ुदरत को नियम है जो यहाँ आया, उसे जाना ही है। नौकरी से भी और दुनिया से भी,” मेरी रिटायरमेंट को अभी बहुत समय था, सो रिटायरमेंट को लेकर मैं दार्शनिक हुआ। उनकी उम्र के आसपास होता तो शायद मैं उनकी रिटयरमेंट को देख वैसे ही सिहर उठता जैसे बुढ़ापे में कोई बूढ़ा बूढ़े को मरता देख सिहर उठता है। तब मैंने पहली बार उनके चेहरे को पढ़ जाना था कि मातमों में सबसे बड़ा कोई मातम होता है तो बस, रिटायरमेंट का होता है।
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