साहित्य में साहित्य प्रवर्तक अडीशन
डॉ. अशोक गौतमउन्हें साहित्यिक पुरस्कार लुटाने थे। नए-नए पार्टी ज्वाइन किए भैयाजी को साहित्यिक पुरस्कार लुटान समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। पहले तो वे साहित्यिक पुरस्कार लुटान समिति का अध्यक्ष बनाने पर सरकार पर बहुत बिगड़े। अरे! क्या हम इसी लायक़ हैं? क्या बनने आए थे यहाँ और क्या बना दिया हमें?... अरे! क्या हम यही बनने आए थे अपनी पार्टी को छोड़ कर आपके साथ? पर फिर थोड़े से शारीरिक विरोध के बाद चुप हो गए। सोचे, पहले पार्टी में उँगली घुस जाए तो धीरे-धीरे बाजू घुसाते हुए उसमें पूरे के पूरे न घुसे तो वे भी . . . भविष्य की इसी सोच को लेकर अति दूरदर्शी होते उन्होंने बाहर से न-नुकर करते जैसे-तैसे साहित्यिक पुरस्कार समिति का अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया।
कल उनका फोन आया, पूछे, “क्या हो रहा है?”
“होना क्या भैयाजी! बस, आपका भजन हो रहा है,” मैंने उसी वक़्त उनका भजन करते कहा तो उन्हें अपने से अधिक मुझ पर प्रेम उमड़ा।
“आज के अख़बार में पढ़ा नहीं क्या? हम पुरस्कार समिति के अध्यक्ष बना दिए गए हैं?”
“बधाई भैयाजी! पर कौन सी समिति के? देखा न भैयाजी! अच्छे नेताओं की हर पार्टी में क़द्र होती है।”
“साहित्य पुरस्कार समिति के। पर ससुरा ये साहित्य होता क्या है? इसका नाम तो हम पहली बार सुने हैं?”
“वही जिसकी एक बार आप अध्यक्षता करने गए थे।”
“अच्छा अच्छा! वही जहाँ . . . आधे घंटे में ही सिर में दर्द होने लग गया था और फिर हम बहाना बनाकर वहाँ से खिसक लिए थे?”
“हाँ! हाँ! भैयाजी वही।”
“तो देखो, हमें तुम्हारी ज़रूरत आन पड़ी है, अर्जेंट!”
“आदेश करो भैयाजी! बिन पतलून पहने ही हाज़िर हो जाएँ क्या?”
“नहीं यार! पतलून तो पहन लो। बाहर ठंड पड़ रही है . . . और हम अभी इस पार्टी में नए-नए ज्वाइन किए हैं।”
“तो करना क्या है भैयाजी?” मेरा मन भैयाजी के लिए कुछ भी करने को मचलने लगा।
“अच्छा, ये बताओ तुम ये साहित्य-वाहित्य देखे पढ़े हो?”
“हाँ भैयाजी! एमए तीसरे दर्जे के पढ़े हैं,” मैंने कड़वा सच सीना तान कर कहा। मैं उनमें से नहीं जो अपना दर्जा छुपाए फिरें, अपने बारे में झूठ बताए फिरें।
“पर यार! तीसरा दर्जा तो अब रेल में भी नहीं? तो पढ़ाई में क्यों? ठहरो! इस मामले को हम अभी शिक्षा विभाग में उठाते हैं। हद है! देश आज़ाद हो गया। पर हम पढ़ाई को लेकर अभी भी तीसरे दर्जे में ही चले हैं? पर चलो! फ़िलहाल तीसरे दर्जे में ही सही। दर्जा तो दर्जा होता है। बहुत बार तीसरे दर्जे वाले पहले दर्जे वालों से बहुत आगे निकल जाते हैं। गुड! सच कहूँ, मुझे तो मेरी तरह के तीसरे दर्जे के ही पसंद हैं। तुम तो जानते ही हो कि हम किसीको दर्जे से नहीं, चमचागीरी से नापने के पक्षधर रहे हैं। जो हमें एक बार पसंद आ गया, उस गधे में भी हम बुद्धिजीवी के साक्षात् बलात् दर्शन कर लेते हैं। तो समझो, मेरा काम हो गया,” भैयाजी ने ठहाका लगाया।
“पर क्या भैयाजी?”
“देखो, तुम साहित्य देखे हो। बस, मेरे लिए इतना ही काफ़ी है। मेरा दाव लगा तो हम तुम्हारे लिए अलग से एक और साहित्य अकादमी बनवाएँगे। और फिर तुम वहाँ होने वाले अध्यक्ष! अब काम की बात! मेरी अध्यक्षता में तुम्हें साहित्य पुरस्कार के लिए साहित्यकारों का चयन करना है। इसके लिए तुम पूरे स्वतंत्र हो। और हाँ! हम चाहते हैं कि अपने साहित्यकारों का ही चयन होने के बाद भी साहित्य पुरस्कारों में बिल्कुल पारदर्शिता रहे। हम अंधों की रेवड़ियों के सख़्त ख़िलाफ़ हैं।”
“आप चिंता न करो भैयाजी! इतनी ईमानदारी से पुरस्कारों के लिए लिखने-बिछने वालों को चयन करेंगे कि . . .” और उसी वक़्त मैं मन ही मन उनके मन माफ़िक पुरस्कृत होने वाले साहित्यकारों की लिस्ट बनाने के लिए दिमाग़ में हाथ-पाँव मारने लगा, “पर भैयाजी! पुरस्कार देने किसे-किसे हैं?”
“सो अब तुम जानो, तुम्हारी सिर-सर्दी! मेरी ओर से तुम इस मामले के पूरे प्रभारी! जहाँ मेरे दस्तख़त की ज़रूरत हो, वहाँ आँखें बंद मेरे साइन करवा देना या ख़ुद ही कर लेना।”
तो भैयाजी! मेरा पिलान है कि एक-एक पुरस्कार सब अपना अपना साहित्य लिखने वालों को दे देते हैं?”
“मतलब??”
“मतलब भैयाजी ये कि . . . एक अपने कहानी लिखने वाले को दे देते हैं। एक अपने कविता लिखने वाले को दे देते हैं। एक अपने नौटंकी करने वाले को दे देते हैं। एक अपने बड़ी कथा लिखने वाले को दे देते हैं। और एक व्यंग्य लिखने वाले को भी।”
“तो कविता, कथा लिखने वालों को भी साहित्यकार कहते हैं?”
“हाँ हाँ भैया जी! वाह भैयाजी! आप तो छुपे रुस्तम निकले। कहते हो कि साहित्य के बारे में कुछ नहीं जानते और . . . इस बार एक पुरस्कार परसाई, शरद, शुक्ल के चेलों को भी दे देते हैं, वे भी क्या याद रखेंगे कि किसी रईस अध्यक्ष ने . . . बेचारों को आज तक कुछ न मिला। पर जो आपकी परमिशन हो तो?”
सुन उन्होंने अपने बोझ न लेने वाले दिमाग़ पर पता नहीं क्यों बोझ सा कुछ डालते हुए पूछा, “अच्छा, जो मैं ग़लत न होऊँ तो . . . वही ठिठुरता गणतंत्र वाले परसाई! राग वाले शुक्ल? पता नहीं क्यों ग़लती से पढ़ गया था उन्हें एकबार यार! पढ़ते-पढ़ते अगले दर्जे का बेशर्म होने के बाद भी लगा था ज्यों बिन कपड़ों के होऊँ। उन्हें पढ़ते-पढ़ते मैं अपने कपड़े जितने कसकर पकड़ता रहा, वे तब उतने ही लूज होकर खुलते रहे थे। उसे ही भंग कहते हैं क्या? वैसा ही आज भी जो कुछ लिखा जा रहा है तो सब बकवास लिखा जा रहा है। ऐसों को पुरस्कार देने की बात तो दूर, हम इन्हें सड़ा पानी देने के हक़ में भी नहीं,” भैयाजी फोन पर ही एकदम मौसम की तरह बिगड़े, “हमें वे क़तई पंसद नहीं जो हमारी सुव्यवस्था के ख़िलाफ़ लिखें। तो ऐसा करो, इनकी जगह किसी भी अपने का नाम लिस्ट में डाल देना। किसी एक को पुरस्कार दिलवाना तो तुम्हारा भी बनता है न! और हाँ! तुमने भी कुछ लिखा-विखा हो तो अपना नाम भी लिस्ट में डाला देना, टॉप वाले पुरस्कार के लिए। . . . ओके!”
“भैयाजी मैंने तो . . . मैंने तो . . .” गला साफ़ होने के बाद भी मैं पता नहीं क्यों अचकचाया।
“खुलकर कहो यार! तुम इस वक़्त पुरस्कार समिति के अध्यक्ष के अध्यक्ष बात कर रहे हो।”
“हमने तो बस, अपनी प्रेमिका को पत्र लव लैटर ही लिखे थे कभी। वह सिलसिला भी ज़्यादा नहीं चल पाया था भैयाजी! पकड़े गए, विवाह हो गया और लव लैटर लेखन बंद। उसके बाद किसीको लव लैटर लिखने का साहस तो छोड़िए, दुस्साहस तक न कर पाए।”
“तो क्या हुआ! कुछ तो लिखा है न! पिछली सरकार ने तो पढ़ने वालों को ही साहित्यकार बना पुरस्कार दे दिए थे। जब लिखा है तो डरते काहे हो?”
“भैयाजी! उसका पुरस्कार तो मिल गया है न!” मैं बकरे की तरह मिमियाया।
“नहीं, वह पुरस्कार काफ़ी नहीं। जब क्रांतिकारियों के लैटर साहित्य हो सकते हैं तो प्रेमियों के क्यों नहीं? क्या प्रेमी क्रांतिकारी नहीं होता? क्या वह समाज से पंगा नहीं लेता? प्रेम के लिए शहीद नहीं होता? बिना लव के लव लैटर लिखना बेहद रिस्की होता है। क्या लव लैटर लिखने वाला पागलपन में प्रेम के लिए विवाह कर फाँसी नहीं लटकता? लव लैटर लिखना बेहद बहादुरी का काम होता है दोस्त! साहित्य लिखने से भी अधिक बहादुरी का। बहादुरों से भी अधिक बहादुरी का। तुम्हारे सामने परसाई, शुक्ल कहीं भी खड़े नहीं होते। उन्होंने लव लैटर नहीं लिखे तो क्या ख़ाक लिखा? सही मायने में हम साहित्य के सच्चे बहादुरों को सम्मानित करना चाहते हैं। कायरों को साहित्यिक सम्मान! नेवर!! नो! . . . इसलिए आज से प्रेमियों के लव लैटर भी साहित्य के अंतर्गत माने जाएँगे! इसे आज ही साहित्य के राजपत्र में नोटिफ़ाई करवाता हूँ। लव लैटर लिखने वाले भी क्या याद करेंगे कि साहित्यिक कल्याण वाला कोई अध्यक्ष भी कभी हुआ था। . . . तो कल मेरे घर आ जाना। दोनों बैठकर उसी वक़्त तुम्हारी फ़ाइनल लिस्ट को बिल्कुल फ़ाइनल कर लेंगे।”
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