साहब और कोरोना में खलयुद्ध
डॉ. अशोक गौतमकल तक मैं बेकार का साहित्यकार था पर आज मैं सफल साहित्यकार हूँ। कारण, आज मेरा जुगाड़ भिड़ गया है। आज का साहित्यकार लेखन से नहीं, जुगाड़ से बड़ा होता है। जुगाड़ू साहित्यकार लिखता नहीं, बिकता है। जुगाड़ू साहित्यकार को सफल साहित्यकार होने से सरस्वती भी नहीं रोक सकती। मौलिक लिखने वाले साहित्यकार क्या खाक़ रोकेंगे? हाँ! जुगाड़ू उन्हें ज़रूर रोक सकता है। और आज मैंने रोक भी दिया है। लगा लें, अब जितना ज़ोर हो उनके पास!
चमचागिरी चमचागिरी की बात है। मेरे बिना साहित्य का आजकल ट्टटा तक नहीं हिलता, कल तक मुझसे साहित्य में पत्ता नहीं हिला करता था। उस समय मेरा साहित्य में कोई जुगाड़ नहीं बैठ पाया था या कि सरकार दूसरे जुगाड़ वाले सद्साहित्यकारों की थी। हर सरकार के अपने अपने सिपहसालार होते हैं, अपने-अपने साहित्यकार होते हैं, अपने-अपने मलाई मार होते हैं। बहुत कम उन जैसे हर सरकार के प्रिय कलाकार होते हैं। या कि वे तलवे-शलवे चाट प्रिय हो जाते हैं। कल तक जो मुझे थर्ड क्लास साहित्यकार मानते थे, आज मैं उन्हें थर्ड क्लास साहित्यकार मानता हूँ। वक़्त-वक़्त की बात है भाई साहब! ये साला जुगाड़ होता ही ऐसा है। जो इस जुगाड़ को साहित्य में जो बना गया, वह गधा होने पर भी नितांत मौलिक चिंतन वाला साहित्यकार हो गया। साहित्य में लेखन वह नहीं देता जितना जुगाड़ देता है, तलवे-चटाई देती है।
सो आज का मूर्धन्य साहित्यकार अपने ऑफ़िस में ऑफ़िस के सारे काम छोड़ साहित्य की इनकी-उनकी पाँच-सात किताबें अपने आगे खोल बारी-बारी से उनमें से लाइनें उठा मौलिक किताब रचने में जुटा था कि अचानक दरवाज़े पर कोई खड़ा दिखा तो मैंने साहित्य की ऊपरा-ऊपरी हेतु खोली किताबें बंद करते महाचिंतक की मुद्रा में पूछा, “ कौन? देखते नहीं इस वक़्त में मौलिक लेखन में व्यस्त हूँ?”
तो वह मुझे देख हँसते हुए बोला, “नमस्कार बंधु! इसी तरह जो मौलिक चिंतन करते रहे तो देखना एक दिन ज्ञानपीठ तक पहुँचोगे,” उसके कहने पर मैं गद्गद। क्या पता कब जैसे किस नामचीन साहित्यकार की फटी फेंकी हगीज़ मेरे जैसे साहित्यकार को मिल जाए तो वह उससे भी बड़ा साहित्यकार हो जाता है उसे अपनी पैंट पर पहन कर। अवसरवादी बड़े लोगों की इन्हीं फेंकी हगियों को बहुधा ढूँढ़ते रहते हैं, मेरी तरह फ़ुर्सत मिलते ही। कई बार तो सारे काम छोड़ कर। वैसे जहाँ तक मेरा अपना अनुभव है चोर क़िसिम का साहित्यकार किसीकी भी रचना चुराने पर उतना गद्गद् नहीं होता जितना कि उसकी चोरी पकड़े जाने पर उसकी पीठ थपथपाने पर होता है।
“कहो ,क्या सेवा करूँ तुम्हारी दोस्त?" मैंने किताबें धीरे-धीरे अपने सामने से उठाते कहा तो उसने कहा, ”थोड़ा रेस्ट चाहिए था दोस्त! पूरा संसार पीछे पड़ा है।"
“क्यों, कोई साहित्य के दलाल हो क्या?”
"छी! मुझे साहित्य का दलाल कह कर मरने को विवश न करो मित्र! मैं कोरोना हूँ," वह सीधे अपने परिचय पर आया तो मैंने मुस्कुराते पूछा, "तो तुम क्या करने आए हो यहाँ? ग़लत ऑफ़िस में आ गए तुम दोस्त!”
"तुम्हारे बॉस से मिलने आया हूँ! बड़ी प्रशंसा सुनी है उनकी। बड़े बकवास दिल इनसान हैं वे। सही जगह पाँव पड़ने की महारत रखते हैं वे। उनसा मौक़ापरस्त तुम्हारे ऑफ़िस में कोई दूसरा नहीं," कह वह मुस्कुराते हुए मेरा मुँह देखने लगा तो मुझे उस पर धीरे-धीरे दया आने लगी। वफ़ादार अधीनस्थ के लिए गधा साहब सदा गालियाँ देते हुए भी परमादरणीय होता है।
"क्या मतलब तुम्हारा?"
"मैं उनके जी भर गले लगना चाहता हूँ," कह वह मेरे गलने को हुआ तो मैंने उससे माफ़ी माँगते कहा, "दोस्त, अभी तो मुझे बख़्श ही दो। अभी तो मुझे चोरे जा रहे साहित्य का प्रतिफल लेना है। अभी-अभी तो मेरे जुगाड़ से साहित्य में पकड़ बनी है और तुम हो कि... रही बात मेरे बॉस की, तो वे इन दिनों वे कुर्सीवालों केे नज़दीकियों के सिवाय और किसीके गले तो छोड़ो, दसियों मिनट उनके आगे हाथ मिलाने को बढ़े हाथों पर भी थूकते नहीं।"
"पर मैं तो उनके गले लगकर ही रहूँगा। मेरा मन तुम्हारे साहब के गले लगने को बहुत बेचैन है अनुज!" उसने कहा तो मैंने उसके आगे हाथ जोड़े ही भीतर साहब का कमरा बता दिया हँसते हुए। मुझे पता था कि साहब के पास जाएगा तो साला मुँह की खाएगा। वे कोरोना के भी बाप हैं। ऐसे संक्रमण तो उनके दायें बायें लटके रहते हैं। ऐसे कोरोना तो उनके आगे धूल चाटते हैं। पूरा ऑफ़िस उनके कारनामों से इतना संक्रमित है कि... जबसे वे हरबार की तरह मुख्य कुर्सी के नज़दीक इनकी उनकी वज़ह से गए हैं, तबसे जिसके भी गले लगते हैं, वह ख़ुद ही अपना गला दबा लेता है।
मैंने मौलिक साहित्य रचना बंद कर साहब और कोरोना के बीच होने वाले खलयुद्ध का लाइव देखने की सोची। वैसे मुझे युद्ध के निर्णय का पहले ही पता था कि जीतेंगे तो अपने साहब ही। उनसे बड़ा कोरोना कोई हो ही नहीं सकता।
उनके कमरे के दरवाजे पर खड़ा कोरोना ने सर झुका कहा, "नमस्कार सर! मे आई कम इन?"
"आओ! कौन हो? कुर्सी वालों के नए मामा?"
"नहीं सर! आपसे छिपाना क्या, मैं कोरोना हूँ!"
"अच्छा, वही कोरोना जिसने शेअर बाज़ार को धड़ाम कर दिया?" कहते उन्होंने चुटकी ली।
"जी सर! आपने सही पहचाना।"
"तो तुम वही कोरोना हो जिसके डर से ही जन्मजात संक्रमित कुर्सिर्यों को भी सैनिटाइज़ किया जा रहा है?"
"जी सर! आप तो मेरे बारे में बहुत जानते हैं सर! सोशल मीडियाल्कोहलिक तो नहीं हो सर आप?"
"मैं सब अल्कोहलिक हूँ। तो वही कोरोना, जिसके डर से देवता भी देवलोक को कूच कर गए?" कह साहब ने चुटकी ली।
"जी सर!"
"तो वही कोरोना, जिसकी वज़ह से सरकार को बंद होते भी स्कूल बंद करने पड़े हैं?"
"जी सर! बिल्कुल ठीक पहचाना आपने," कोरोना ने मुस्कुराते कहा।
"अच्छा, तो वही कोरोना, जिसने बाज़ार में कर्फ़्यू लगा दिया है?"
"जी सर! सोलह आने सही पहचाना आपने।"
"तो वही कोरोना, जिसकी वज़ह से जनता से अधिक भयभीत डॉक्टर हैं?"
"जी सर!"
"वही कोरोना जो लोक का सूप पीता है?"
"जी सर!" मैंने साफ़ देखा कि ज्यों-ज्यों साहब कोरोना को उसकी औक़ात बताते जा रहे थे, वैसे-वैसे वह फूलता जा रहा था। अव्वल दर्जे के संक्रमणों की यही सबसे बड़ी ख़ासियत होती है, "अच्छा तो, वही कोरोना? जिसके भय ये पत्थर भी सैनिटाइज़ किए जा रहे हैं?"
"अरे वाह सर! आप तो मेरे बारे में मीडिया वालों से भी अधिक जानते हैं! पिछले जन्म में नारद थे क्या? अब पता चला कि आप भी खोपड़े में दिमाग़ रखते हो। वर्ना आपके पीउन तक तो कहते हैं कि आप दिमाग़ में केवल जुगाड़ ही रखते हो। काम निकालने के लिए सगे मामा से भी प्रिय गधों को मामा बना लेते हो," कह कोरोना हँसते-हँसते उनकी ओर बढ़ने लगा तो उन्होंने वैधानिक चेतावनी दी, "बस! मेरी और तारीफ़ नहीं! अब मेरी ओर एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने का! जानते नहीं इन दिनों मैं सरकार के ख़ासों की काछ का पसनीला बाल हूँ। तुम मुझे नहीं जानते कि मैं किस खेत का मूला हूँ।" साहब ने उसे हड़काया तो वह भी गुर्राया, "जानता हूँ सर! आपके बारे में सब जानता हूँ... मैंने भी देश-देश का पानी पिया है, मैंने मुँह खोल दिया तो आपकी ये इज़्ज़त की पैंट अपने आप ही शर्म के मारे खुल जाएग,” कह कोरोना मेरे प्रिय साहब का मुँह देखने लगा तो साहब ने पुनः गुर्राते कहा, "सुन बे नादान कोरोना! ऐसे कोरोना तो मेरी जेब में पचासियों क़ैद हैं। नहीं मानेगा न! तो ले अभी तुझे अपने गले लगा तेरा...” उसके बाद वही हुआ जो मैंने पहले ही सोच रखा था। ज्यों ही साहब ने कोरोना को गले लगने का खुला निमंत्रण दिया तो वह चीखता-चिल्लाता, अपने पूरे बदन पर अधिकृत दवा विक्रेता की दुकान पर बिकता नक़ली सैनिटाइज़र उड़ेलता वहाँ से यह कहता हवा हो लिया, "मर गया! बचाओ! मर गया! बचाओ!" का शोर करते करते।
1 टिप्पणियाँ
-
नजर और निशाना वही , हथियार नया ! अशोक गौतम जी को साधूवाद !
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- रावण ऐसे नहीं मरा करते दोस्त
- शर्मा एक्सक्लूसिव पैट् शॉप
- अंधास्था द्वारे, वारे-न्यारे
- अंधेर नगरी फ़ास्ट क़ानून
- अजर अमर वायरस
- अतिथि करोनो भवः
- अपने गंजे, अपने कंघे
- अब तो मैं पुतला होकर ही रहूँगा
- अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा
- अमृत अल्कोहल दोऊ खड़े . . .
- असंतुष्ट इज़ बैटर दैन संतुष्ट
- अस्पताल में एक और आम हादसा
- आज्ञाकारी पति की वाल से
- आदमी होने की ज़रूरी शर्त
- आदर्श ऑफ़िस के दरिंदे
- आश्वासन मय सब जग जानी
- आसमान तो नहीं गिरा है न भाई साहब!
- आह प्रदूषण! वाह प्रदूषण!!
- आह रिटायरी! स्वाहा रिटायरी!
- इंस्पेक्टर खातादीन सुवाच
- उठो हिंदी वियोगी! मैम आ गई
- उधार दे, कुएँ में डाल
- उनका न्यू मोटर वीइकल क़ानून
- उफ़! अब मेरे भी दिन फिरेंगे
- एक और वैष्णव का उदय
- एक निगेटिव रिपोर्ट बस!
- एक सार्वजनिक सूचना
- एप्पों की पालकी! जय कन्हैया लाल की!
- ऐन ऑफ़िशियल प्लांटेशन ड्राइव
- ऑफ़िस शोक
- ओम् जय उलूक जी भ्राता!
- कंघीहीन भाइयों के लिए ख़ुशख़बरी!
- कवि की निजी क्रीड़ात्मक पीड़ाएँ
- काम करे मेरी जूत्ती
- कालजयी का जयंती लाइव
- कालजयी होने की खुजली
- कुक्कड़ का राजनीतिक शोक
- कुछ तीखा हो जाए
- कुशल साहब, ग़ुसल लाजवाब
- केवल गाँधी वाले आवेदन करें
- क्षमाम्! क्षमाम्! चमचाश्री!
- खानदानी सांत्वना छाप मरहमखाना
- गधी मैया दूध दे
- गर्दभ कैबिनेट हेतु बुद्धिजीवी विमर्श
- चमचा अलंकरण समारोह
- चरणयोगी भोग्या वसुंधरा
- चला गब्बर बब्बर होने
- चार्ज हैंडिड ओवर, टेकन ओवर
- चुनाव करवाइए, कोविड भगाइए
- छगन जी पहलवान लोकतंत्र की रक्षा के अखाड़े में
- जनतंत्र द्रुत प्रगति पर है
- जाके प्रिय न बॉस बीवेही
- जी ज़नाब का मिठाई सेटिंग दर्शन
- जैसे तुम, वैसे हम
- जो सुख सरकारी चौबारे वह....
- ज्ञानपीठ कोचिंग सेंटर
- टट्टी ख़त्म
- ट्रायल का बकरा मैं मैं
- ट्रिन.. ट्रिन... ट्रिन... ट्रिन...
- ठंडी चाय, तौबा! हाय!
- ठेले पर वैक्सीन
- डेज़ी की कमर्शियल आत्मकथा
- डोमेस्टिक चकित्सक के घर कोराना
- तीसरे दर्जे का शुभचिंतक
- त्रस्त पतियों के लिए डायमंड चांस
- त्रासदी विवाहित इश्क़िए की
- दंबूक सिंह खद्दरधारी
- दीर्घायु कामना को उग्र बीवी!
- धुएँ का नया लॉट
- न काहू से दोस्ती, न काहू की ख़ैर
- नंगा सबसे चंगा
- नई नाक वाले पुराने दोस्त
- नमः नव मठाधिपतये
- नशा मुक्ति केंद्र में लेखक
- नो कमेंट्स प्लीज!
- नक़लं परमं धर्मम्
- पधारो म्हारे मोबाइल नशा मुक्ति धाम
- परसाई की पीठ पर गधा
- पशु-आदमी भाई! भाई!
- पहली बार मज़े
- पार्टी सौभाग्य श्री की तलाश
- पावर वालों का पावरफ़ुल कुत्ता
- पुरस्कार पाने का रोडमैप
- पुरस्कार रोग से लाचार और मैं तीमारदार
- पुल के उठाले में नेता जी
- पेपर लीकेज संघ ज़िंदाबाद!
- पैदल चल, मस्त रह
- पोइट आइसोलेशन में है वसंत!
- पोलिंग की पूर्व संध्या पर नेताजी का उद्बोधन
- फिर हैप्पी इंडिपेंडेंस डे
- फोटुओं और कार्यक्रमों का रिश्ता
- बंगाली बाबा परीक्षक वशीकरण वाले
- बधाई हो बधाई!!
- बाबा के डायपर और ऑफ़िस में हाइपर
- बुद्धिजीवी मेकर
- बूढ़ों के लिए ख़ुशख़बरी!
- बेगम जी के उपवास में ख़्वारियाँ
- बैकुंठ में जन्म लेती कुंठाएँ
- ब्लैक मार्किटियों की गूगल मीट
- भगौड़ी बीवी और पति विलाप
- भाड़े की देशभक्ति
- भोलाराम की मुक्ति
- मंत्री जी इंद्रलोक को
- मच्छर एकता ज़िंदाबाद!
- मातादीन का श्राप
- मातादीनजी का कन्फ़ैशन
- माधो! पग-पग ठगों का डेरा
- मार्जन, परिमार्जन, कुत्ता गार्जियन
- मालपुआमय हर कथा सुहानी
- मास्टर जी मंकी मोर्चे पर
- मिक्सिंग, फिक्सिंग और क्या??
- मुहब्बत में राजनीति
- मूर्तिभंजक की मूर्ति का चीरहरण
- मेरी किताब यमलोक पहुँची
- मेरे घर अख़बार आने के कारण
- मॉर्निंग वॉक और न्यू कुत्ता विमर्श
- मोबाइल लोक की जय!
- यमराज के सुतंत्र में गुरुजी
- यान के इंतज़ार में चंद्र सुंदरी
- राइटरों की नई राइटिंग संहिता
- राजनीतिक निवेश में ऐश ही ऐश
- रामदास, ठंड और बयानू सिकंदर
- रिटायरमेंट का मातम
- रिटायरियों का ओरिएंटेशन प्रोग्राम
- रैशनेलिटि स्वाहा
- लिंक बनाए राखिए . . .
- लिटरेचर फ़र्टिलिटी सेंटर
- लो, कर लो बात!
- वदाइयाँ यार! वदाइयाँ!
- विद द ग्रेस ऑफ़ ऑल्माइटी डॉग
- विनम्र श्रद्धांजलि पेंडिंग-सी
- वीवीआईपी के साथ विश्वानाथ
- वैक्सीन का रिएक्शन
- वैष्णवी ब्लड की जाँच रिपोर्ट
- व्यंग्य मार्केटिंग में बीवियाँ
- शर्मा जी को कुत्ता कमान
- शुभाकांक्षी, प्यालीदास!
- शेविंग पाउडर बलमा
- शोक सभा उर्फ टपाजंलि समारोह
- सजना है मुझे! हिंदी के लिए
- सम्मान लिपासुओं के लिए शुभ सूचना
- सम्मानित होने का चस्का
- सर जी! मैं अभी भी ग़ुलाम हूँ
- सरकार का पुतला ज़िंदाबाद!
- सर्व सम्मति से
- सामाजिक न्याय हेतु मंत्री जी को ज्ञापन
- साहब और कोरोना में खलयुद्ध
- साहित्य में साहित्य प्रवर्तक अडीशन
- सूधो! गब्बर से कहियो जाय
- सॉरी सरजी!
- स्टेट्स श्री में कुत्तों का योगदान
- स्याही फेंकिंग सूची और तथाकथित साली की ख़ुशी
- स्वर्गलोक में पारदर्शिता
- हँसना ज़रूरी है
- हम हैं तो मुमकिन है
- हाथ जोड़ता हूँ तिलोत्तमा प्लीज़!
- हादसा तो होने दे यार!
- हाय! मैं अभागा पति
- हिंदी दिवस, श्रोता शून्य, कवि बस!
- हिस्टॉरिकल भाषण
- हैप्पी बर्थडे टू बॉस के ऑगी जी!
- ख़ुश्बू बंद, बदबू शुरू
- ज़िंदा-जी हरिद्वार यात्रा
- ज़िम्मेदारों के बीच यमराज
- फ़र्ज़ी का असली इंटरव्यू
- फ़ेसबुकोहलिक की टाइम लाइन से
- फ़्री का चंदन, नो चूँ! नो चाँ नंदन!
- फ़्री दिल चेकअप कैंप में डियर लाल
- कविता
- पुस्तक समीक्षा
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-