अस्पताल में एक और आम हादसा
डॉ. अशोक गौतमअपने ही अस्पताल में दिन रात "मॉकरी", सॉरी, नौकरी करने के बाद भी उनको चार छींके आने पर आईसीयू बड़ी मुश्किल से नसीब हुआ। तब बिस्तर पर लेटते हुए उन्हें लगा कि अब उन्हें बचने से कोई नहीं रोक सकता। डॉक्टर को तो छोड़ो, यमराज भी नहीं। डॉक्टर से लेकर मुर्दे ढोने वाले तक सब उनके। एक साँस बंद करें तो यार-दोस्तों की सैंकड़ों साँसें उनके फेफड़ों में उमड़ने-घुमड़ने लगें।
वे अपने खानदानी आईसीयू में पूरे कांफ़िडेंस में पड़े-पड़े अच्छे दिनों का इंतज़ार कर रहे थे कि अचानक पता नहीं कैसे "पेड सीट" से डॉक्टरी करे योग्य डॉक्टर से क्या ग़लती हुई कि उनको जो सुई उसने ठीक करने की लगाई, जब सुई उनकी सरकारी चर्बी से बाहर निकली कि उसके साथ उनकी ज़िंदगी भीतर जाने के बदले, रूह सुई की नक़ली दवाई से मरने के डर से डाल पर बैठे कौवे की कांव-कांव करती उड़ गई। बेचारे जितने को सँभलते कि.... कोमा में चले गए। सारी की सारी जान-पहचान धरी की धरी रह गई। मोबाइल में पता नहीं किस किसके नंबर आड़े वक़्त काम आने को सेव करके रखे थे। डॉक्टर ने उनको बचाने के इरादे से आनन-फानन में सरकारी सप्लाई में आई ऑक्सीजन के बदले कार्बन मोनोऑक्साइड की पंचर नली नाक में फँसा लगा दी। ग़ज़ब! उसके बाद भी वे साँस लेते रहे। मरे होने के बाद भी जीते रहे।
उनके परिवार वाले उनसे अधिक परेशान! राम जाने कब तक कोमा में रहें? हो सकता है दो दिन में ही आर या पार हो जाएँ और हो सकता है दो साल भी यों ही निकाल लें। मन ही मन एक रिश्तेदार ने तो उनके जाने की भगवान से मन्नत कर डाली ताकि उन्हें रात को उनके पास अस्पताल में न रहना पड़े।
वैसे आज की तारीख में सरकारी अस्पताल में बंदे के साथ ऐसे हादसे आम बात हैं। ऐसे हादसे ख़ास तो तब होते हैं जब बंदा अस्पताल से बाहर मरता है या मरते-मरते जीता है। अब तो अख़बार भी उनके ही मरने की ख़बर को बड़े शौक़ से शाया करते हैं जो अस्पताल से बाहर मरे हों।
वे न इधर के और न उधर के रहे तो उनके घर वाले अस्पताल में उनके पास रहने को एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। सबके लटके हुए चेहरे।
और शरीर से निकल, उनकी रूह बिना एक पल खोए यमराज के दरबार में जा पहुँची। अचानक अस्पताल के रेगुलर एँप्लाइज़ भोलाराम की रूह को अपने पास आया देख वे चौंके। उन्हें उस वक़्त उसका आना अच्छा भी लगा। अच्छा इसलिए कि अब छोटे-मोटे रोगों के लिए वे उससे सलाह ले सकते थे। नीम हकीम ख़तरे-जान हो तो होता रहे पर फर्स्ट एड इनसे ही मिलती है। और ये रूह तो तीस साल तक अस्पताल में रही है। दवा भले ही न दी होगी, पर दवा देतों को तो ख़ूब देखा है। वैसे सरकारी अस्पताल में सरकारी डॉक्टर होते ही कब हैं? उन बेचारों को तो बाहर के अस्पतालों से ही फ़ुर्सत नहीं होती। इसलिए मरीज़ों को बहलाने-बरगलाने के लिए दूसरे ही उनके सफ़ेद कोट पहन काले काम करते रहते हैं।
दवा का क्या! दवा तो अपने आप में ही डॉक्टर होती है। डॉक्टर को तो बस उसे लिख अपना कमीशन बनाना होता है। कोई मरे तो अपनी बदक़िस्मती से, कोई जिए तो अपनी क़िस्मत से। जहाँ से ज़्यादा कमीशन मिल जाए रोगी को वही दवा दे दो। रोगी को कौन सा पता है कि डॉक्टर उसे जो दवा दे रहा है वह उसी रोग की है जो उसे है। वैसे भी मरना-जीना तो ऊपर वाले के हाथ में होता है। डॉक्टर के हाथ में तो बस बीमारी के नाम पर कमीशन लेना भर होता है। उसके लिए आदमी आदमी नहीं, पाँच-सात सौ रुपए की गोलियों, इंजेक्शनों का पत्ता है।
कुछ देर तक यमराज उस रूह को ग़ौर से देखते रहे। पहचानते रहे कि ये उन्हीं महानुभाव की ही है जो ऑपरेशन थिएटर में जब ड्यूटी पर होते थे तो डॉक्टर के न मँगवाने के बाद भी बाहर रोगी के परेशान रिश्तेदारों से बेकार में ही कभी ये सामान, तो कभी वो समान मँगवाते रहते थे और फिर जब आधा-पौना ऑपरेशन हो जाता था तो पिछले दरवाज़े से सारा सामान उसी केमिस्ट की दुकान पर पहुँचा देते थे।
"वैलकम! वैलकम!! आओ भोलाराम जी। आपका मेरे यहाँ स्वागत है। अभिनंदन है। कहो कैसे आना हुआ? किसी रोगी के पीछे-पीछे भागते-भागते तो यहाँ नहीं आ पहुँचे कि उसने....."
"नहीं जनाब! अब तो मैं ख़ुद ही भागते-भागते यहाँ आ पहुँची हूँ," भोलाराम की रूह ने फ़िल्मी नायिका की तरह मन मसोसते, लजाते-शरमाते-बलखाते-इठलाते कहा।
"तो कैसे आई तुम यहाँ?? जनता तो हर पल मृत्यु-अल्पमृत्यु को प्राप्त होती ही रहती है परंतु अस्पताल में काम करने वालों को भी आधी मृत्यु का शिकार होना पड़ता है, पहली बार देख रहा हूँ। मेरे हिसाब से अभी तो तुम्हारा समय पूरा नहीं हुआ था।"
"हुआ तो नहीं था सर पर जब...."
"कहो, कैसे घटा ये सब? हम सत्यकथा सुनना चाहते हैं। तुम कैसे उस ग्रेट लिंकिए बंदे के शरीर से निकलीं जिस बंदे की जेब से चवन्नी तक निकालना टेढ़ी खीर है। तुम बच्चों की बेरोज़गारी से परेशान होकर निकलीं या सब कुछ होने के बाद भी सब कुछ होने की परेशानियों से निकलीं या ........ भली-चंगी नौकरी और ऊपर से बेहतर रिश्वत होने के बाद भी भोलाराम को अकेला छोड़ने की कोई ख़ास वजह? हम बस तुम्हारे समय से पहले यहाँ आने की वजह जानना चाहते हैं - हे भोलाराम की रूह! इसे अन्यथा न लें प्लीज़! जो तुम सच कहो तो.... देखो तो, वह बेचारा तुम बिन कैसे पड़ा है। और उसके सामने उसका बेटा उसे हर्बल गालियाँ देता कैसे मौन खड़ा है।"
"सर! बच्चों की बेरोज़गारी से तंग आकर वे ईमानदार माँ-बाप मरते हैं जिनके ऊपर वालों से लिंक नहीं होते। जिनको बच्चों के लिए योग्यता से बड़ी नौकरी ख़रीदनी नहीं आतीं। और भगवान की दया से मैंने सरकारी नौकरी में रहते हुए लिंक बनाने के सिवाय और कुछ किया ही नहीं। मैं पगार सरकार की लेती रही और लिंक अपने बनाती रही। ये तो पता नहीं मेरे साथ कैसे ये हादसा हो गया। वरना जो ज़रा सी भी मुझे पहले ये भनक लग जाती कि मेरे साथ ये होने वाला है, तो पीएमओ ऑफ़िस तक से भोलाराम के साथ रहने की सिफ़ारिश ले आती। तब देखती कोई मेरा क्या करता? पर कम्बख़्त इंजेक्शन के रिएक्शन ने वक़्त न दिया। मोबाइल में एक से एक नंबर धरे के धरे रह गए।"
"तो क्या घर में बीवी से कहा सुनी हो गई थी जो जोश में तंग आकर उसके हसबेंड के शरीर से निकलने का ख़तरनाक रास्ता चुन लिया?"
"नहीं सर! वह तो बेचारी समान नागरिक संहिता के दौर में भी हरदम बस इसी बात से डरी रहती है कि दूसरे धर्म का होने के बाद भी जो भोलाराम ने सपने तक में उसे तीन बार तलाक़ तलाक़ तलाक़ कह दिया तो.....इस बुढ़ापे में कहाँ जाएगी? सोचती है तो उसके हाथ-पाँव फूल जाते हैं।"
"री रूह! ग़ज़ब के मर्द हैं ये भी! सारी उम्र प्रेम-प्रेम करते-करते, कहते-कहते भी अपनी बीवी से प्रेम नहीं कर पाते पर सिर्फ तीन बार तलाक़ तलाक़ तलाक़ कहकर उसे तलाक़ ज़रूर दे देते हैं। कौन से धर्म की पोथी पढ़े हैं री ये मर्द?"
"पोथी कौन मुआ पढ़ा हुज़ूर! ले देकर दुई-चार डिग्री-फिगरी जोड़ ली और..... ये धर्म की पोथियाँ बाँचना तो उनका पेशा है हुज़ूर जिनके पास दूसरा कोई काम न हो। आम आदमी तो बेचारा दाल-रोटी में उलझा रहता है पैदा होने लेकर मरने तक। जो कुछ उन्होंने कह दिया ये तो बस उनके कहे को ही प्रभु का कथन मान लेते हैं प्रभु!" कमाल! नार्को टैस्ट के बिना ही भोलाराम की रूह सच पर सच बोल रही थी, और वह भी छाती बजा-बजा कर। रूह और शरीर में एक यही बेसिक अंतर होता होगा।
"चलो, एक बात तो तुम में है। यहाँ आकर सच तो बोली। नीचे तो तुमने सच न कहने की क़सम खा रखी थी क्यों?"
"प्रभु! वहाँ सच सुनना ही कौन चाहता है? सब झूठ के पुजारी हैं। सब झूठ के कारोबारी हैं। एक दूसरे के जूते चाटना हर जीव की लाचारी है। जो नहीं चाटता, उसकी ज़िंदगी में कंगाली है। जिसका जितना उम्दा झूठ, उसका उतना चकाचक कारोबार। झूठ के माहौल में सच बोलने के संकट इतने हैं कि......"
भोलाराम की रूह ने कहा तो यमराज मंद-मंद मुस्कुराए और फिर पूछा," तो तुम्हारे साथ ये केजुअल्टी हुई कहाँ?
"अपने ही अस्पताल के आईसीयू में। अपने ही डॉक्टर की सुई से। उस कमबख़्त के पेट की आग ने मुझे समय से पहले भोलाराम के शरीर से जुदा कर दिया। प्रभु! मुझसे रीतिकाल की विरही नायिका की तरह नायक भोलाराम से अब और वियोग सहन नहीं हो रहा। कुछ करो वरना........" कह भोलाराम की रूह भोलाराम के वियोग में ऐसे रोने लगी ....ऐसे रोने लगी कि उसे रोता देख यमराज के दरबार में आई शेष-निशेष-अवशेष रूहें उसके रोने के सुर के साथ सुर मिला उठीं तो यमराज का भेड़तंत्र में एक बार फिर विश्वास गहरा हुआ।
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