विनम्र श्रद्धांजलि पेंडिंग-सी
डॉ. अशोक गौतम
वैसे ही, मेरी नॉलिज के लिए, एक बात तो बताना भाई साहब! क्या कभी-कभी आपके दिमाग़ में भी मेरे जैसी बेकार की यह सोच पैदा होने पर सेप्टिक टैंक के से कीड़े कुलबुलाते हैं कि टेक्निकली जो यहाँ पर है, उसे वहाँ पर होना चाहिए था या कि जो वहाँ पर है उसे असल में यहाँ पर होना चाहिए था। क्या ऊपर भी अब यहाँ की तरह ही चलने लगा है कि जो उसे यह बनाकर यहाँ नहीं भेजना चाहिए था, वह उसे वह बनाकर मज़े से यहाँ भेज देता है, या कि जो उसे बनाकर असल में यहाँ भेजना चाहिए था, उसे वह यहाँ बनाकर नहीं भेजता। मसलन, जिसे पीउन भी नहीं होना चाहिए था, वह साहब बनकर ऊपर से आ जाता है। जिसे गधा भी नहीं होना चाहिए था, उसे वह ऊपर से अदबकार आदमी बनाकर भेज देता है। या कि जिसे चोर, डकैत से भी नीचे होना चाहिए था, उसे वह ऊपर से इज़्ज़तदार नेता बनाकर जनता के सामने पेश कर देता है। या कि फिर जिसे कसाई होना चाहिए था, उसे ऊपर से डॉक्टर बनाकर वह बीमार जनता पर लाद देता है। या कि जिसे आदमियों का डॉक्टर होना चाहिए था, उसे वह कुत्तों का डॉक्टर बना कुत्तों पर थोंप देता है। या कि फिर जिसे गुंडा, मवाली होना चाहिए था, उसे वह साधु बनाकर उसके धार्मिक कंधों पर समाज कल्याण का बोझ डाल धरती पर भेज देता है।
अब देखिए न! मेरे जिस पड़ोसी के पास कुत्ता है, उसे देखकर तो कई बार लगता है कि उसके कुत्ते को उसका मालिक होना चाहिए था, और उसे उसका कुत्ता ताकि उससे मेरा पड़ोसी कुछ नेक सीख लेता जिसने नेक, भले-चंगे कुत्ते का बिगाड़ कर रख दिया।
मानता हूँ, आदमी को आदमी को लेकर सब कुछ होना चाहिए, पर जजमेंटल क़तई नहीं होना चाहिए। फिर भी पता नहीं क्यों कई बार किसीकी हरकतें देख कर जजमेंटल होने को मेरा पाजी मन कर ही जाता है। जबकि किसीको देख जजमेंटल होने का मतलब होता है थोड़ा और मेंटल होना।
अब मेरी बात लीजिए! मैं आज जो हूँ, बाइ च्वाइस नहीं हूँ। मैं सब एक्सिडेंटल हूँ। मैंने एक्सिडेंटली पीएच.डी. की। मैं एक्सिडेंटली हिंदी पढ़ाने वाला हो गया। पर मज़े की बात! मैं एक्सिडेंटली किसीका प्रेमी न बन पाया, पर पति ज़रूर हो गया। पहले मुझे कुत्तों से नफ़रत तो नहीं, पर बहुत परहेज़ था। पर आज मैं भरा-पूरा डॉग लवर्स हूँ। इसे भी आप एक्सिडेंटली ही कह सकते हैं। मेरे जीवन में मेरे एक्सिडेंट बहुत हुए। जब साइकिल चलाई तो साइकिल पर से। जब स्कूटर लिया तो स्कूटर पर से और जब कार ली तो कार से। यहाँ तक कि दोस्तों के साथ हँसते-गाते हुए भी बहुत एक्सिडेंट हुए।
मित्रो! आदमी पालते-पालते जब बहुत धोखे खाए तो एक दिन मेरी एक कुत्ते से अंतरंग मुलाक़ात हुई। कुत्ते ने बातों ही बातों में मेरे नज़दीक आते कहा, “हे ज़िन्दगी में बहुतों से धोखा खाए शख़्स! मुझे अपने साथ लेकर तो देख। तुम्हें मिले धोखे विश्वास में न बदल गए तो जीना छोड़ दूँगा।” मुझमें और तो कोई बीमारी नहीं, पर साँप पर भी आँखें मूँद विश्वास करने की लाइलाज बीमारी है। सो, मैंने उस पर भी इस बीमारी के चलते सहज विश्वास कर लिया। सोचा, एक धोखा और सही। कम से कम आदमी तो नहीं है।
पर उसका कहा सही निकला। तब पहली बार लगा कि समाज में असली ब्रीड के कुत्ते अभी भी विश्वास करने लायक़ हैं। मेरी ऐसे हताशों, निराशों को नेक सलाह है कि जो ईमानदार आदमियों, रिश्तेदारों से धोखा खाकर टूट गए हों, वे एक बार असली जात के कुत्तों पर विश्वास ज़रूर करें। पर उन पर विश्वास करने से पहले ज़रूर देख लें कि उनके डीएनए में आदमियों का डीएनए तो नहीं मिला है। पर क्या करें भाई साहब! मिलावट का ज़माना है। आप अपनी क्यारी में कितने ही प्राकृतिक विधि से टमाटर, बैंगन उगाइए, इधर-उधर से पेस्टीसाइड उड़ कर चिपक ही जाते हैं।
इधर उस कुत्ते ने मेरा विश्वास जीता तो मेरे ठूँठ विश्वास की नई कोंपलें एक बार फिर फूटने लगीं।
कैमिकल्स आज किस चीज़ में नहीं जनाब? वे तो पंच तत्त्व में विराजमान हैं। अब तो गंगा के पानी तक में पानी कम कैमिकल्स अधिक पाए जाते हैं। बजाते रहें जो बजाते रहे निर्मल गंगा के ढोल। बजट है तो उसका फुकना तय है।
. . . और आदमियों के अशुद्ध खानपान के खानपान करने के चलते एक दिन कुत्ता बीमार हो गया।
अब उसे अस्पताल ले जाना मेरा भी नैतिक कर्त्तव्य था। बचने के लिए या मरने के लिए, यह मैं नहीं कह सकता। बुरा न मानिएगा, जो सच कहूँ तो, आजकल मारना डॉक्टर के हाथों तो बचाना ऊपर वाले के हाथों चल रहा है।
इधर आयुष्मान कार्ड मेरा! बीमार मेरा कुत्ता! सोचा, उसके इलाज के लिए अपना कार्ड चला लूँ। यहाँ सब ऐसे ही तो चल रहा है। कार्ड किसीका, इलाज किसीका। टिकट किसीका तो हवाई सफ़र किसीका।
पहले तो मैंने रियल चिंतक हो सोचा कि जब कुत्ते में गुण, स्वभाव आदमियों से आगे वाले हैं तो क्यों न उसे आदमियों के अस्पताल ले जाऊँ? कुत्ता सरीखा तक गुणों से उच्च माना जाता है, उसके कुत्तीले शरीर से नहीं। जिसमें गुण हैं उसकी क़द्र होनी चाहिए। चाहे वह गधा ही क्यों न हो। यही सोच उसे सिविल हॉस्पिटल ले गया तो उसे देख आदमियों के सीनियर डॉक्टर गधे की तरह बिदके, “कौन बीमार है? तुम या . . .?”
“नहीं जनाब, मेरा मानवीय गुणों से सम्पन्न कुत्ता!”
“मैं कुत्तों का नहीं, आदमियों का डॉक्टर हूँ, ये देखो, ये देखो! कहीं से भी क्या मैं तुम्हें कुत्तों का डॉक्टर लग रहा हूँ? बाहर आदमियों की लाइन नहीं देखी क्या? क्या वहाँ सब कुत्ते लगे तुम्हें?”
“जनाब! बुरा न मानिएगा, आपका बीमारों के साथ जब बिहेवियर कुत्तों वाला लगा तो सोचा कि आप कुत्तों के डॉक्टर . . .” अपने बारे में सच सुन वे गली के कुत्ते की तरह भौंके। मतलब, यहाँ भी ऊपर वाले से ग़लती हो गई है। इन्हें आदमियों का नहीं . . . क़ायदे से तो कुत्तों का डॉक्टर होना चाहिए था। आदमी तो ग़लतियों का पुतला है ही, पर अब भगवान भी ग़लतियों के पुतले होने लगे हैं जनाब!
“जनाब, इसका शरीर ही कुत्तों वाला है, गुण तो इंसानों वाले हैं,” मैंने यमराज के कोर्ट वाली दलील दी तो उन्होंने अब कुछ नहीं कहा, बस, गली के कुत्ते की तरह भौं-भौं करते अपनी सीट से दुम दबाए वहाँ से सरपट हो लिए।
मन मसोस कर फिर मैं उसे उसीके अस्पताल ले गया। मुझे अब तक लग गया था कि गुणों से जीव बड़ा नहीं होता। जात से ही होता है। उसमें गुण चाहे सूअर वाले ही क्यों न हों, पर जात चमाचम होनी चाहिए।
उसको उसके अस्पताल लेकर पहुँचा तो वहाँ कुर्सी पर डॉक्टर सहब कुत्ते की तरह पसरे थे। उनकी एक ही झलक में लग गया कि वे कुत्तों के एक्सपर्ट डॉक्टर हैं। अब मैं अपने कुत्ते को लेकर सही जगह आ गया हूँ। उन्होंने अपनी पूँछ छुपाते मुझसे पूछा, “कुत्ते का नाम?” मैंने उसका नाम बताया तो वे मुझे पर गुर्राते बोले, “अपना कहो।”
“पर मैं तो आदमी हूँ सर!”
“हमारे लिए जिसके साथ कुत्ता हो वह भी कुत्ता ही होता है,” कुत्तों से तो कई बार आमना-सामना हुआ था, पर कुत्तों के डॉक्टर से फ़र्स्ट टाइम फ़ेस टू फ़ेस मिल रहा था सो मैंने अपने को कुत्ते का मालिक होते भी ख़ुद को कुत्ता घोषित करते कुत्ते की सी आवाज़ निकालते कहा, “जी! रामा प्रसाद!”
“क्या हुआ है?”
“किसे? मुझे या इसे?”
“इसे,” उन्होंने कुत्ते और अपने बीच ज़रूरत से अधिक दूरी बनाए रखी ताकि शायद वे आदमी ही लगें।
“मुझे लग रहा है कि इसके पेट में पानी भरा है जनाब! इसका पेट लटक गया है।”
“मुझे तो सब नॉर्मल लग रहा है,” कह उन्होंने कुत्तों-सी साँस ली।
“कई दिनों कुछ खा भी नहीं रहा जनाब!”
“अच्छा है, कोई तो देश में ऐसा है जो खा नहीं रहा, वर्ना यहाँ तो बिन दाँत वाले दाँत वालों से अधिक देश को खा रहे हैं। देखा, हमसे अच्छे देश भक्त तो ये कुत्ते हैं। और एक हम हैं कि . . .,” वे कुत्ता डॉक्टर से अरस्तु हुए तो एक बार फिर ऊपर वाले पर अविश्वास हुआ। अरस्तु और कुत्तों के अस्पताल में!
“पर मुझे तो नहीं लगता,” वे दूर से ही कुत्ते को वैसे ही घूरते हुए चेक करते रहे जैसे एक कुत्ते को देखकर दूसरा कुत्ता उसे घूरते हुए दूर से चेक करता है। तब मेरा कुत्ता कभी उनका तो कभी मेरा मुँह देखता रहा। वह उनके चेकअप के तरीक़े को देख भौंकते हुए उन्हें कुछ समझाना चाहता था, पर मैंने उसे चुप रहने का संकेत किया कि यार! चुप! घर जाकर कह लेना जो यहाँ कहना चाहता है। कुछ कहा तो कुछ ठीक होने की उम्मीद लिए आया तू और बीमार हो सकता है। सो नो कंप्लेंट यार! जनता की ज़िंदगियों से खेलने वालों की कंप्लेंट करना यहाँ घोर अपराध होता है। सच कहूँ तो इस वक़्त हम कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं डियर! इसलिए प्लीज़! बी कूल! सो वह चुप रहा। समझदार जो था।
कई दिनों तक मुझे कुत्ते को उनके पास ले जाते लगता रहा कि कुत्ता बीमार से और बीमार हो रहा है तो उन्हें लगता रहा कुत्ता अब पहले जितना बीमार नहीं, वह पहले से कम बीमार है। उसका इलाज चलता रहा। वह धीरे-धीरे उनके कुशल इलाज के तले गीली लकड़ी तरह जलता रहा। वे डॉक्टर थे। इसलिए बस, अपनी बात को तरजीह देते रहे।
. . . और एक दिन . . . जितने को सच्ची के डॉक्टर से मेरा सामना हुआ, मुझे जाना था, सो मैं चला गया।
हे मेरे शुभचिंतको! अब तक मैंने ख़ुद को विनम्र श्रद्धांजलि नहीं दी है। रेस्ट इन पीस भी नहीं कहा है। क्योंकि समझ नहीं आ रहा, श्रद्धांजलि किसे दूँ? किसकी क़ब्र पर जाकर रेस्ट इन पीस कहूँ? पर मैंने एक वैसा ज़रूर खो दिया जो सच्ची को विश्वास करने लायक़ था। वह सच्ची को लव करने लायक़ था। एक्स्डिेंटली नहीं, बाइ च्वाइस!
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