ग़ुरबत में शरबत

01-05-2025

ग़ुरबत में शरबत

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

आज भी सारी रात बिजली न होने की वजह से चैन की नींद तो छोड़िए कहने की नींद भी न सो सका। मच्छर थे कि सारी रात पड़ोसियों की तरह कभी इधर से तो कभी उधर से तंग करते रहे और मैं उनसे तंग होता रहा। 

हालाँकि सरकार रोज़ अख़बारों में दावे करती रहती है कि जनता को गर्मी से डरने की कोई ज़रूरत नहीं। सरकार ने जनता को गर्मी से बचाने के पुख़्ता इंतज़ाम कर दिए हैं। अब जनता को चौबीसों घंटे शुद्ध हवा मिले या न, पर शुद्ध बिजली ज़रूर मिलेगी। 

पानी चार दिनों से नहीं आया है। टंकी में झाँकते-झाँकते गरदन में दर्द होने लगा है। सरकारी पानी बेचने वाले चाँदी कूट रहे हैं। सरकार का पानी सरकार को ही बेच पुण्य लूट रहे हैं। पूरी बाल्टी से नहाने के नाम पर तौलिया गीला कर पूरे बदन पर फेर रहा हूँ। दूसरी ओर सरकार है कि अख़बारों में ख़बर दे रही है कि गर्मी में जनता को पानी से डरने की ज़रूरत नहीं। सरकार ने जनता के लिए गर्मी में चौबीसों घंटे पानी देने का इंतज़ाम कर दिया है। 

सच कहूँ जो ये अख़बार न होते तो नेताओं का झूठ जनता तक रोज़ सुबह न पहुँचा करता। कहीं ऐसा तो नहीं कि अख़बार और नेताओं की आपस में अट्टी-सट्टी हो? नेताओं का झूठ प्रचार करना अब अख़बारों का कर्तव्य हो गया हो? झूठ बोलना और कम तोलना आज के वक़्त की ख़ासियत है। 

सारी रात न सो पाने के बावजूद भी सुबह समय पर जागा ही था कि दरवाज़े पर ठक-ठक हुई। दूध वाला ही होगा? इन दिनों नलके में तो पानी नहीं आता, पर दूधवाले के दूध में डटकर आता है। दरवाज़ा खोला तो वह नहीं था। सामने मन मोहिनी मुद्रा में शरबत। मैं चौंका। वाह! क्या लसालस विज्ञापनी मुद्रा! प्रॉडक्टों की मोहिनी मुद्रा के दौर में जो बिना सम्मोहिनी मुद्रा के अमृत भी बाज़ार में उतर आए तो भी उसे कोई न पूछे। 

सर्दियों में कंबल और गर्मियों में शरबत को कौन नहीं पहचानता? फिर भी उसे पहचानने के बाद भी मैंने उससे यों ही पूछ लिया, क्यों? मुझे भी पता नहीं। 

“कौन?” 

“मैं कल तक का सर्वाधिक लोकप्रिय और आज का सबसे हेय शरबत हूँ जनाब! गर्मियों का राजा! हर दिल अज़ीज़! गर्मियों में जिसके गले से एक बार उतर जाऊँ उसे फिर अपनी उँगलियों पर नचाऊँ,” जब प्राडॅक्ट अपना प्रचार ख़ुद करने लग जाए तो समझो . . . 

“किस धर्म के हो?” मैं सीधे मुद्दे पर आया। टीवी वालों की तरह टाइम पास के लिए मुद्दा-हीन बहस मेरी नेचर में नहीं कि घंटा भर दर्शकों को बोर करने के लिए मुद्दे से हटकर ‘पेड’ बहस-वीरों को आपस में बहसवाते रहें और ज्यों ही समय पूरा हुआ तो मुद्दा वहीं और मुद्देवीर और कहीं। 

“जनाब! जिस तरह मुनाफ़ा कमाने वालों का मुनाफ़ा कमाने के सिवाय और कोई धर्म नहीं होता उसी तरह मुझ शरबत का भी हर गले को ठंडक पहुँचाने के सिवाय और कोई धर्म नहीं होता। शरबत शरबत होता है, मुनाफ़ाख़ोर मुनाफ़ाख़ोर। 

“जनाब! जिस तरह दाल का कोई धर्म नहीं होता, उसी तरह शरबत का भी कोई धर्म नहीं होता। जिस तरह चावल का कोई धर्म नहीं होता, उसी तरह शरबत का भी कोई धर्म नहीं होता। जिस तरह आटे का कोई धर्म नहीं होता, उसी तरह शरबत का भी कोई धर्म नहीं होता। जिस तरह सब्ज़ियों का कोई धर्म नहीं होता, उसी तरह शरबत का भी कोई धर्म नहीं होता। जिस तरह मूली गाजर का कोई धर्म नहीं होता, उसी तरह शरबत का भी कोई धर्म नहीं होता। जिस तरह हवा पानी का कोई धर्म नहीं होता, उसी तरह शरबत का भी कोई धर्म नहीं होता। जिस तरह नमक का कोई धर्म नहीं होता, उसी तरह शरबत का भी कोई धर्म नहीं होता। 

“शरबत पीने, रोटी मिलने, घुटते हुए दम को हवा मिल जाने के बाद ही आदमी धर्म-धर्म चिल्लाता है। गला सूखा होने पर हर सूखा गला धर्म-धर्म नहीं, शरबत-शरबत चिल्लाता है। पेट भूखा होने पर पेट हर धर्म-धर्म नहीं, रोटी-रोटी चिल्लाता है। पर ज्यों ही उसका पेट भर जाता है, सूखा गला तर हो जाता है, वह सीना पीटता पीटता, गला फाड़ता-फाड़ता धर्म-धर्म चिल्लाता है,” उसने शांत स्वर कहा। शरबत था न! जो मिर्च-मसाला होता तो मेरा मुँह, रूह, कान सब जला कर रख देता। 

फिर कुछ देर तक उसने अपने गले को ख़ुद ही तर किया और आगे बोला, “जिस तरह दाल का धर्म सूखी चपाती को पेट तक सरलता से पहुँचाना होता है, उसी तरह शरबत का धर्म गर्मी में सूखे गले को ठंडक पहुँचाना होता है जनाब! जिस तरह चावल का धर्म पेट को नरम बनाना होता है, उसी तरह शरबत का धर्म गर्मी में सूखे गले को ठंडक पहुँचाना होता है जनाब! जिस तरह सब्ज़ियों का धर्म हर आदमी के शरीर के विटामिनों की कमी को पूरा करना होता है, उसी तरह शरबत का धर्म गर्मी में सूखे गले को ठंडक पहुँचाना होता है जनाब! यहाँ सबका कोई न कोई धर्म हो तो होता रहे, पर पानी, हवा, ज़मीन, आसमान, धूप, आटे दाल की तरह शरबत का कोई धर्म नहीं होता तो हरगिज़ नहीं होता जनाब!” मैंने उसे पता नहीं क्यों शरबत समझा था! पर ये तो शरबत के रूप में दार्शनिक निकला! 

“पर व्यापारी धर्माधिकारी तो कहते हैं कि जिस तरह आदमी का धर्म होता है, उसी तरह शरबत का भी धर्म होता है। 

“कि जिस तरह आदमी का धर्म होता है, उसी तरह पानी का भी धर्म होता है। 

“कि जिस तरह आदमी का धर्म होता है, उसी तरह आटे का भी धर्म होता है। 

“कि जिस तरह आदमी का धर्म होता है, उसी तरह दंगे-फ़साद का भी धर्म होता है। बल्कि मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि आदमी का कोई धर्म भले ही न हो, पर बाज़ार का हर हाल में धर्म होता है। इसलिए हर धर्म का अपना-अपना बाज़ार होता है। अब वस्तुओं की क्वालिटी नहीं देखी जाती, उनका धार्मिक बाज़ार देखा जाता है। अच्छा एक बात बताओ? तुम्हें अपने को बेचकर जो इनकम होती है वह कहाँ जाती है? 

“धर्म का नारा लगाने वाले पूँजीपतियों की जेब में। इसलिए जनाब! पूँजीपतियों से तो आप बच नहीं सकते। कम से कम इस भीषण गर्मी से तो बचो जो अगली सर्दियों में अपने धर्म के कंबलों से अपने को सर्दी में ज़ुकाम लगाना हो तो,” उसने मुझे हाथ जोड़ नमस्कार कर मेरे पाँव छुए और आगे हो लिया तो सोचा-यार! ये कहीं मेरे धर्म का शरबत तो नहीं था? फिर सोचा—पर बात-बात पर तो जनाब! जनाब! कर रहा था? कि कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि ये दूसरे धर्म का शरबत हो और मेरा धर्म भ्रष्ट करने को मेरे धर्म के संस्कारों का दुरुपयोग कर रहा हो? बाज़ार में कुछ भी हो सकता है जनाब! बाज़ार धर्म नहीं देखता। बाज़ार सद्कर्म नहीं देखता। वह बस, जनता को उल्लू बना अपना मुनाफ़ा देखता है। 

मित्रो! मैं उल्लू भी सुबह-सुबह क्या सोचने लग गया! सोचना है तो सोच आज रात को भी बिजली नहीं आई तो क्या करेगा? इधर मच्छर हैं कि बाज़ार में उन्हें मारने की नई दवाई बाद में आती है, वे उससे बचने के तरीक़े पहले ढूँढ़ लेते हैं। सोच, जो आज भी पानी नहीं आया तो ख़ाली पानी की टंकी में झाँकता पपीहा तन क्या करेगा? 

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