अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा
डॉ. अशोक गौतम
गैसों में सबसे बुरी लिटरेरी गैस होती है। इसी लिटरेरी गैस ने मेरा जीना मुहाल कर रखा है। बीवी मेरे लिए एक से एक नीमों हक़ीमों से क़िस्म-क़िस्म के लिटरेरी गैसहर चूर्ण लाते-लाते थक गई है, पर एक मेरी साहित्यिक गैस है कि ज़रा-सा भी रुकने का नाम नहीं ले रही। उल्टा जितना लिटरेरी गैसहर चूर्ण खा रहा हूँ, यह उतनी ही बढ़ती जा रही है। साधारण लोगों के बीच बैठा होता हूँ कि अचानक मेरी लिटरेरी गैस निकल जाती है। और भले चंगे मेरे साथ बैठे मेरे पास से नाक पकड़ हवा हो लेते हैं।
सच पूछो तो मैं इस लिटरेरी गैस से बहुत परेशान हूँ। मैं ही नहीं, इस गैस से मुझसे अधिक मेरे घरवाले परेशान हैं। इसके चलते कोई मेरे पास बैठता तक नहीं। डरते हैं, पता नहीं कब जैसे मेरी लिटरेरी गैस निकल जाए? घर में मेरे आगे से जब कोई गुज़रता है तो अपनी नाक पकड़े हुए मुझे घूरता हुआ गुज़रता है।
बंधुओ! मैं भी कब चाहता हूँ कि हर कहीं मेरी लिटरेरी गैस निकले और दाल-रोटी में उलझे लोग मेरी वजह से बेवजह परेशान हों। सच कहूँ तो यह लिटरेरी गैस अब मेरे नियंत्रण से बाहर हो गई है। कई बार तो मुझे भी पता नहीं चलता कि मेरी लिटरेरी गैस निकल रही है। जब आसपास के हँसते लोगों को नाक पकड़ अपने पास से अचानक उठते हुए देखता हूँ तभी पता चलता है कि मैंने लिटरेरी गैस छोड़ दी है। या मेरे लाख आपा रखने के बाद भी लिटरेरी गैस पर से मैं आपा खो चुका हूँ।
दो-तीन महीने पहले सपने में माँ सरस्वती ने मेरी लिटरेरी गैस से प्रभावित हो दर्शन दिए तो मेरी लिटरेरी गैस का पारावार न रहा। मैं धन्य हुआ। तब माँ सरस्वती मेरे पेट पर हाथ फेरती बोलीं, “हे लिटरेरी गैसाधारी! लिटरेचर के नाम पर अब समाज को बहुत दूषित प्रदूषित कर लिया। अब पल-पल लिटरेरी गैस छोड़ सबको परेशान करना बंद करो। चलो, अब यथाशीघ्र अपना अभिनंदन ग्रंथ छपवा गैसाधारी समाज में अमर हो जाओ!”
“माँ! मैं और अभिनंदन ग्रंथ?” मेरे लेटे-लेटे ही हाथ पाँव जुड़ गए।
“क्यों थालीदास! अभिनंदन ग्रंथों पर क्या चालीदासों का ही हक़ है? अभिनंदन ग्रंथ के बिना नालीदास से लेकर प्यालीदास गैसाधारी साहित्यिकार अधूरा है।”
और सुबह उठ कर मैंने अपनी सारी लिटरेरी गैस रोके अपने अभिनंदन ग्रंथ के प्रोजेक्ट पर चिंतन करना शुरू कर दिया। तब सोचा, मेरे बारे में कोई लिखेगा क्यों? सबके पास अपने बारे में लिखने को ही वक़्त कम है। कोई बात नहीं! बहुत कुछ तो अपने बारे में अपने रिश्तेदारों के नामों से मैं ख़ुद ही लिख मारूँगा। कुछ बीवी के नाम से लिख दूँगा। कुछ सास के नाम से। चार साले हैं। काम के काज के, दुश्मन अनाज के। चार आलेख उनके नाम से हो जाएँगे। चार उनकी घरवालियों के नाम से। दो सालियों के नाम से। दो उनके पतियों के नाम से। चार-पाँच बदतमीज़ दोस्त भी हैं मेरे। उनके नाम से भी कुछ न कुछ तो अपने बारे में लिखना ही पड़ेगा। वर्ना बुरा मान जाएँगे बदतमीज़। कुछ मौलिक भी हो, सो अपने नाई, दर्जी, बिजली वाले, टेलिफोन वाले, पानी वाले, मुझे महीने का राशन उधार देने वाले के नाम से एक-एक दो-दो आलेख अभिनंदन ग्रंथ में डाल दूँगा। मेरे बारे में लिखवाएँगे वे और संपादित कर लिखूँगा मैं। ताकि अभिंनंदन ग्रथ का भार मेरे भार से अधिक नहीं तो कम से कम मेरे भार जितना तो हो।
महीना भर दिन-रात एक कर, दूसरा सारा लेखन बंद कर, अपना अभिनंदन ग्रंथ लिखने में जुटा रहा। जब लगा कि ढाई तीन सौ पेज तैयार हो गए तो साँस ली। फिर प्रकाशक ढूँढ़ा गया। लेखक इस जीव जगत में सब कुछ मज़े से ढूँढ़ सकता है, पर ईमानदार प्रकाशक नहीं। जिसे ईमानदार प्रकाशक मिल जाए उस साहित्यकार को बिन मिले ही ज्ञानपीठ मिला समझो।
अपने पैसे से ही अपना अभिनंदन ग्रंथ छपना था, सो अपने पैसे पर अभिनंदन ग्रंथ छप कर आया तो मेरे पागलपन का ठिकाना न रहा। मत पूछो, तब मेरे क्या हाल हुए! न भूख, न प्यास! न गति, न साँस! दो-तीन दिन तो बस, एकटक अपने अभिनंदन ग्रंथ को ही निहारता रहा। आख़िर जब मैं अभिनंदन ग्रंथ के प्रकाशन की मदहोशी से बाहर आया तो लगा, अब मेरे अभिनंदन ग्रंथ के साथ मेरा अभिनंदन भी होना चाहिए। तीस हज़ार ख़र्च इसीलिए तो किए हैं। तब मैंने प्रोग्राम शेड्यूल किया कि सबसे पहले घर से महल्ले के जंज घर तक अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा निकाली जाएगी। उसके बाद मैं और मेरा अभिनंदन ग्रंथ जब जंज घर पहुंचेंगे तो वहाँ पर उसका साली के कर कमलों द्वारा लोकार्पण होगा। बेचारी ने विवाह के बाद जीजू-जीजू कहते मुझको बहुत झेला है।
मेरे अभिनंदन ग्रंथ के लोकार्पण समारोह में पूरा मुहल्ला खाने के नाम पर ख़ुद ब ख़ुद जुट जाएगा। बुलाऊँगा बीस तो आएँगे सौ। लोग आजकल साहित्य की भूख के भूखे नहीं, पेट की भूख के भूखे चल रहे हैं। सरकारी लाइब्रेरियों में किताबें वहाँ के साहबों के पेट की भूख शांत करने के बाद ही लगती हैं।
मैंने अपने अभिनंदन ग्रंथ के लोकार्पण का रोड मैप बीवी से डिस्कस किया तो वह बिदकी, “देखो जी! सारी उम्र तुम्हें ढोते-ढोते अब मैं बहुत थक गई हूँ। अब तुम्हारा अभिनंदन ग्रंथ ढोने की मुझमें ज़रा भी हिम्मत नहीं।” तो मैंने उसे समझाया, “देखो लेखक प्रिया! पति को ढोने का अवसर तो मामूली से मामूली बीवी को भी सहज मिल जाता है, पर किसी मूर्धन्य लेखक के ‘दो पेजा अभिनंदन ग्रंथ’ तक को सिर पर ढोने का मौक़ा बहुत कम साहित्यागंनाओं को नसीब होता है। किसी लेखक का अभिनंदन ग्रंथ सिर पर उठाने से इतना सौभाग्य प्राप्त होता है जितना अठारह पुराणों को उठाने पर भी प्राप्त नहीं होता। देख लो! मुझसे अगले जन्म में पीछा छुड़वाना चाहती हो या नहीं! अगर तुम नहीं तो मैं अपनी साली को कह देता हूँ। वह मेरे अभिनंदन ग्रंथ तो अभिनंदन ग्रंथ, मुझे भी उठाने का सहर्ष तैयार हो जाएगी। फिर मत कहना कि . . .”
बंधुओ! साली का नाम मेरे मुख पर आते ही बीवी बिन आगे कुछ बोले, अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा में अपने सिर पर मेरा अभिनंदन ग्रंथ उठाने के लिए बिना किसी शर्त मान गई है।
अगले हफ़्ते मेरे अभिनंदन ग्रंथ का महल्ले के जंज घर में लोकार्पण होना फ़ाइनल हुआ है। अब मैं भी लब्ध प्रतिष्ठित अभिनंदन ग्रंथीय होने जा रहा हूँ। जो हमारे घर किसी तीज त्योहार पर उपहार लेकर भूले से भी नहीं आए, वे भी सुबह के दस बजे मेरे अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा की शोभा बढ़ाते जंज घर में लंच पर सादर आमंत्रित हैं।
जंज घर=बारात घर
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