आह प्रदूषण! वाह प्रदूषण!!
डॉ. अशोक गौतमइस दिल्ली ने आजकल नाक में धुआँ दे रखा है। साँस में धुआँ दे रखा है। हे दिल्ली तू भी न! क्या दिन आ गए आजकल! सबको सुरक्षा देने वाली बेचारी पुलिस सुरक्षा माँग रही है। सबको न्याय दिलाने वाले बेचारे आज न्याय माँग रहे हैं। और जो इन दोनों के बीच साँसें फुलाए हैं, वे सरकार से प्रदूषण मुक्त साँसें माँग रहे हैं। सरकार है कि जनता से एकबार फिर सरकार में आने के लिए वोट माँग रही है। हवा साँस लेने के लिए शुद्ध हवा माँग रही है। दिल्ली में राजनीतिक क्वालिटि इंडेेक्स तो गिरा हुआ ही है पर अब हवा की गुणवत्ता का इंडेक्स भी गिर गया है।
बीवी घर में प्याज़ माँग रही है। अब ऐसे में जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? हर जगह दम निकल रहा है। न घर में, तो न घर के बाहर ही कहीं सुरक्षित हूँ और न कहीं इंसाफ़ की उम्मीद ही दिख रही है। जिधर देखो उधर चोर ख़ुद ही ख़ुद को क्लीन चिट दे रहे हैं। शुद्ध चैन की साँस लेना तो छोड़िए, साँस लेने को साँस नहीं मिल रही। ख़ैर, चैन की साँस लेना तो उसी दिन बंद हो गई थी, जिसदिन बाप के पुराने जूते मेरे पाँव में आ गए थे। मत पूछो, उस दिन मेरे पाँव में अपने फटे जूते फिट आए देख बापू कितने ख़ुश हुए थे। अपने बेटे के पाँव में अपने फटे जूते फिट आए देख कर क्या सबके बापू इतने की प्रसन्न होते होंगे? जितने उस वक़्त मेरे बापू हुए थे।
आख़िर बीवी ने ज्यों ही आज फिर प्याज़ न लाने पर रत्नावली सी फटकार लगाई तो मैं घर से, दिल्ली से वैसे ही बीवी की फटकार सुन भाग गया जैसे अपने समय में तुलसी भागे थे। हद है यार इस बीवी की भी! मर गया दिनरात इसके लिए खपता, इसका नाम जपता पर. . . और मैं दुस्साहस कर बीवी को बिन बताए सिद्धार्थ हो दिल्ली से हवा हो लिया, इस ग़ैर इरादतन इरादे से कि उससे और दिल्ली से दूर जाकर और कुछ ले सकूँ या न, पर कम से कम एक ठो शुद्ध आज़ाद हवा में साँस तो ले सकूँ। मेरे मरते फेफड़ों को एकबार तो पता चले कि शुद्ध हवा आख़िर होती कैसी है?
. . . .और दोस्तो मैंने बाबा का वेश बनाया और दिल्ली से सीधा नाक बंद किए, बीच में बिन कहीं रुके शिमला आ पहुँचा। मौज-मस्ती भक्तों के पैसे पर करनी हो तो सबसे आसान तरीक़ा है हाथ में चिमटा लिया, मुँह पर थोड़ी सी राख मली, एक कमंडल लिया और डट गए जिसका मन किया उसके दरवाज़े पर पूरे बेशर्म बनकर। मोहमाया त्यागे प्रोफेशनल सांसारिक बाबाओं से ढीठ मैंने आजतक कोई नहीं देखा। जिस दरवाज़े पर आ गए तो दस-बीस झाड़ कर ही आगे होते हैं। बाबा बनकर उतना सांसारिक आनंद बे रोक-टोक लिया जा सकता है जितना बड़े-बड़े गृहस्थी भी नहीं ले पाते। बाबा वही जो शर्म की हर सीमा से उठा हो। बाबा वही जो बाबा की गरिमा से ऊपर उठा हो। बाबा बनकर जो दूर कंदराओं में जमे रहे वे काहे के बाबा? जिसको शर्म आती हो समझ लीजिए वह ले दे गृहस्थी ही है, बाबा नहीं।
शिमला आकर पहली बार शुद्ध हवा में नाक गटर की पाइप सी चौड़ी कर फुला-फुलाकर साँस पर साँस ले रहा था और लोग समझ रहे थे कि मैं जैसे कोई बहुत बड़ा रजिस्टर्ड योगी हूँ और इनवेस्टर चीट में योग इनवेस्ट करने आया हूँ। मैं लंबी-लंबी साँसें ले पिछले तीस सालों की शुद्ध हवा अपने फेफड़ों में ठूँस ठूँस कर वैसे ही भर रहा था जैसे आदरणीय नेता अपने बैंक के खातों को जनता के पैसे से ठूँस ठूँस भरता है, कि एक भक्त ने पूछ लिया, ’हे भोगीजी महाराज! ये कौन सा योग है?’ तो मैंने अपने अंदर की दिल्ली की प्रदूषण युक्त हवा उस पर फेंकते हुए बाप की उम्र वाले को कहा,‘ साँसासन पुत्र! साँसासन!’
‘ये साँसासन क्या करता है बाबा?’
‘ये दिमाग़ साफ़ करता है। दिल साफ़ करता है,’ अभी उसे साँसासन मढ़ने के उपाय सोच ही रहा था ताकि शाम को बढ़िया से होटल में स्टे किया जाए कि तभी सामने अपनी खारी बावली के साथ वाले मंदिर के प्रभु! उन्हें यहाँ देखा तो हाथ-पाँव फूल गए। आख़िर जनाब भी वहाँ से भाग खड़े हुए? डरा भी कि जो इन्होंने बीवी को सब बता दिया तो. . . तो क्या! कह दूँगा, ऐसी बीवी के साथ और ऐसी दिल्ली में अब कौन रहे? न घर में साँस ले पाता हूँ, न घर से बाहर।
‘ये क्या है चार बच्चों के बाप? वहाँ वे कुर्सी के लिए भटकतीं-भटकतीं हिमालय पर और तुम??’आख़िर उन्होंने लंबी-लंबी साँसें लेते पूछ ही लिया। प्रभु हो या भक्त! आज की तारीख़ में हवा शुद्ध हो तो लंबी-लंबी साँसें लेने को किसका मन नहीं करेगा।
’कुछ नहीं प्रभु! बस! शुद्ध हवा की तलाश में भटकता भटकता यहाँ आ पहुँचा हूँ। पर आप भी यहाँ?’
‘तो मैं वहाँ क्या करता भक्त! फेफड़े तो मेरे भी लगे हैं न! दिल तो मेरे भी लगा है न! जीना तो मैं भी चाहता हूँ न! अब जब वहाँ कोई भक्त मंदिर आने के लिए बचा ही नहीं तो वहाँ रहकर मैं क्या करता? जो ग़लती से नाक में बूदड़ा दिए बचा-खुचा कोई मंदिर आता है तो बस दोनों हाथ जोड़े शुद्ध हवा ही माँगता है। जो कहीं है ही नहीं तो उसे दूँ कहाँ से? बस, भक्तों के डर से इसीलिए भाग कर यहाँ चला आया। वाह रीजनल बाबा! कितना सुहावना मौसम है यहाँ!’ कह वे मुझसे भी लंबी-लंबी साँसें लेने लगे तो मैंने पूछा, ‘पर प्रभु! आप तो अजर अमर हैं। आपको क्या शुद्ध तो क्या अशुद्ध? आप तो शुद्ध देसी घी के नाम पर भैंसे की चर्बी से बने नक़ली घी की ख़ुशबू से भी प्रसन्न होते रहे हो। ऐसे में आपको क्या ज़रूरत पड़ी दिल्ली छोड़ने की? कल को जो पुजारी ने वहाँ अपनी ही मूरत लगा ख़ुद ही पूजनी शुरू कर दी तो???’
‘मैं तुम चवन्नी-अट्ठन्नी वाले भक्तों की चालाकी ख़ूब समझता हूँ चालू भक्त! चने के झाड़ पर चढ़ा समझ गया हूँ तुम जैसे एकदिन मुझ मरवा कर ही दम लेंगे। पर मैं अब दिल्ली की चालाकियों में आने वाला नहीं,’ कह वे पता नहीं किस ओर हो लिए।
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