ख़ुश्बू बंद, बदबू शुरू

15-01-2022

ख़ुश्बू बंद, बदबू शुरू

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मेरे व्यंग्यों के उँगली पर गिनती के बचे पाठकों को यह जानकर परम दुख होगा कि इस न्यू ईयर से मैंने व्यंग्य का धंधा बंद करने का फ़ाइनल फ़ैसला ले लिया है। वैसे तो मैं विगत तीन चार सालों से नया वर्ष आरंभ होने पर यह धंधा बंद कर नया धंधा शुरू करने का संकल्प ले रहा था, पर इस धंधे को बंद कर नया क्या करूँ, समझ नहीं पा रहा था। 

पिछले साल भी हैप्पी न्यू ईयर के मौक़े पर मैंने व्यंग्य की दुकान बंद करने का नाइंटी नाइन परसेंट मन बना लिया था, परंतु अपने मन से समर्पित एक पाठक के अनुरोध पर यह धंधा घोर घाटे में चलते होने के बाद भी जारी रख लिया था, उसका मन रखने के लिए। पर अब पाठकों का मन रखने के लिए और घाटा उठाने की मेरी हैसियत नहीं है। इसलिए मेरे पाठक मुझे तहेदिल से क्षमा करेंगे। उनका बचा प्यार मुझे मेरे नए धंधे में जी जान से मिलेगा, ऐसी मुझे उनसे उम्मीद है। 

मित्रो! आप तो जानते ही हैं कि मेरा आंरभ से ही दो-चार सौ वाले व्यंग्य का बिज़नेस रहा। कहानी, कविता मैंने व्यंग्य के साथ कभी नहीं बेचे। क्योंकि एक ही दिमाग़ के खाने में सारा माल रखने से एक दूसरे में घुलने-मिलने का ख़तरा हरपल बना रहता। और सब जगह मिलावट है तो क्या अब लेखन में भी मिलावट की जाए? इसे मेरी तुनक-मिज़ाजी कहिए या मेरा अड़ियलपना! जबकि आज का बाज़ार जनरल साहित्य का बाज़ार है। बाज़ार में आज वही दुकान कामयाब है जहाँ पर जूते से लेकर हैल्मेट एक ही छत में लटके-चटके दिखें। जिस दुकान में जूते चलाने वाले भी सगर्व आते हों और जूतों से अपने सिर बचाने वाले भी, वही दुकान ऊँची दुकान है। 

मित्रो! मैं यह भी जानता हूँ कि जिसने ता-उम्र व्यंग्य ही लिखे बेचे हों, वह मूँगफलियाँ भी सफलता से नहीं बेच सकता। परंतु व्यंग्य की दुकान मेरी अपनी दुकान है, सरकारी सार्वजनिक उपक्रम नहीं कि घाटे के बाद भी उसे जनहित में चलाया जाता रहे। 

अब आपके मन में जिज्ञासा कुलबुला रही होगी कि जवानी से ही व्यंग्य बेचने वाला अब क्या बेचेगा? पर मुझे बेचने को उन्होंने मार्ग दिखा दिया है। इसलिए अब मैं व्यंग्य के अपने पुराने धंधे को हर हाल में बंद कर बदबूमार ख़ुश्बू के नए धंधे में प्रवेश करने जा रहा हूँ। वैसे भी साहित्य की दुकानें अब लगभग बंद हो रही हैं। उनकी जगह अब कोयले के दलालों ने कोयले बेचने में दलाली शुरू कर दी है। सृजन विसर्जन होता जा रहा है, ऑक्सीजन के नाम पर कार्बन उत्सर्जन होता जा रहा है। 

विचार बेचने से बेहतर आज के दौर में बदबूमार ख़ुश्बू बेचना है। भले ही उसे दिमाग़ पर मलते ही दिमाग़ सड़ जाए तो सड़ जाए। शुद्ध ख़ुश्बुओं के ख़रीदार आज बचे भी कहाँ? आज कोई विचार ख़रीदने को तो छोड़ो, मुफ़्त में भी उठाने तक को तैयार नहीं। ख़ालिस बदबुओं के दौर में असली ख़ुश्बू तो ख़ैर मिलेगी ही कहाँ, आज बदबूमार ख़ुश्बू में इतनी कमाई है कि उस कमाई के बारे में सोच मेरे तो अभी से होश उड़ने लग गए हैं। ख़ुदा करे, मेरे होश बदबूमार ख़ुश्बू की दुकान का उनसे उद्घाटन करवाने तक तो कम से कम बचे रहें। 

मित्रो! इत्र की ख़ुश्बू के बदले इत्र की बदबू से होने वाली कमाई को देख टैक्स वाले तक बेसुध हो जाते हैं। मशीनें तक नोट गिनते-गिनते हाँफने लगती हैं। इधर आज तक व्यंग्य की दुकान पर मक्खियाँ मारता ग्राहकों का इतंज़ार करता मैं ही हाँफता रहा हूँ। लौटे व्यंग्यों के पेज गिन-गिनकर बहुत काँप-हाँफ लिया दोस्तो! अब मैं और हाँफना नहीं चाहता। कल को जो जनहित में हाँफते-हाँफते मेरे फेफड़े जवाब दे गए तो उनके हाँफने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर कोई भी ज़िम्मेदारी न लेने के दौर में कौन लेगा? अब मैं इनकम टैक्स वालों के हाँफने से पहले जी भर बदबूमार ख़ुश्बू बेचकर नोट गिनते हुए अपने मन माफिक हाँफना चाहता हूँ बस! 

बंधुओ! आज तक जिसको भी अपना व्यंग्य आधे पौने में ज़बरदस्ती मढ़ने का दुस्साहस किया, उसीको बाद में अपना मन रखने के लिए सप्रेम, सादर, समर्पित भेंट करना पड़ा। हर व्यंग्य संग्रह प्रकाशित करवाने के बाद उस पर लगी लागत भी नहीं निकल पाई। फिर भी मैं जैसे-कैसे जनहित में व्यंग्य की दुकान खोले रहा इस उम्मीद के साथ कि एक दिन तो व्यंग्य के दुकानदार के दिन बहुरेंगे। पर वैसा बिल्कुल न हुआ। 

तो मित्रो! नए धंधे में, नए साल में आपसे ओर कुछ नहीं चाहिए, बस, आपका स्नेह, आपका शुभाशीष चाहिए। आशा ही नहीं, मुझे पूरा अंधविश्वास है कि आपके दिमाग़ का न सही तो न सही, पर आपकी जेब का स्नेह मुझे ज़रूर मिलेगा। वैसे भी इन दिनों सड़क से लेकर सरहद तक साहित्य नहीं, हमारा फॉग और उनका चूँ चूँ करता डॉग ही तो चल रहा है। ऐसे दौर में मैं आपको ऐसी बदबूदार ख़ुश्बू बनाकर दूँगा कि . . . व्यंग्य बेचकर चर्चित न हुआ तो क्या हुआ, ख़ुश्बू में बदबू लपेट बेच पिछली सारी कमियाँ दूर कर लूँगा। 

नए धंधे में प्रवेश के लिए व्यंग्य लेखन के समय के टूटे चप्पल तो मेरे पास हैं ही। पुराने स्कूटर का भी मैंने ईएमआई पर इंतज़ाम कर लिया है ताकि व्यंग्य को लेकर बदनाम होने वाला, अब सबसे साधारण हो चर्चित हो। 

तो कल से मिलता हूँ आपसे बदबूदार ख़ालिस ख़ुश्बू लिए टूटी चप्पलों में पुराने स्कूटर पर, समाज की नाक को हैरान करने वाले भव्य कारोबार का इकलौता फ़ाउंडर हो उनसे भी पुराने स्कूटर पर शान से, इतमिनान से बैठ अपने आगे पीछे टैक्स वालों को नचाता, लगाता, भगाता।

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