रिटायरियों का ओरिएंटेशन प्रोग्राम
डॉ. अशोक गौतम
इधर वे रिटायर हुए उधर उनकी अफ़सरी पानी में। बेचारे रिटायरमेंट के तीसरे ही दिन पगला उठे। जब नौकरी में थे तो घर से लेकर ऑफ़िस तक सबको पागल किए रहते थे।
उन्होंने अपने मुहल्ले में रिटायरियों के हाल तो देखे थे, पर दूर से ही। उन्होंने ये क़तई नहीं सोचा था कि रिटायरमेंट के बाद ये हाल होते हैं। रिटायर होते ही लाखों का अफ़सर घर में धेले का भी नहीं रहता। उन्हें चार दिन में ही साफ़ पता चल गया कि ऊँट पहाड़ के नीचे आए या न, पर रिटायरमेंट के बाद चाहे कोई कितना ही बड़ा अफ़सर क्यों न हो, बीवी के नीचे आकर ही चैन की साँस लेता है, बचने की लाख कोशिशें करने के बाद भी। बीवी उसे अपने हिसाब से करवट बैठा कर ही दम लेती है।
और वे ऑन ड्यूटी के समय के साहसी, दुस्साहसी रिटायरमेंट के चौथे दिन ही बीवी के नीचे न आने की लाख कोशिशें करने के बाद बीवी के नीचे आ ही गए। दूसरे ही दिन उन्हें बीवी के आगे लंगर डालने पड़े।कल उनकी रिटायरमेंट के बाद उनका हालचाल पूछने को फोन किया तो वे इतने डरे हुए कि पूछो ही मत। लग नहीं रहा था कि वे अपने ही घर में हों। तब मुझे लगा ज्यों उनको उनके जिगरी दोस्त का फोन नहीं, ईडी का फोन आ गया हो।
“और बंधु कैसे हो?” मैंने हँसते हुए पूछा तो वे सिसकते हुए बोले। उनके कहते हुए लग रहा था कि उनका रोना अब निकला कि अब निकला।
“सब ठीक है यार! पर तुमने कभी मुझे बताया नहीं कि रिटायरमेंट के बाद धाकड़ से धाकड़ बंदे के भी इतने बुरे हाल हो जाते हैं?” उन्होंने मुझसे रोते-रोते डाँटते हुए पूछा तो मैंने नार्मली कहा, “नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं दोस्त! रिटयरमेंट है तो बरतन धोना है। रिटायरमेंट है तो पोंछा करना है। रिटायरमेंट है तो झाड़ू करना है। रिटायरमेंट है तो मज़े ही मज़े हैं। बस, एडजस्ट करना आ जाए तो . . . और तुम तो जानते ही हो कि एडजस्ट तो मौत के साथ भी करना पड़ता है सो . . . कहीं कोई दिक़्क़त तो नहीं आ रही?” मेरे ये पूछते ही वे बच्चे की तरह सिसकते हुए बोले, “यहाँ तो दिक़्क़तें ही दिक़्क़तें हैं दोस्त! पर तुम धन्य हो यार! जो पाँच साल से रिटायरी का नरक भोग रहे हो और कह रहे हो मज़े ही मज़े! यहाँ तो चार दिन में ही . . . बीवी झाड़ू लगाने को कहती है तो झाड़ू ही नहीं मिलता। बीवी बिस्तर ठीक करने को कहती है तो चारपाई की चादर कभी इधर से लटक जाती है तो कभी उधर से। बीवी चीनी का डिब्बा उठाने को कहती है तो नमक का उठ जाता है। ये नमक और चीनी का रंग एक जैसा क्यों होता है यार? मुझे तो चार दिन में ही पानी पेट्रोल से भी अधिक ज्वलनशील लगने लगा है। चार दिन में ही बहुत टूट गया हूँ। लगता है, मुझसे ये रिटायरी की ज़िन्दगी अब और नहीं जी जाएगी,” सुनते ही सुनते उनके चारों ओर से रोने की आवाज़ें आने लगीं तो मुझे लगा मित्र रिटायर होने के बाद संकट में तो है, पर कुछ अधिक ही संकट में है। ताज़े-ताज़े रिटायर हुए हैं न! रिटायर होने के बाद रिटायर होने की पीड़ाओं से क्लास वन से लेकर क्लास फ़ोर तक के हर कर्मचारी को गुज़रना पड़ता है। ज़िन्दा हाथी लाख का और मरा हाथी सवा लाख का हो तो होता रहे, पर नौकरी पेशा अफ़सर नौकरी में रहते लाख का, पर रिटायर होने पर ख़ाक का होता है। यही हर रिटायरी का शाश्वत सत्य है। पापी से पापी जीव नरक भोगने से बच सकता है, पर रिटायरी रिटायरमेंट की पीड़ाओं को भोगने से नहीं बच सकता।
जनरल संकट में पड़े मित्र की हेल्प हो या न हो, पर घोर संकट में पड़े दोस्त की सहायता करने से बड़ा मानवीय धर्म और कोई नहीं। सो मैंने उनसे कहा, “बहुत दुखी हो तो एक काम हो सकता है।”
“क्या?” लगा जैसे उन्हें संजीवनी मिल गई हो।
“यही कि अपने पड़ोस में एक बंधु रहते हैं। वे रिटायरियों को ओरिएंटेशन प्रोग्राम चलाते हैं ताकि रिटायर होने के बाद सही होते हुए भी वे जूते खाते सुखी जीवन जी सकें।”
“क्या होता है उसमें?”
“यही सब सिखाया जाता कि रिटायर होने के बाद विशुद्ध इगो को कूड़ेदान में डाल बीवी के सामने सिर झुकाकर भीतर ही भीतर रोते गर्व से सुखी और संपन्न जीवन कैसे जिया जाए। इसीलिए कई इंटेलीजेंट तो रिटायर होने से पहले यह कोर्स कर लेते हैं ताकि उन्हें रिटायर होने के बाद कोई परेशानी न हो। कि घर में कुशलता से झाड़ू कैसे लगाया जाए। झाड़ू लगाते समय झाड़ू किस ओर से पकड़ा जाए जिससे कि बीवी पर झाड़ू करते हुए धूल न जाए। कि रेलिंग में काला रंग करते हुए कैसे मुँह काला होने से बचाया जाए। कि बीवी को खिलाने के बाद जो कुछ भी बचा हो उसे चटखारे लगा लगाकर कैसे अपने पेट को भरा-भरा महसूस कराया जाए। कि कितने बरतनों को धोने के लिए कितने विम की ज़रूरत पड़ती है ताकि विम जाया होने पर बीवी से कम से कम गालियाँ न सुनी जाएँ। कि घर में चाय, चीनी कैसे रखी जाए ताकि घर में बिजली चले जाने पर उन्हें आँखें बंद कर ढूँढ़ा जाए। कि बीवी से पूछे बिना उसकी चाय में चीनी कितनी डाली जाए ताकि चाय की चीनी नीम में न बदले। कि कमरे में पोंछा किस कोण में कितना झुककर लगाया जाए ताकि कमर में दर्द भी न हो और फ़र्श पर पोंछा भी सही लग जाए। कि दाल में तड़का कैसे लगाया जाए ताकि वह नाक में चढ़ने के बदले दाल में ही चढ़े और अनचाही छींकों से बचा जाए। कि प्याज़ काटने का सही तरीक़ा क्या है, जिससे उसे काटते वक़्त आँखों से पानी न निकले। और तब प्याज़ काटते वक़्त आँखों से निकलते पानी को देख पत्नी को न लगे कि रिटायर होने के बाद भी उसका पति पीए की याद में रो रहा है। कि कितने कपड़ों को धोने के लिए वाशिंग मशीन में कितना फ़ेस पर लगाने वाला पाउडर नहीं, कपड़े धोने वाला पाउडर डाला जाए,” मैंने उन्हें रिटायरी के ओरिएंटेशन प्रोग्राम के मुख्य आकर्षण बताए तो वे रोते-रोते ही उछलते बोले, “तो रिटायरियों के ओरिएंटेशन का नया बैच कबसे बैठ रहा है?”
“अगले हफ़्ते से। तो तुम्हारी रजिस्ट्रेशन करवा दूँ क्या?”
“हाँ यार! करवा दे। नेकी और पूछ-पूछ! इस नरक से कुछ दिनों के लिए तो छुटकारा मिलेगा। कितने दिनों का प्रोग्राम है वो?”
“बीस दिन का! फ़ीस पाँच हज़ार है।”
“बस!! काश! बीस महीने का होता। फ़ीस बस पाँच हज़ार! नो प्रॉब्लम! सरकार का दिया बहुत है मेरे पास। लीव इनकैशमेंट है। ग्रेच्युटी है। इंश्योरेंस का है। वह अब नहीं तो मरने के बाद काम आएँगे क्या!” उन्होंने जिस ढंग से कहा, लगा, मेरे कर कमलों उनका उद्धार हो गया। आख़िर मेरे जैसे सात्विक दोस्त किसलिए होते हैं? पीड़ित दोस्तों का उद्धार, पुनरोद्धार करने के लिए ही तो होते हैं।
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