मातादीन का श्राप
डॉ. अशोक गौतमज्यों ही मातादीन के प्रदेश में चुनाव घोषित हुए तो महीनों से दुखी मातादीन गद्गद्।
कंबख़्त जबसे कोरोना का क़हर बरपा है, कल तक जो यजमान उसे अपने घर से ग्रहों के डर से जाने ही नहीं देते थे, वही आज उसे अपने घर की देहरी तक पार नहीं करने दे रहे। उन्हें अब ही पता चला कि मातादीन भी कोरोना हो सकता है। जबकि उसके भगवान को बहुत पहले से ही पता था कि मातादीन है ही कोरोना। उसके यजमानों का उसके भगवान पर से इतनी जल्दी विश्वास उठ जाएगा, मातादीन ने ये सपने में भी नहीं सोचा था। उसे तो यही सुभीता था कि जब तक सृष्टि रहेगी, तब तक उसके बनाए भगवान भी रहेंगे। और उसके बनाए भगवान के साथ तो वह रहेगा ही रहेगा। अगर उसके बनाए भगवान न भी रहे तो भी वह उनके होने का समाज में भ्रम बनाए रखेगा। समाज जीवन की सच्चाइयों से कम, फैलाए भ्रमों पर अधिक चलता है। चकाचक धंधे के लिए चालाक आदमी कुछ भी बनाता आया है। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए वह कभी मार्क्सवाद बनाता रहा है तो कभी समाजवाद। जब उसे लगे कि इनसे उसके स्वार्थों की पूर्ति बंद होने लगी है तो सबसे लास्ट में लोकतंत्र बनाता है।
अब आएँगे पाँच साल बाद खाने के मज़े। वोटर को तो चुनाव के दिनों में ही गला तर करने का मौक़ा मिलता है। उसके बाद नेता ही सिर से पाँव तक तर-बतर होता रहता है। कभी इसकी सरकार बनवाने को रिज़ॉर्टों में मस्तियाता हुआ, तो कभी उसकी सरकार गिराने को रिज़ॉर्टों में मस्तियाता हुआ। तीसरा काम आज के नेताओं को पसंद ही नहीं। जब इसकी सरकार गिराने उसकी सरकार बनाने में ही कमाई बेहतर हो जाए तो तीसरा काम करने की ज़रूरत भी क्या? वोट पाने वालों को तो पता नहीं दुख होता होगा कि नहीं पर जिसने आजतक वोट नहीं पाया उस मुझ जैसे को भी तब बहुत दुख होता है जब हज़ार दो हज़ार में वह जागरूक मतदाता से वह वोट ख़रीदता है और ख़ुद करोड़ों में बिक जाता है। इसे कहते हैं राजनीतिक बिज़नेस भाई साहब!
पर कोरोना के चलते वोटरों की हिमायती सरकार ने ज्यों ही घोषणा कि – हे चुनाव में अपनी लोकप्रिय सरकार चुनने को बेताब हुए वोटरो! तुम जानो या न! सच पूछो तो चुनाव के दिनों में हमें तुम उतने प्रिय होते हैं जितने भगवान को अपने भक्त भी नहीं होते। चुनाव के दिनों में हम अच्छी तरह जानते हैं कि चुनाव में एक-एक वोटर कितना क़ीमती होता है? चुनाव के दिनों में उनके लिए अपनी पार्टी का एक-एक वोटर लाखों-करोड़ों का होता है। अपने वोटरों के बूते ही तो हम मौज कर पाते हैं। अतः सरकार नहीं चाहती कि उसका एक भी वोटर इन दिनों महामारी की चपेट में आए। चुनाव के बाद उसे हमारी चपेट में आने से कोई भी नहीं बचा सकता। लोकतंत्र में वोटर की मुक्ति हमारे ही हाथों होती है। इसलिए तब तक वह अपने वोटर को लेकर इस महामारी काल में कोई रिस्क नहीं लेना चाहती जब तक चुनाव पूरे नहीं हो जाते। उसके बाद वोटर जाने, उसके भाग्य जाने। इसलिए सरकार ने तय किया किया है कि वोटरों के चुनाव तक रक्षार्थ चुनाव प्रचार अबके वर्चुअल ही होगा।
टीवी पर यह ख़बर सुनते ही मातादीन मेरे यहाँ दौड़ा-दौड़ा आया। मैं कोरोना को दरवाज़े पर न रोकता तो कंबख़्त भीतर ही घुस गया होता। मातादीन पंडित तो है पर... पंडित होना और पढ़ा-लिखा होना दो अलग-अलग बातें हैं। यह ज़रूरी नहीं कि जो पढ़ा-लिखा हो, पंडित भी हो। और जो पंडित हो वह पढ़ा-लिखा भी हो। मैंने अपने आसपास ऐसे बहुत से देखे हैं कि जो पढ़े-लिखे तो हैं, पर पंडित क़तई नहीं। और जो पंडित हैं वे पढ़े-लिखे क़तई नहीं। क्योंकि पढ़े-लिखे को पंडित होने की ज़रूरत नहीं। वह आँखें मूँद पंडित मान लिया जाता है। दूसरी ओर पंडित तो पंडित ही होता है। धंधे में पढ़ाई और पंडिताई बिल्कुल अलग-अलग चलती हैं।
मैंने उसे दरवाज़े पर बड़ी मुश्किल से रोका तो उसने अपने को ब्रेक लगाई। चर्र की आवाज़ हुई – “अब सरकार ने ये क्या नया पंगा ले लिया बाबू? ये वर्चुअल रैली क्या होती है? अब तो हद हो गई! सरकार जो मन में आए करे जा रही है और हम… हम तो कबसे इस आस में बैठे थे कि ...देखो बाबू! अगर चुनाव में वोटरों की मौज-मस्ती का पुख़्ता इंतज़ाम न हुआ तो कम से कम हम तो वोट डालने घर से निकलेंगे ही नहीं। चाहे लाख ये वे अपने धंधे पर उठा हमें बूथ तक ले जाएँ। फिर देखते हैं कैसे बिकते हैं करोड़ों में? हमारे हाथों की सारी उँगलियाँ सपने पैने करते-करते कट गई हों तो कट गई हों, पर बटन दबाने वाला अँगूठा तो अभी भी अपने पास जैसे-तैसे सही सलामत है। बाद में चाहे इसी अँगूठे से अपना ही गला क्यों न दबाना पड़े। इन रैलियों में वोटरों को खाने को भी कुछ मिलेगा कि नहीं?? हम तो कबसे जीभें लपलपाए बैठे हैं कि जब चुनाव होंगे तो... मत पूछो बाबू, चुनाव के दिनों में कभी इसकी रैली में तो कभी उसकी रैली में खाने-पीने का कितना मज़ा आता रहा है। अबके चुनाव में पहले वाले ढोल-ढमाके भी होंगे कि नहीं? सच कहूँ तो इतना दीवाली दशहरे की मस्ती टाइम नहीं कटता, जितना चुनाव की मस्ती में कट जाता है। चुनाव के वक्त जब तक गाँव तक के सपोर्टर अपने नेता की जीत हेतु एक दूसरे के सिर न फोड़े-फाड़ें, एक दूसरे की टाँगें न तोड़ें ताड़ें तो काहे के चुनाव!”
“ठीक ही तो है मातादीन! सरकार को महामारी में ही सही, वोटरों की चिंता तो हुई। महामारी के दौर में सरकार चाहती है कि अबके चुनाव में वोटरों में तेल-पानी वर्चुअली ही भरेगी। इंद्र अपने सिंहासन पर हों या न, लोकतंत्र की कुर्सी पर नेता ज़रूरी है। जब तक कुर्सी पर कोई न हो, विकास का कुछ नहीं हो सकता। सदियों से दो पेज इधर के तो दो पेज उधर के जोड़ी फटी पोथी लेकर घर-घर यजमानों को ठगते इस दौर में भी सुभीता पाले किस काल में जी रहे हो मातादीन बाबू? ये दौर ऑन लाइन को दौर है। बच्चा पैदा बाद में होता है फ़ेसबुक पर उसको पहले डाल दिया जाता है। विवाह से लेकर स्वाह तक सब ऑन लाइन। आज का ज़माना वर्चुअलिटि का ज़माना है, घिसा-पीटी का ज़माना है। आज हमारी भलाई इसी में है कि हम ऑन लाइन ही खाएँ, ऑन लाइन ही पहनें और ऑन लाइन ही सो जाएँ। देखो तो, आज भगवान के दर्शन से लेकर उनका प्रसाद तक सब ऑन लाइन चल रहा है। मुक्ति ऑन लाइन, मोक्ष ऑन लाइन! भक्ति ऑन लाइन, शक्ति ऑन लाइन। स्वर्ग-नरक और सरकारी नौकरी तो ख़ैर अप्रोच से ही मिलते रहे हैं। ये सच कितना है, कहने वाले ही जाने पर मैंने तो यहाँ तक सुना है कि आजकल मरने वालों को भी यमराज के पास जाने के लिए वहाँ से ई-पास ही जारी हो रहे हैं। जिनके पास उनके ऑफ़िस से जारी हुए ई-पास हैं, उन्हें ही ऊपर एंट्री मिल रही है। शेष, मरने के बाद भी अपने घर में रहें, सेफ़ रहें। बिन पास वाली आत्माओं को तो बैरियर पर ही रोका जा रहा है, चाहे उन्होंने कितने ही पुण्य क्यों किए हों।”
“मतलब??” मातादीन भौंचक!
“हाँ मातादीन! गया वो ज़माना जब पंडितों के आदेश के बिना मरा जीव किसी भी लोक को प्रस्थान करने को लाख उतावला होने के बाद भी तब तक इंच भर भी आगे न सरकता था जब तक पंडित जी के आदेश न होते थे। अब जीव को ऊपर जाने के लिए पंडित नहीं, ई-पास ज़रूरी है। आधार कार्ड ज़रूरी है। बिन आधार कार्ड वाले जीव अब मरने के बाद भी अधर में ही लटक रहे हैं। आज ऊपर जाने के लिए मास्क ज़रूरी है, सैनिटाइज़र ज़रूरी है। भले ही वह मुँह पर मास्क न लगाने के चलते, हाथ सैनिटाइज़र से न धोने पर ही मृत्यु को प्राप्त हुआ हो। सुना तो यहाँ तक है कि यमराज ने अपने मंत्रालय से नई एडवाइज़री भी जारी कर दी है कि चाहे कोई कितनी ही साख वाला गुज़रा हो, जब तक वह अपने साथ अपने निगेटिव होने की रिपोर्ट उनके द्वारा तय हुई लैब से ख़रीदकर नहीं लाएगा, उसे वहाँ पर एक तो प्रवेश ही नहीं करने दिया जाएगा। और अगर वह मिल-मिलाकर उनके लोक में प्रवेश कर ही गया तो उसे हर हाल में अपनी मर्ज़ी से इंस्टिट्यूशनल क्वारंटीन कर दिया जाएगा।”
“मतलब?? चुनाव की घोषणा होने के बाद मैंने तो सोचा था कि कोरोना के चलते बंद होटलों, मंदिरों, डरे यजमानों के चलते चुनाव में थोड़ी बहुत मौज-मस्ती कर लेंगे पर... जा रे कोरोना! तेरा कुछ न रहे! तेरा बड़ा गर्क हो जाए। तू बेघर हो जाए। तेरा पूरा कुनबा ही ख़त्म हो जाए! तुझ मरते को कोई दो बूँद गंगाजल देने वाला भी न मिले... मैं मातादीन तुझे श्राप देता हूँ कि... मैं तुझे श्राप देता हूँ कि…”
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- रावण ऐसे नहीं मरा करते दोस्त
- शर्मा एक्सक्लूसिव पैट् शॉप
- अंधास्था द्वारे, वारे-न्यारे
- अंधेर नगरी फ़ास्ट क़ानून
- अजर अमर वायरस
- अतिथि करोनो भवः
- अपने गंजे, अपने कंघे
- अब तो मैं पुतला होकर ही रहूँगा
- अभिनंदन ग्रंथ की अंतिम यात्रा
- अमृत अल्कोहल दोऊ खड़े . . .
- असंतुष्ट इज़ बैटर दैन संतुष्ट
- अस्पताल में एक और आम हादसा
- आज्ञाकारी पति की वाल से
- आदमी होने की ज़रूरी शर्त
- आदर्श ऑफ़िस के दरिंदे
- आश्वासन मय सब जग जानी
- आसमान तो नहीं गिरा है न भाई साहब!
- आह प्रदूषण! वाह प्रदूषण!!
- आह रिटायरी! स्वाहा रिटायरी!
- इंस्पेक्टर खातादीन सुवाच
- उठो हिंदी वियोगी! मैम आ गई
- उधार दे, कुएँ में डाल
- उनका न्यू मोटर वीइकल क़ानून
- उफ़! अब मेरे भी दिन फिरेंगे
- एक और वैष्णव का उदय
- एक निगेटिव रिपोर्ट बस!
- एक सार्वजनिक सूचना
- एप्पों की पालकी! जय कन्हैया लाल की!
- ऐन ऑफ़िशियल प्लांटेशन ड्राइव
- ऑफ़िस शोक
- ओम् जय उलूक जी भ्राता!
- कंघीहीन भाइयों के लिए ख़ुशख़बरी!
- कवि की निजी क्रीड़ात्मक पीड़ाएँ
- काम करे मेरी जूत्ती
- कालजयी का जयंती लाइव
- कालजयी होने की खुजली
- कुक्कड़ का राजनीतिक शोक
- कुछ तीखा हो जाए
- कुशल साहब, ग़ुसल लाजवाब
- केवल गाँधी वाले आवेदन करें
- क्षमाम्! क्षमाम्! चमचाश्री!
- खानदानी सांत्वना छाप मरहमखाना
- गधी मैया दूध दे
- गर्दभ कैबिनेट हेतु बुद्धिजीवी विमर्श
- चमचा अलंकरण समारोह
- चरणयोगी भोग्या वसुंधरा
- चला गब्बर बब्बर होने
- चार्ज हैंडिड ओवर, टेकन ओवर
- चुनाव करवाइए, कोविड भगाइए
- छगन जी पहलवान लोकतंत्र की रक्षा के अखाड़े में
- जनतंत्र द्रुत प्रगति पर है
- जाके प्रिय न बॉस बीवेही
- जी ज़नाब का मिठाई सेटिंग दर्शन
- जैसे तुम, वैसे हम
- जो सुख सरकारी चौबारे वह....
- ज्ञानपीठ कोचिंग सेंटर
- टट्टी ख़त्म
- ट्रायल का बकरा मैं मैं
- ट्रिन.. ट्रिन... ट्रिन... ट्रिन...
- ठंडी चाय, तौबा! हाय!
- ठेले पर वैक्सीन
- डेज़ी की कमर्शियल आत्मकथा
- डोमेस्टिक चकित्सक के घर कोराना
- तीसरे दर्जे का शुभचिंतक
- त्रस्त पतियों के लिए डायमंड चांस
- त्रासदी विवाहित इश्क़िए की
- दंबूक सिंह खद्दरधारी
- दीर्घायु कामना को उग्र बीवी!
- धुएँ का नया लॉट
- न काहू से दोस्ती, न काहू की ख़ैर
- नंगा सबसे चंगा
- नई नाक वाले पुराने दोस्त
- नमः नव मठाधिपतये
- नशा मुक्ति केंद्र में लेखक
- नो कमेंट्स प्लीज!
- नक़लं परमं धर्मम्
- पधारो म्हारे मोबाइल नशा मुक्ति धाम
- परसाई की पीठ पर गधा
- पशु-आदमी भाई! भाई!
- पहली बार मज़े
- पार्टी सौभाग्य श्री की तलाश
- पावर वालों का पावरफ़ुल कुत्ता
- पुरस्कार पाने का रोडमैप
- पुरस्कार रोग से लाचार और मैं तीमारदार
- पुल के उठाले में नेता जी
- पेपर लीकेज संघ ज़िंदाबाद!
- पैदल चल, मस्त रह
- पोइट आइसोलेशन में है वसंत!
- पोलिंग की पूर्व संध्या पर नेताजी का उद्बोधन
- फिर हैप्पी इंडिपेंडेंस डे
- फोटुओं और कार्यक्रमों का रिश्ता
- बंगाली बाबा परीक्षक वशीकरण वाले
- बधाई हो बधाई!!
- बाबा के डायपर और ऑफ़िस में हाइपर
- बुद्धिजीवी मेकर
- बूढ़ों के लिए ख़ुशख़बरी!
- बेगम जी के उपवास में ख़्वारियाँ
- बैकुंठ में जन्म लेती कुंठाएँ
- ब्लैक मार्किटियों की गूगल मीट
- भगौड़ी बीवी और पति विलाप
- भाड़े की देशभक्ति
- भोलाराम की मुक्ति
- मंत्री जी इंद्रलोक को
- मच्छर एकता ज़िंदाबाद!
- मातादीन का श्राप
- मातादीनजी का कन्फ़ैशन
- माधो! पग-पग ठगों का डेरा
- मार्जन, परिमार्जन, कुत्ता गार्जियन
- मालपुआमय हर कथा सुहानी
- मास्टर जी मंकी मोर्चे पर
- मिक्सिंग, फिक्सिंग और क्या??
- मुहब्बत में राजनीति
- मूर्तिभंजक की मूर्ति का चीरहरण
- मेरी किताब यमलोक पहुँची
- मेरे घर अख़बार आने के कारण
- मॉर्निंग वॉक और न्यू कुत्ता विमर्श
- मोबाइल लोक की जय!
- यमराज के सुतंत्र में गुरुजी
- यान के इंतज़ार में चंद्र सुंदरी
- राइटरों की नई राइटिंग संहिता
- राजनीतिक निवेश में ऐश ही ऐश
- रामदास, ठंड और बयानू सिकंदर
- रिटायरमेंट का मातम
- रिटायरियों का ओरिएंटेशन प्रोग्राम
- रैशनेलिटि स्वाहा
- लिंक बनाए राखिए . . .
- लिटरेचर फ़र्टिलिटी सेंटर
- लो, कर लो बात!
- वदाइयाँ यार! वदाइयाँ!
- विद द ग्रेस ऑफ़ ऑल्माइटी डॉग
- विनम्र श्रद्धांजलि पेंडिंग-सी
- वीवीआईपी के साथ विश्वानाथ
- वैक्सीन का रिएक्शन
- वैष्णवी ब्लड की जाँच रिपोर्ट
- व्यंग्य मार्केटिंग में बीवियाँ
- शर्मा जी को कुत्ता कमान
- शुभाकांक्षी, प्यालीदास!
- शेविंग पाउडर बलमा
- शोक सभा उर्फ टपाजंलि समारोह
- सजना है मुझे! हिंदी के लिए
- सम्मान लिपासुओं के लिए शुभ सूचना
- सम्मानित होने का चस्का
- सर जी! मैं अभी भी ग़ुलाम हूँ
- सरकार का पुतला ज़िंदाबाद!
- सर्व सम्मति से
- सामाजिक न्याय हेतु मंत्री जी को ज्ञापन
- साहब और कोरोना में खलयुद्ध
- साहित्य में साहित्य प्रवर्तक अडीशन
- सूधो! गब्बर से कहियो जाय
- सॉरी सरजी!
- स्टेट्स श्री में कुत्तों का योगदान
- स्याही फेंकिंग सूची और तथाकथित साली की ख़ुशी
- स्वर्गलोक में पारदर्शिता
- हँसना ज़रूरी है
- हम हैं तो मुमकिन है
- हाथ जोड़ता हूँ तिलोत्तमा प्लीज़!
- हादसा तो होने दे यार!
- हाय! मैं अभागा पति
- हिंदी दिवस, श्रोता शून्य, कवि बस!
- हिस्टॉरिकल भाषण
- हैप्पी बर्थडे टू बॉस के ऑगी जी!
- ख़ुश्बू बंद, बदबू शुरू
- ज़िंदा-जी हरिद्वार यात्रा
- ज़िम्मेदारों के बीच यमराज
- फ़र्ज़ी का असली इंटरव्यू
- फ़ेसबुकोहलिक की टाइम लाइन से
- फ़्री का चंदन, नो चूँ! नो चाँ नंदन!
- फ़्री दिल चेकअप कैंप में डियर लाल
- कविता
- पुस्तक समीक्षा
- कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-